Monday 7 November 2016

हल्की सी रेखा भाग -3

भाग -3
   “ऐसे में तो अस्पताल ले जाना ही ठीक होगा. डॉक्टर एंटीवेनम का इंजेक्शन लगा देंगे, तो ये दोनों ठीक हो जायेंगे.” आरव ने जोर देते हुए कहा. शहर में पले-बढ़े आरव के लिए सांप काटने पर अस्पताल न ले जाना अकल्पनीय बात थी.
   “न नोनी-बाबू हमन ल त ओ आसरम म छोड़ देवा” आखिर वे ग्रामीण नहीं माने.  
   किंशुक ने बहस को स्थगित करते हुए ड्राइवर को कहा,
   “रामू दादा जल्दी चलो”
   रामू दादा जल्दी से ड्राइविंग सीट सँभालने की जगह, दोनों के सांप काटने वाली जगह को ध्यान से देखते खड़े थे. वे मुस्कुराते हुए जल्दी से बोले,
   “अरे दीदी इन्हें कहीं मत ले जाओ. इन्हें बिना जहर वाले सांप ने काटा है. कुछ नहीं होगा इन्हें.”
   लेकिन दो लोगों को सांप काटने का आतंक ही इतना था, कि उनकी आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज बन कर रह गई. किंशुक, उसके साथी और गाँव वाले सब उन पर भड़क गए. वह चुपचाप ड्राइविंग सीट पर बैठ गये. साथ में दो-तीन गाँव वाले और किंशुक की टीम से सुभाष उनके साथ जाने लगा क्योंकि सुभाष उस इलाके से परिचित था. जाने आरव को क्या महसूस हुआ कि वह भी उनके साथ हो लिया. उधर दोनों मरीजों की स्थिति बिगड़ती जा रही थी. वे उनींदे हो रहे थे,
   “कमली... कमली उठ.. उठ,  सुत झन...”
   “दसरथ उठ ग... जागे रह... बस अभी आसरम पहुँचत हन.”
   उन्हें जगाये रखने की कोशिश जारी थी, और आरव की उन्हें डॉक्टर के पास ले जाने की कोशिश भी जारी थी. नदी की धारा के साथ बहना उचित समझ कर, एक बार तो आरव ने सोचा, कि चुपचाप जैसा ये कह रहे हैं वैसा ही कर दे, फिर उसे लगा कि ऐसे जानते हुए गलत करना तो ठीक नहीं होगा, इसीलिए वह रास्ते भर कोशिश करता रहा कि, मरीजों के परिजन अस्पताल जाने के लिये राजी हो जाएँ. जब तक वे आश्रम पहुचे, तब तक दसरथ के घरवाले उसे डॉक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार हो गए थे, जबकि कमली के घरवाले इलाज के खर्चे आदि की दुहाई दे, अभी भी आश्रम ले जाने पर ही अड़े थे. कमली को आश्रम में छोड़ने के बाद आरव और सुभाष जब दसरथ को अस्पताल ले जाने लगे. तब तो रामू दादा अड़ ही गये.
   “आप लोग इसे भी आश्रम में ही जाने दो. अस्पताल से आश्रम अच्छा रहेगा. मैं गाँव का रहने वाला हूँ. मैं अच्छे से जानता हूँ कि यह आश्रम में ठीक हो जायेगा.”
   लेकिन दोनों ने उनकी बात नहीं सुनी. उसके घर वाले भी अब तक अस्पताल ले जाना ही ठीक मान इनके ही पक्ष में हो गए थे.
   लेकिन अस्पताल ले जाने का क्या फायदा हुआ? रास्ते में ही उसकी हालत बिगड़ने लगी. उसे साँस लेने में मुश्किल होने लगी. वह बेसुध होने लगा. उसका बदन ठंडा पड़ने लगा. साथ आये एक ने उसकी हथेलियाँ रगड़नी शुरू की, दूसरे ने उसके तलवे रगड़े. सुभाष उसके चेहरे में पानी के छींटे मारने लगा. उसका सिर बार बार भिगोया जाता रहा, पर उसकी साँसे अनियंत्रित होने लगी. उसे जगाये रखना मुश्किल होता गया. उसकी स्थिति ख़राब होती रही और जीप यहाँ वहां भटकती रही. जैसा गाँव के इलाकों के अस्पताल में अक्सर होता है, कहीं डॉक्टर नहीं मिले और कहीं डॉक्टर मिले तो एन्टीवेनम नहीं.
   तभी रामू दादा गाड़ी चलाना छोड़, दसरथ से कहने लगे,
   “तुम हिम्मत रखो तुम्हें बिना जहर वाले सांप ने काटा है तुम्हें कुछ नहीं होगा.”
   उनकी यह बात सुन कर मरीज और भी ऐंठने लगा तो अचानक उन्होंने एक पुड़िया में रखी भभूति निकाल ली और कहने लगे,
   “यह सिध्द भभूति है, जिसे खाने से सांप का जहर उतर जाता है. यह भभूति उसी सिध्द बाबा के आश्रम की भभूति है. एक बार मुझे काट लिया था एक नागिन ने. मैं बस इस भभूति को खाया तो सिध्द बाबा की कृपा से मेरा जहर तुरंत उतर गया.”
   दसरथ की स्थिति बिगड़ती जा रही थी. जान बचने की आस में इंसान क्या कुछ करने को राजी नहीं हो जाता. उस भभूति को उस आदमी के घर वालों ने खिला दिया लेकिन अंततः उसे नहीं बचा पाए. जब तक जिला अस्पताल में डॉक्टर और एंटीवेनम दोनों मिलते, तब तक दसरथ की सांसों ने साथ छोड़ दिया था.
सांस जाने के साथ ही दसरथ के घरवालों के लिये अस्पताल जाने का औचित्य ख़त्म हो गया. उनमें एक अंतिम आस जाग उठी, जिसके लिये वे दसरथ की मृत देह को सिध्दबाबा के आश्रम में ले जाने के लिए उन पर दबाव बनाने लगे, कि वहां ले जाने पर वो बाबा सांप काटी मृत देह में भी प्राण फूंक देते हैं. आरव के एक बार अस्पताल ले चलते कहने पर वे बिफर ही गये. उनका कहना था कि अस्पताल जा कर क्या होगा. पुलिस केस और क्या? फिर पुलिस के आने तक रुके रहो. पंचनामा कराओ. इतनी देर अस्पताल दर अस्पताल घूमते दसरथ के घर वालों के धैर्य की सीमा भी जवाब दे चुकी थी. अब वे खुल कर अस्पताल लाने के निर्णय को भी इसके लिए दोषी ठहराने लगे थे.
    आरव अब दसरथ के घरवालों के किसी कदम का विरोध करने की मनःस्थिति में नहीं रह गया था. वह अब किस मुंह से उसके घर वालों का विरोध करता? वह कुछ नहीं कह सका और चुप चाप उनको उसी आश्रम में छोड़ दिया गया. जहाँ वो बाबा दावा कर रहा था कि देर हो गई है लेकिन कोई बात नहीं वह इसमें जीवन लौटा लायेगा. यह जानते हुए भी, कि यह दावा गलत है, आरव चुपचाप सुनता रहा, देखता रहा, फिर बाहर निकल आया.
   आरव रामू दादा को यूँ तो बहुत अच्छा, बहुत सी बातों का जानकार मानता था लेकिन उस दिन उनकी बातें उसे बहुत अजीब सी लग रही थीं, इसीलिए जब दसरथ अंततः नहीं बच सका, तो वापसी में उसके घरवालों को आश्रम छोड़ने के बाद वह न चाहते हुए भी उन पर फट पड़ा.
   “आप तो कह रहे थे न कि इसे बिना जहर वाले सांप ने काटा है. अस्पताल ले जाने की कोई जरुरत नहीं. अब भी कुछ कहना है आपको. शायद आप अपनी फालतू की बातें करने की जगह गाड़ी ही अच्छे से चलाये होते, अपनी भभूति वगैरह की चक्कर में समय नहीं गंवाये होते, तो हम कुछ देर पहले अस्पताल पहुँच जाते, और शायद उसे बचा पाते.”
   आरव ने गुस्से और हताशा में रामूदादा को बहुत बड़ी बात कह दी. यह सीधे-सीधे दोषारोपण ही था. रामू दादा को आरव की बात ने बहुत चोट भी पंहुचाई लेकिन उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा,
  “आरव भैया, आप मेरी बात को भले ना मानों, लेकिन देख लेना, वो दूसरी औरत को कुछ भी नहीं हुआ होगा.”
   रामू दादा की आँखों में, उनकी बातों में एक अजीब सा विश्वास था, कि आरव ने गाँव पंहुचकर पता कराया तो सच में ऐसा ही पाया. जब तक वे अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे थे. तब तक कमली के घर वाले उसे सिध्द बाबा के आश्रम से मिट्टी लगवा कर वापस भी ले आये थे. इस वक्त वह बिलकुल ठीक थी. किंशुक खुद उसे देख कर आई थी.
आरव बेतरह सोच में पड़ गया. उसने परेशान होकर किंशुक से कहा, “मुझे समझ नहीं आ रहा कि एक ही सांप ने एक ही समय में दोनों को काटा बल्कि उस कमली को तो पहले काटा. फिर कैसे दसरथ पर जहर का असर हुआ जबकि कमली पर असर नहीं हुआ? इस बारे में रामू दादा को इतना विश्वास क्यों और कैसे था?”
    किंशुक ने उसकी परेशानी कम करने की कोशिश में कहा, “छोडो न आरव! हो सकता है कमली को काटते वक्त सांप के दांत ठीक से न गड़े हों इसलिए उसे जहर नहीं चढ़ा जबकि दसरथ को सांप ने जोर से काटा हो.”
   आरव किंशुक के जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ. इस घटना ने आरव को कभी ना उबर सकने वाला आतंक दे दिया था.
   “नहीं किंशुक ऐसे कैसे जाने दूं? एक जान गई है. वो भी शायद मेरे ही कारण. यदि मैं अस्पताल ले जाने की इतनी जिद नहीं किया होता, तो वह भी शायद अभी जिन्दा होता. रामू दादा कितने विश्वास से कह रहे थे, कि आरव भैया, आप मेरी बात को भले ना मानों, लेकिन देख लेना, वो दूसरी औरत को कुछ भी नहीं हुआ होगा.”
   आरव बेहद व्यथित था. जब रामू दादा ने आरव से यह कहा था. उस समय तो वह कुछ नहीं कह सका था क्योंकि, अपनी नाराजगी के बावजूद वह उनकी आवाज में भरे विश्वास के भार से दब गया था. तब तक उसे पता भी नहीं था, कि उस दूसरी की जान सिध्द बाबा की मिट्टी से बच चुकी है. गुस्सा होता ही ऐसी बुरी शय है कि ये आपके सोचने समझने की शक्ति ले लेता है. लेकिन अब वह उनसे बात करने के लिए बेचैन हो उठा. वह तुरंत उनके पास गया. उसने माफ़ी मांगते हुए उनके विश्वास का कारण पूछा. रामू दादा सहज ही थे जैसे कोई बड़ी बात नहीं हुई. जैसे उन्हें अक्सर ऐसा देखने की आदत हो. उन्होंने कहा,

 “भैया यहाँ मिलने वाले साँपों में सैकड़ा में दस सांप ही जहरीले होते हैं उसमें से भी एक ही सांप ऐसा होता है कि जिसके काटने से जान जा सकती है. मतलब सौ व्यक्तियों को सांप काटे तो सिर्फ एक बार किसी की जान पर आ बनती है. लेकिन सांप काटने वाले के मन में सांप काटने का डर ही इतना ज्यादा होता है कि उनमें वे सारे लक्षण आने लगते हैं जो सांप काटने पर आते हैं. आदमी सदमे से ही मर जाता है.” 

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