Tuesday 8 November 2016

हल्की सी रेखा -अंतिम भाग

हल्की सी रेखा
अंतिम भाग

“मतलब...? मैं समझा नहीं?”
“मतलब कि अक्सर लोगों को बिना जहर वाले सांप ही काटे होते हैं. इन लोगों को भी बिना जहर वाले सांप ने ही काटा था, यदि ये कहीं नहीं जाते, बस अपनी हिम्मत बनाये रखते, तो भी इन्हें कुछ नहीं होता. उस सिध्द बाबा के पास कोई सिध्द मंत्र, या मिट्टी नहीं है, लेकिन यह हुनर है कि उसने गाँव वालों के मन में यह विश्वास बैठा दिया है कि जो उसके पास आ जायेगा, उसे वह मन्त्र फूंकी मिट्टी से बचा लेगा.” 
   आरव को अब भी उनकी बातों पर विश्वास नहीं आ रहा था इसीलिए उसने शंकित आवाज में पूछा,
   “लेकिन तुम्हें कैसे पता चला कि वो सांप बिना जहर वाला था? तुमने तो सांप देखा भी नहीं. तुम तो दूर खड़े थे.”
   रामू दादा की आँखों में अनुभव के मोती चमक उठे, उनके कंधे जानकार होने के विश्वास में तन गये. उन्होंने कहा,
   “भैया! मेरी आधी जिंदगी गाँव में गुजरी है, आधी शहर में, इसलिए मैं गाँव के लोगों के दिमाग की अन्धविश्वास की गलियों से भी परिचित हूँ, तो शहर के विज्ञान की सिक्स लेन रोड से भी. मैं एक डॉक्टर के पास दस साल गाड़ी चला चुका हूँ. उन्होंने ही मेरे को एक बार बताया था, कि जब जहरीला सांप काटता है, तो उसके दो दांतों के निशान दिखते हैं, जबकि बिना जहर वाले सांप के काटने में कई दांतों के निशान दिखते हैं. इन लोगों के काटे के निशान में कई दांतों के निशान दिख रहे थे. इसी से मैं पहले ही कह दिया, कि इन्हें कुछ नहीं होगा, लेकिन कोई जिंदगी से विश्वास ही खो दे तो क्या किया जा सकता है.”
   रामू दादा ने यह गहरी साँस लेते हुए कहा, फिर उन्होंने आरव की ओर गहरी नज़रों से देखते कुछ ऐसा कहा, कि वह बात आरव के दिल में फांस सी जा चुभी. उन्होनें कहा,
   “भैया! जब तक आप किसी को विकल्प नहीं दे सकते, तब तक उनके उस विकल्प को नहीं छीनना चाहिए, जिसके सहारे वे जीते हैं. ये गाँव के बैगा-गुनिया आपके शहर के...वो क्या कहते हैं?.. हाँ! मनोंवैज्ञानिक का काम ही तो करते हैं.” 
   आरव के दुखी दिल के समंदर में अपने निर्णय के कारण किसी की जान जाने की ग्लानि की लहरें तूफानी होने लगीं. उसे लगने लगा कि उसने वहां व्याप्त अन्धविश्वास का समर्थन न कर के गलत किया. इसी वजह से एक जान गई. वह बेतरह उदास हो उठा. दुनिया घूमती सी लगी. वह पास ही खड़े एक बरगद के मोटे तने से टिक गया. वह रोना चाहने लगा... जोर से रोना... किसी से लिपट के रोना... वह बरगद के तने से लिपट कर जोर से चिल्ला उठा.
   किंशुक ने उसे यूँ बरगद के तने पर ढेर होते देखा तो दौड़ती चली आई.
   “क्या हुआ आरव? तुम इतने परेशान क्यों हो रहे हो. तुमने हर वो कोशिश तो की थी जो तुम्हें सहीं लगी. फिर खुद को जिम्मेदार क्यों मान रहे हो?”
   आरव का दर्द बेहद घातक दर्द था. खुद की वजह से किसी की जान जाने के अहसास का दर्द. उसकी आवाज ग्लानि के बोझ से दबी हुई थी, आंसुओं से गीली थी,
   “किंशुक मैंने कभी नहीं सोचा था कि आधुनिक विज्ञान पर विश्वास से, किसी की मदद करते हुए मैं एक जान के जाने का गुनाहगार बन जाऊंगा. गाँव वालों को उस सिध्द बाबा पर विश्वास है, तो मुझे उन्हें उनके विश्वास पर विश्वास रखने देना था. मैंने अपने गलत निर्णय से एक जान ले ली है.”
किंशुक यह सुन कर भी चुप ही रही. कभी-कभी सामने वाले की चुप्पी का दबाव मन के फोड़े को फोड़ कर मन का मवाद बाहर निकाल देता है. आरव के मन का मवाद बहने लगा,
“पता है किंशुक! रामू दादा ऐसे सिध्द बाबा को गाँव के मनोवैज्ञानिक का दर्जा देते हैं. मैं भी यही सोच रहा हूँ, कि जब विश्वास में इतनी शक्ति होती तो ऐसे मनोवैज्ञानिक बाबा को अन्धविश्वास बढ़ाने वाला बैगा-गुनिया मानने की जगह हमें इन्हें मनोवैज्ञानिक ही क्यों नहीं मान लेना चाहिए. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, बहुत अजीब सा लग रहा है.”
आरव अपनी ग्लानि में झाड़-फूंक करने वाले, अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाले बैगा-गुनिया को मनोवैज्ञानिक तक का दर्जा देने लगा. उसके मन में छाये ग्लानि के वायरस ने उसके दिमाग के सॉफ्टवेयर को विचलित कर दिया था. किंशुक को सब समझ आ रहा था. वह आरव के सवालों का जवाब भी जानती थी. लेकिन वह यह भी जानती थी कि इस वायरस का एंटीवायरस आरव के पास ही है. उसके मन के सागर में दुनिया की सारी बातों के सही गलत के जवाब छिपे हैं. बस जरूरत गहरे गोता लगा, सच्चे मोती चुन लेने की है, इसलिए उसने समझाने की कोई कोशिश नहीं की अपितु उससे कहा,
   “आरव तुम्हें अजीब लगेगा कि तुम इतने परेशान हो और मैं तुम्हें अपने बचपन की बात सुना रही हूँ पर तुम एक बार सुन लो. कभी मैं भी बचपन में विश्वास की बात को लेकर ऐसे ही परेशान थी, जैसे अभी तुम हो. कुछ बड़ी हुई तो मेरी परेशानी मम्मी ने दूर कर दी. तुम भी यह बात सुन लो, शायद तुम्हारी यह परेशानी भी दूर हो जाये.”
   आरव ने कुछ नहीं कहा बस टकटकी लगाये किंशुक को देखता रहा जैसे उसकी आँखें ही उसकी आवाज बन कह रही हों- “सुनाओ”
   “यह तब की बात है, जब मैं बहुत छोटी थी. हमारे घर के पास ही मेरी एक दोस्त शालू का भी घर था. उसके घर से हर शाम को उसकी दादी की  हृदयविदारक कराहें, जो कराहें कम चीखें अधिक लगती थी, सुनाई आने लगती थीं. हर शाम उनके पेट में तेज दर्द उठता था. पहले तो रोज ही कराहें सुनाई आती, फिर वे दवाई खाने लगीं, तो उनका दर्द ठीक हो गया. जिस भी दिन उन्हें दवाई खाने में देर हो जाती, या कभी दवाई ख़त्म हो जाती, तो उनका भीषण दर्द फिर शुरू हो जाता, और उससे भी भीषण होती उनकी कराहें.”
   “ओह...इतना दर्द.”
   “हाँ आरव, लेकिन तुम्हें यह जानकर अजीब लगेगा, कि बाद-बाद में उन हृदयविदारक कराहों को, शालू की मम्मी ‘ये सब तो मांजी की नौटंकी है, उन्हें कोई दर्द-वर्द नहीं होता’ कहा करती थी.”
   आरव के ग्लानि से धूसर हुए चेहरे में प्रश्न का एक धूमिल सितारा झलका. उसने एक टक देखते हुए पूछा, “लेकिन वे ऐसा क्यों कहा करती थीं.”
   “ये तुम्हें अभी पता चल जायेगा. तुम आगे तो सुनो.” किंशुक पुरानी बातें याद करते हुए आगे कहने लगी.
   “कुछ महीनों की दवाई खाने के बाद एक बार दादी की दर्द की दवाई ख़त्म हो गई. उस दिन घर पर शालू के पापा भी नहीं थे. बेहद मूसलाधार बारिश हो रही थी. बिजली बंद थी. शालू की दादी बेहद कराह रहीं थी. तब आंटी ने परेशान हो कर रसोई से एक चना दाल का दाना, ‘लीजिये मंगा दी आपकी दवाई’ कह कर उन्हें दे दिया. शायद उनकी दवाई चना दाल जैसी ही दिखती थी. चना दाल खाने के कुछ देर बाद उन्हें आराम हो गया. इसके बाद से चार-पांच साल तक जब तक वह रहीं, चनादाल ही दवाई के रूप में खाती रहीं. जिस दिन भी चना दाल की दवाई देने में देने में देर हो जाये, तो उनका कराहना शुरू हो जाता था.”
   “ऐसा कैसे हो सकता है?” आरव ने तुरंत अविश्वास से कहा.
   “ऐसा होता रहा है आरव. वो भी चार-पांच सालों तक.” उतनी ही तेजी से अपनी बात पर जोर देते हुए किंशुक ने भी जवाब दिया, फिर आगे कहने लगी,
   “आंटी की बात सुन कर मैं भी मानने लगी थी कि दादी दर्द का सिर्फ नाटक करती हैं. एक बार घर में उनके दर्द के बारे में बात हो रही थी. मैंने बेहद असंवेदनशीलता से दादी के लिये कही आंटी की बात दोहरा दी, कि दादी को कोई दर्द-वर्द नहीं होता था. वे तो बस नाटक करती थीं. मम्मी ने मुझे तुरंत इसके लिए टोका, फिर उन्होंने मुझे प्लेसिबो इफेक्ट के बारे में बताया. बाद में मैंने भी पढ़ा. मम्मी के बताने से मुझे पता चला कि वे नाटक नहीं करती रही होंगी, बल्कि उन्हें वास्तव में दर्द होता रहा होगा. उन्हें उस दर्द की शाश्वतता और उस दवाई दोनों पर विश्वास हो गया था, कि उन्हें दर्द होता है, जो यह  दवाई खाने से ठीक हो जाता है, और वाकई में उनका दर्द इस विश्वास से ही ठीक हो जाता था.”
   आरव ने तुरंत कहा, यहाँ भी वही विश्वास ही तो है. जिस पर मैंने विश्वास नहीं किया और अस्पताल ले चलने की जिद पाले रहा. किंशुक, तुम्हारी इस बात में इसमें मेरे प्रश्न का जवाब कहाँ है? जब विश्वास में इतनी शक्ति होती है तो ऐसे मनोवैज्ञानिक बाबा को अन्धविश्वास बढ़ाने वाला बैगा गुनिया मानने की जगह हमें इन्हें मनोवैज्ञानिक क्यों नहीं मान लेना चाहिये?”
   आरव अब भी दुःख के गड्ढे में डूबा हुआ, ग्लानि के कीचड़ से लथपथ ही था. हममें से अधिकांश अपने प्रश्नों का गला बचपन से ही घोंटना सीख चुके होते हैं. ये हमारे समाज में अच्छा बच्चा होने, अच्छा बड़ा होने के लिए जरुरी माना जाता है. जिनके पास प्रश्न होते हैं उन्हीं के पास उत्तर भी होते हैं. किंशुक ने कभी प्रश्नों का गला नहीं घोंटा इसलिए उसके पास उत्तर भी थे.
   किंशुक ने आरव से कहा, “अभी मेरी बात ख़त्म नहीं हुई आरव. अब यदि मैं कहूँ कि उसके बाद से शालू के घर में हर बीमारी का इलाज चना दाल से होने लगा. शालू को अपेंडिसाइटिस हो गया. उसकी मम्मी उसे दिन में चार बार चना दाल खिलाने लगी...” 
   आरव ने भौंचक्के होते हुए कहा, “ये क्या पागलपन है. शालू की दादी का दर्द चना दाल खा कर ठीक हो जाता था. यह उसकी दादी का उस दवाई पर विश्वास था, यदि इसी विश्वास को घर के दूसरे सदस्यों पर भी लागू करें, हर किसी को, किसी भी बीमारी में चना दाल खिलाएं, तो यह अन्धविश्वास ही होगा. ऐसे तो शालू की जान ही चली जाये... क्या वो बच पाई?”
   किंशुक ने मंद-मंद मुस्कुराती हुई, विश्वास से चमकती आँखों से आरव की आँखों में देखते हुए कहा,
   ”इसे सांप काटने वाले केस में भी तो लागू कर के देखो... क्या कहते हो तुम?”
   किंशुक की चमकती आँखें आरव के मन को भेदने लगी. ग्लानि के कीचड़ में डूबा विश्वास का सूरज उभरने लगा. उसके दिमाग में बिखरे विचारों के रेशे खुद से ही सुलझने लगे. सुलझे दिमाग ने एंटीवायरस का काम किया. अब उसे बरगद के सहारे की जरुरत न रही. विश्वास की शक्ति को पाकर, उसे असीम शांति मिली. उसने बुझी आँखों लेकिन वापस लौट आये आत्मविश्वास के साथ कहा,
   “तुम्हें कैसे धन्यवाद कहूँ किंशुक. अब मैं समझ गया, कि विश्वास और अन्धविश्वास के बीच एक बहुत हल्की सी रेखा होती है.”
   आरव की सहजता, उसकी मुस्कान के लौटने में बाधक एक जान जाने का दुःख अब भी उसके मन में था. जो उसकी प्रदीप्त रहने वाली आँखों को बुझाये हुए था. तभी रामू दादा ने आकर कहा, “आरव भैया अब तो आप खुश हो जाइये... वो सिध्द बाबा की मिट्टी काम कर गई. दसरथ की सांसे वापस लौट आईं हैं.”
   अब आरव की आवाज और आँखों  में वही उत्साह भर आया जैसा कभी आर्किमिडीज की आवाज और आँखों में ‘यूरेका’ कहते वक्त रहा होगा.
   “अच्छा! अब मैं ये भी समझ गया, कि दादी क्यों कहती थीं, कि सांप काटने से मरे आदमी को जलाते नहीं, नदी में बहा देते हैं.”
   इस खबर के साथ ही आरव के मन का मरुस्थल होता कोना फिर हरियाला हो आया. उसने किंशुक को आत्मविश्वास भरी मुस्कान और कृतज्ञता भरी ऐसी नज़रों से देखा जो कह रही थी कि तुम्हारा आत्मविश्वास, तुम्हारी समझदारी ही तो मुझे तुम्हारी ओर चुम्बक सी खींचती हैं. जंगल में पेड़ों पर लौटते परिंदों, पेड़ों की फुनगियों की ओर चढ़ती धूप और मन में चढ़ती ज्ञान ज्योति के बीच वह आगे कहने लगा,
   “किंशुक अब मैं सारी बात समझ गया, कि यदि ये बाबा सिर्फ बिना जहर वाले सांपो के काटे व्यक्तियों का इलाज करते. गाँव वालों पर अपना विश्वास बनाये रखने के लिए जहरीले सांप काटे व्यक्तियों की बलि नहीं चढ़ाते. उन्हें बिना देरी किये डॉक्टरी सहायता के लिए भेज देते तो ही उन्हें मनोवैज्ञानिक स्वीकार किया जा सकता था. लेकिन वे अपने पर विश्वास बनाये रखने के लिए कई व्यक्तियों की बलि चढ़ा देते हैं इसलिए इसे अन्धविश्वास ही कहेंगे. जिसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. तुम बिलकुल सही हो किंशुक, तुमने मुझे बेकार की बातों में फंसने से बचा लिया.”
  चिड़ियों ने अपने कलरव से आसमान सर पर उठा रखा था. त्तेंदूपत्ता तोड़ते लोग अपने चूल्हे की आग जलाने और पेट की आग बुझाने का इंतजाम कर घर वापसी की तैयारी में थे. किंशुक ने मुस्कुरा कर कहा,
“आज का सारा समय तो यह समझने में ही निकल गया. अब चलो, थोड़ा अपनी रिपोर्ट पर भी काम कर लें.”
हरियाले जंगल को अपने आगोश में कसती इस सुनहरी पीली संध्या में सच और मन दोनों ही के जंगल में पक्षियों का उल्लासित कलरव गूंजने लगा.
                             ---*---   

No comments:

Post a Comment