Saturday 6 September 2014

मून की गणेश पूजा


          मून अभी सिर्फ चार साल का है. गोरा, गुदगुदा, नटखट चेहरा, शरारती हंसी,
बड़ी-बड़ी भाव-प्रवण ऑंखें, बरौनियां ऐसी घुमावदार कि आंसू उनमें ही ठहर
जाएँ . जो देखे मोहाविष्ट हो जाएँ लेकिन मून मोहाविष्ट है, ‘माय फ्रेंड
गणेश’ से. उसने जिद करके घर में गणेश स्थापना कराई है. सुबह से वह बहुत
खुश और व्यस्त था पर अभी उसकी आँखों में आंसू ठहरे हुए है.
मून को कस के भूख लग रही है पर जिद है कि खाना नहीं खाना है. क्योंकि आज
गणेश चतुर्थी है और मून ने व्रत रखा है. व्रत में केला, सेब सब खाते है
मून ने भी खाया है पर फिर भी ये भूख है कि शांत ही नहीं हो रही है और इस
लिए किसी भी बात से गुस्सा आ जाता है और पलकों पर बार बार आंसू ठहर जाते
हैं.
        मम्मी अब क्या करें? कुछ भी खा लो पर पेट तो दाल- चावल- रोटी से ही भरता
है. मम्मी की सारी दलीलें बेकार, ‘दिन भर उपवास रहते है पर शाम को खाना
खा लेते हैं, अच्छा खाना नहीं खाते तो कम से कम आलू साबूदाना खा लो , मून
कि दलील, ‘बच्चा समझ कर झुठ्ठू बना रहे हो, छि: साबूदाना…बस मम्मी की
सारी दलीलें गई पानी में . केला सेब तो फल ही है, भूख से बिफरे बच्चे कि
भूख मिटाने का दम उनमें कहाँ. इसीलिए मून बार-बार चिड़चिड़ा रहा है.
     
         मम्मी ने समझाया कि मून लड्डू भी खा सकते हो, लड्डू गणेश जी को भी बहुत
पसंद हैं. मून ने लड्डू खाने के लिए हाँ कर दी. मम्मी लड्डू लेने गई तो
मून गणेश जी की मूर्ति को ध्यान से देखते बैठा रहा. मम्मी आई तो मून इस
निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि लड्डू तो गणेश जी का चूहा खाता है, मूर्ति
में तो गणेश जी के पास लड्डू नहीं है तो वह भी लड्डू नहीं खायेगा.
        
        मम्मी अब क्या करें? मम्मी ने तीन थालियों में खाना निकाला. उन्हें गणेश
जी के पास रखा, अगरबत्ती जलाई, घंटी बजाते हुए गणेश जी की पूजा की फिर एक
थाली पापा को प्रसाद दिया, उनके पांव छुवे, एक थाली अपने लिए रखी, एक
थाली मून को दी. मून ने ध्यान से मम्मी का चेहरा देखा, ‘मुझे फिर से
मम्मी खाना खिलाने के लिए झुठ्ठू तो नहीं बना रही है,’ पर मम्मी के चहरे
पर उसे ऐसा कुछ नहीं मिला. मून को भूख भी जबर्दस्त लगने लगी पर वह रुका
रहा. मम्मी ने समझाया, ‘बेटा किसी भी उपवास में प्रसाद खाते ही है और
प्रसाद खाने से मना नहीं करते हैं, चलो खा लो, देखो पापा भी खा रहे
हैं.मून ने एक बार मम्मी को देखा, एक बार पापा को.
हुम्म!

        उसके बाद से घर में आई खाने की हर चीज गणेश जी का प्रसाद बनने लगी
है- आलू, प्याज, सब्जियां, सब कुछ. इसके अलावा जो भी चीज मून को खानी
हों, पहले गणेश जी में चढ़ती हैं, उनकी घंटी बजा कर पूजा होती है, प्रसाद
लगता है और फिर लम्बोदर के भक्त द्वारा उदरस्थ.

Saturday 24 May 2014

चुड़ैल का रहस्य


      यह कहानी सिर्फ चुड़ैल के रहस्य से पर्दा उठाने की कहानी ही नहीं है. यह कहानी है मीनल में साहस और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के पल्लवित पुष्पित बरगद के वृक्ष के बीज की. यह कहानी है अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए बच्चों में रोपे जाने वाले खरपतवारों के बीज की भी. कोई सात साल की बच्ची चुड़ैल देखने जाने की हिम्मत करती है तो इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? कोई अफवाह क्यों फैलाता है? किसी डर से जीतना क्या मायने रखता है? 
      यह तब की बात है जब मीनल तीसरी कक्षा में पढ़ती थी. मीनल के स्कूल के पीछे सिटी क्लब था. उसके चारों ओर खाली जमीन. सिटी क्लब के अहाते के पास एक विशाल बरगद और पीपल का जुड़ा हुआ एक विशाल पेड़ था. जिस पर बड़ा सा चबूतरा बना हुआ था. पेड़ के मोटे तने के बगल में चबूतरे के फर्श से कुछ इंच ऊपर ही एक खिड़की दिखती थी. मीनल और उसकी कक्षा के अन्य बच्चों को, उनसे बड़ी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों ने इसके बारे में जानकारी और चेतावनी दी थी. जानकारी कि इस पेड़ में चुड़ैल रहती है और चेतावनी कि चुड़ैल बच्चों को कच्चा चबा कर खा जाती है इसलिए इस पेड़ से हमेशा दूर रहना.
      चबूतरे के थोड़े दूर से एक पगडण्डी जाती थी जो उस तरफ से स्कूल आने का छोटा रास्ता थी. उस तरफ से स्कूल आने वाले बच्चे झुण्ड बना कर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर डरते-डरते आते. ऐसे बच्चों का अनुभव मीनल और दूसरी तरफ रहने वाले बच्चे डर, रोमांच और उत्सुकता के साथ सुनते कि वहाँ से गुजरने पर कभी चूड़ियों की तो कभी पायल की छन-छन की आवाज आती है. कुछ बच्चों का अनुभव तो चुड़ैल देखने का भी होता. वे बताते कि बड़-पीपल की चुड़ैल कलाई से लेकर कोहनियों के ऊपर तक रंग-बिरंगी चूड़ियाँ पहने रहती है, ऐसी ही रंग-बिरंगी उसकी घाघरा चुनरी होती है. लम्बे घुंघराले बालों से उसका चेहरा छिपा होता है. उसकी सबसे बड़ी पहचान उलटे पैर होते हैं. उलटे पैर मतलब एड़ी आगे पंजा पीछे. सबको पॉव दिखाई नहीं देते लेकिन जिसने चुड़ैल के उलटे पॉव देख लिए चुड़ैल उसके पीछे पड़ जाती है और उसे बहुत सताती है. 
        इसके अलावा कुछ कहानियां तो चुड़ैल से सामना करने की भी सुनाई जाती जिन्हें मीनल दिलचस्पी के साथ सुनती जरुर पर घर में भूत, प्रेत, चुड़ैल के अस्तित्व पर अविश्वास के वातावरण के कारण उसे इन पर अंधविश्वास न होता. इन कहानियों में बच्चों की कल्पनाशीलता की उड़ान और मौलिकता की कमी नहीं रहती थी. जितने बच्चे उनसे अधिक विविध कहानियां. मीनल के घर का माहौल अंधविश्वास से परे और वैज्ञानिकता की कसौटी पर कस कर बातों को मानने पर विश्वास करना सिखाता इसलिए असके घर भूत, प्रेत, चुड़ैल का अस्तित्व कोई नहीं मानता था. उसके घर के बड़े कहते, "यह सब मन की कमजोरी होती है सिर्फ डरने वालों को ही ये दिखते हैं. वे चुनौती देते कि यदि भूत हैं तो कोई हमें दिखा कर बताये.
        घर के ऐसे संस्कारों केसाथ पलता बढ़ता मीनल का मन साथियों की बड़-पीपल की चुड़ैल की बातें सुन कर थोड़ा डरता तो था पर मन का यह डर दिमाग में डर कम अपितु रोमांच, उत्सुकता और आकर्षण अधिक  पैदा करता. आकर्षण दिलोदिमाग को चुड़ैल की ओर खींचता. मन चुड़ैल की बातें सुन उत्सुक होता और उसकी सच्चाई जानना चाहता. साथियों से सुनी चुड़ैल को देखने और उसका सामना करने की कहानियां डराती नहीं हिम्मत दिलाती, उसे लगता कि जब ये लोग चुड़ैल को देख सकते हैं उसका सामना कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं. 
            बस एक दिन मीनल ने निर्णय ले लिया कि अब तो चुड़ैल को देखना ही है. जहाँ तक तो चुड़ैल होती ही नहीं है. यदि चुड़ैल होती ही है और उससे सामना हो ही गया तो देखा जायेगा. जैसे ये लोग बड़-पीपल की चुड़ैल को देखने के बाद भी बचे हुए हैं तो हम भी बच सकते हैं. यदि चुड़ैल नहीं दिखी तो बड़-पीपल की चुड़ैल की कहानी सुना, शेखी बघारने वालों का मुह तो बंद करा ही सकूंगी कि मैं तो चुड़ैल देखने गई थी पर वह दिखी नहीं. घर के बड़ों के सामान चुनौती भी दे सकूंगी कि यदि चुड़ैल है तो फिर मुझे दिखा कर बताओ. 
           मीनल की कक्षा में ही मीनल के ही सामान सोच रखने वाली मीता भी थी. एक दिन खाने की छुट्टी में जब चुड़ैल की कहानी सुनाई जा रही थी दोनों ने एलान कर दिया कि हम ये सारी बातें झूठ मानते हैं. चुड़ैल होती ही नहीं है और इसको सिद्ध करने के लिए हम बड़-पीपल के चबूतरे पर चढ़ कर बताएँगे. यह सुनते ही कुछ सहेलियां डर से मना करने लगीं पर उस दिन तो दोनों ने चुड़ैल नहीं होती ये साबित करने का ठान ही लिया था. मीनल और मीता आगे बढे. सिटी क्लब के अहाते के पास पंद्रह-बीस बच्चे खड़े थे, जिनमे से कुछ इन्हें रोक रहे थे, कुछ डरे हुए थे और कुछ उनके अंजाम की उत्सुकता में थे. 
                यदि यह कहा जाये कि मीनल और मीता को तिल भर भी डर नहीं लगा तो यह सफ़ेद झूठ ही होगा. दोनों ही डरे हुए थे, उनके दिल धक् -धक् कर रहे थे. जैसे-जैसे बड-पीपल का चबूतरा पास आते जा रहा था उनके दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थी. उनके कान खड़े थे कि शायद अभी कंही से चूड़ियों या पायल की आवाज सुनाई दे जाये, उनके पैर उलटे पैरों भागने को तैयार और दिमाग ऐसा सतर्क कि जरुरत पड़ते ही सिर पर पैर रख कर भागने को तैयार. मीनल और मीता कस कर एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे. वे जैसे-जैसे चबूतरे के पास आ रहे थे, हाथों का कसाव बढता जा रहा था. उधर पीछे पंद्रह-बीस बच्चों का झुण्ड उन्हें देखता खड़ा, जिन्हें वे भी बीच-बीच में पलट कर देखते जाते थे. 
                 कदम दर कदम चबूतरे की दुरी कम होती गई. चबूतरे की सीढियाँ आयीं, वे चढ़ते गए, बड-पीपल के तने के पास पहुच गए, खिड़की खुली हुई थी. उन्होंने एक-दूसरे को देखा. अब तक कुछ नहीं हुआ था तो उन्हें कुछ और साहस मिला. उन्होंने आँखों ही आँखों में एक-दूसरे से कहा, 'चलो, खिड़की में देखते हैं.' मन में कोहनियों से ऊपर तक चूड़ियाँ पहने रन-बिरंगी घाघरा चुनरी पहने उलटे पैरों वाली चुड़ैल के बारे में सोचते हुए उन्होंने खिड़की से अंदर झाँका.' अरे यह क्या! यह तो सुन्दर सा एक कमरा था. कमरे में एक ओर पलंग में बिस्तर बिछा हुआ था. चुड़ैल तो कहीं थी ही नहीं. 
                       बस फिर उनका सारा डर दूर भाग गया और वे दोनों विजयी भाव से सहेलियों को असलियत बताने लौट पड़े. बस वह दिन था कि इसतरह की अंधविश्वास की बातों से मीनल का विश्वास पूरी तरह उठ गया. वे साँस रोके उन्हें देखते बच्चों के झुण्ड में वापस आये. खिड़की से दिखी असलियत बताई. विश्वास करने वालों ने उनपर विश्वास किया, अंधविश्वास रखने वालों ने कहा कि शायद चुड़ैल कहीं बाहर गई होगी इसीलिए नहीं दिखी, वो कमरा जरुर उस चुड़ैल का ही होगा. 
               मीनल के घर के संस्कारों के कारण उसमे अंधविश्वास यूँ ही कम था चुड़ैल देखने के इस हिम्मती कदम से उस का अंधविश्वास तो पूरा ख़त्म ही हो गया और इसकी जगह ले ली साहस के बरगद ने. अंधविश्वास के इस खात्मे ने बेवजह के डरों को भी ख़त्म कर दिया और उसमे वैज्ञानिक सोच पल्ल्वित होने लगी. बाद में मीनल ने उस कमरे की खिड़की वाली दीवार के सहारे आगे बढ़ते हुए अब तक बरक़रार उस कमरे का रहस्य भी पता लगा लिया कि वह कमरा सिटी क्लब से लगे होटल के पिछवाड़े बनी लॉज का एक कमरा है. बड़-पीपल की चुड़ैल की अफवाह का रहस्य भी उसे कुछ और बड़े होने पर समझ में आया कि स्कुल के बच्चों की उधम और तांक-झांक से कमरे में ठहरने वाले ग्राहकों को बचाने के लिए होटल वालों ने अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए ही बड़-पीपल की चुड़ैल की अफवाह फैलाई थी.

Tuesday 29 April 2014

जहरीली गंध


             हर जगह की अपनी एक महक होती है. यह महक उस जगह के बारे में सब कुछ कह देती है. ऐसी ही महक व्यक्तित्व में भी होती है. एक घने जंगल में ऑंखें बंद कर ने पर भी जंगल की गंध आप को जंगल में होने का राज कह जायेगी.पत्तियों से ढंकी मिट्टी की नम गंध, पेड़ों की पत्तियों पर सूरज की किरणे पड़ने से वाष्पित होते जल की उमस समेटे पेड़ की सोंधी गंध, पास ही कल-कल बहते जलस्त्रोत की ठंडक लिए खुनक भरी गंध, जंगल की हवा में समाहित हो एक घने जंगल की गंध बनाती हैं.
                 ऐसी ही घने जंगल की महक समेटे वह शहर लाइ गई थी. यहाँ हम उसे वन्या कहेंगे. वन्या राज्य के सुदूर दक्षिणी भाग के घने जंगल में बसे गॉव की आदिवासी बाला है. कभी घने जंगल सी शांत तो कभी पहाड़ी झरने सी चंचल. अक्सर कुछ समझ न आने पर अपनी गहरी काली आँखों से भयभीत हिरनी की तरह टुकुर- टुकुर देखने लगती तो कभी अच्छे से काम कर लेने की शाबासी में निर्झर के निश्छल जल सी झरती हंसी बिखेर देती. शहर के ऊंच-नीच, तौर-तरीकों से नावाकिफ, आपके हमारे चिढ़ जाने की हद तक भोली वन्या, जिसे घरेलु कामों में मदद के लिए श्रीमान विक्रांत शहर ले आये है.
                यह शहर भी आम शहरों की तरह है. हर ओर चिल्लपों, भीड़भाड़ और हवा में घुली जहरीली गंध. जो हर रात अपनी गहरी काली केंचुली उतार फर्श पर, सामानों की सतह पर छोड़ जाती है. शायद यही जहरीली गंध अधिकांश शहरियों के मन में भी कोई अज्ञात जहर घोल जाती है. खैर श्रीमान विक्रांत तो एक आधुनिक पॉश कॉलोनी में रहते है. जहा जहरीली गंध का असर दूसरों के लिए अज्ञात ही होता है.
                इस कॉलोनी में पच्चीस बंगले और तीस छह मंजिली इमारतें हैं. प्रत्येक ईमारत की एक मंजिल में चार फ़्लैट बने हुए हैं. जिनके दरवाजे आमने-सामने खुलते हैं. ये बात अलग है कि इतने पास रहने के बावजूद अधिकांश लोगों को पता नहीं होता कि उनके सामने या बगल में कौन रहता है पर इस मामले में श्रीमान विक्रांत की ईमारत कुछ अलग है. इसके सभी निवासी एक-दूसरे से मिलते रहते हैं. पतिदेवों के ऑफिस चले जाने के बाद पत्नियां घर के काम निपटा प्रायः पहली मंजिल के किसी एक घर में एकत्र हो जाती हैं या फिर सीढियाँ ही उनकी मिलनस्थली बन जाती है. पहली मंजिल इसलिए कि वे सभी ऊपर की ओर चढ़ने वालों पर नजर रख सकें. सीढ़ियों के मिलनस्थली बनने पर तो पूरी ईमारत उनकी बातों से गुलजार रहती है और अजनबियों से सुरक्षित भी. ऐसे में श्रीमान श्रीमती विक्रांत जैसे कामकाजी लोग भी बंद घर की सुरक्षा की ओर से निश्चिन्त रहते हैं.
                                   विक्रांत दंपत्ति बंद घर की सुरक्षा के लिए उतने चिंतित नहीं रहते हैं जितने चिंतित वे घर में चौबीस घंटे वन्या की मौजूदगी से रहने लगे थे. इसका कारण है वन्या का घंटी बजते ही दरवाजा खोल देना. वे वन्या को बार-बार समझाते की जब भी घंटी बजे पहले की-होल से देखना, कोई परिचित हो तो ही दरवाजा खोलना. अपरिचित दिखने पर पहले सेफ्टी चेन लगा कर धीरे से दरवाजा खोलना और दूर से ही क्या काम है? पूछना और जल्दी ही दरवाजा बंद कर लेना.
                       कितने ही बार इन निर्देशों को दोहरा देने के बावजूद गॉव की निश्छलता लिए वन्या झट दरवाजा खोल देती और दंपत्ति की चिंता और बढ़ जाती. वे उसे उदहारण दे समझाते कि कल ऊपर के फ़्लैट में कोई सेल्समैन आया था, दरवाजे को धक्का दे रहा था, जाने उसकी क्या मंशा थी, ये गॉव नहीं शहर है. यहाँ लोग अच्छे नहीं होते पर सावन के अंधे को सब हरा-हरा ही दिखता है, मन का साफ व्यक्ति सभी को अच्छा ही समझता है इसलिए भी और कुछ दिमाग की जड़ता भी वन्या के दरवाजे खोलने के तरीके में कोई अंतर न दिखता. आखिर दंपत्ति की उपस्थिति में उसे दरवाजे खोलने से मना ही कर दिया गया पर वनकन्या सी अल्हड़ वन्या भी हम पांच की स्वीटी की तरह दरवाजा खोलने को उत्सुक हो ऐसे दौड़ती जैसे दरवाजा खोलते ही शहर एक जादूगर की तरह उसके लिए कोई अनपेक्षित उपहार लिए खड़ा हो. हर बार की झिड़की भी वन्या में कोई सुधार न लाती.
                    इससे दंपत्ति की चिंता कई गुना बढ़ती गई. वन्या को प्रैक्टिस कराई गई. सामने श्रीमान विक्रांत खड़े होकर घंटी बजाते, अंदर श्रीमती विक्रांत वन्या से कहती, मान लो दरवाजे पर कोई अजनबी खड़ा है. तुम दरवाजा कैसे खोलोगी? निर्झर सी चंचल वन्या सागर सी गम्भीरता ओढ़े, की-होल से झांक कर देखती फिर झट दरवाजा खोल देती. श्रीमती विक्रांत की साँस अटक जाती. वह लाउड स्पीकर से आती आवाज में धैर्य का साइलेंसर लगा कर कहती, ‘दरवाजा क्यों खोल दिया?’ जवाब आता, ‘ साहब तो आये है.’ दंपत्ति सिर पकड़ लेते. सारी प्रैक्टिस फिर से दोहराई जाती. तीन चार बार की प्रैक्टिस से वन्या संतुष्टि लायक दरवाजा खोलना सीख लेती. एक दो दिन प्रैक्टिस के नशे का असर रहता पर फिर…….
                आप सोच सकते है कि ऐसी बात न मानने वाली वन्या को वापस गॉव क्यों नहीं भेज देते. यदि आप ऐसा सोचते हैं तो आप अवश्य ही ऐसे कामकाजी दंपत्ति की दुविधा नहीं जानते. कुछ घरेलु कामों में मदद की अतिशय आवश्यकता, शहरी नौकरों में उस विशिष्ट केंचुली की गंध के भय से विश्वास की कमी, कुछ सस्ते में आसानी से उपलब्ध वन्या, कुछ जब तक कुछ हो न जाये तब तक ऐसा नहीं होगा का अंधविश्वास. वन्या घर में बनी रही, चिंता मन में बढ़ती रही. एक दिन विक्रांत दंपत्ति शाम को ऑफिस से घर आये तो वन्या ने रोज से अलग सेफ्टी चेन लगा कर दरवाजा खोला. दोनों को अच्छे से देख कर फिर धीमे से सेफ्टी लॉक खोला.पहली बार ऐसा हुआ. दंपत्ति ख़ुशी से हैरान रह गए.
                               ये बात अलग है कि यह ख़ुशी अब कभी-कभी हैरानी भरी झिड़की में बदल जाती है कि वन्या जब की-होल से देख लेती हो कि हम हैं तो सेफ्टी चेन क्यों लगाती हो पर वन्या तो वन्या है. उसने तब से पहले की-होल से देखने फिर सेफ्टी चेन लगाकर खोलने का पाठ कंठस्थ कर लिया है. जब से उसने निचली मंजिल में दो लोगों को अचानक एक घर में तेजी से घुसते देखा था बाद में पता चला कि उस घर में डकैती हुई है और जिन्हें उसने घुसते देखा, वे डकैत थे.
                     इसके बाद यह तो बहुत अच्छा हुआ कि वन्या ने अब शहरी सावधानियों का पालन शुरू कर दिया है. दम्पत्ति की चिंता भी अब कम होने लगी है पर अब वन्या के ह्रदय की दीवारों से वो पुनर्उर्जित कर देने वाली घने जंगल की गंध बमुश्किल ही बाहर निकल पाती है. अब वन्या की घने जंगल की गंध में उसके दिमाग में नयी बहती शक की शहरी हवा में घुली काली केंचुली की गंध उभरने लगी है

Tuesday 15 April 2014

चुनाव ‘लड़े’ जाते हैं


             'फलाना और ढिमका लड़ रहे हैं.' ये वाक्य सुनते ही किसी के भी मन में छवि बनती है कि फलाना और ढिमका आपस में मारापीटी, धक्का-मुक्की कर रहे है. अब यदि इस वाक्य में एक शब्द की घुसपैठ हो जाये. जिससे ये वाक्य ' फलाना और ढिमका चुनाव लड़ रहे हैं' हो जाये तो आपके हमारे मन में नेता, समर्थक, जुलूस. भाषण आदि की छवि बनेगी. जिसमे हम दो या अधिक उम्मीदवारों में से अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं लेकिन चिंकी और पिंकू जैसे छोटे बच्चे जिन्होंने अभी बाहरी बातें समझें बस शुरू ही की हैं उनके लिए 'लड़ना' शब्द का सिर्फ एक ही मतलब हो सकता है. 'लड़ना' मतलब मारापीटी, धक्का-मुक्की.
             जब चुनाव होते हैं तो पुरे देश में चुनावों की हवा ही बहने लगती है. हमारे उत्सव प्रेमी देश में चुनाव भी एक बड़ा उत्सव ही हैं. जब हर गली मोहल्ले, नुक्कड़, घर में चुनाव चर्चा ही चलती रहती है.सारे लोग चुनाव विश्लेषक ही बन जाते हैं मानों हम सभी चुनाव ही खाने, ओढ़ने+, बिछाने, सोने लगते हैं. चिंकी और पिंकी दादा के साथ पार्क में सैर करने जाएँ तो दादा की उनके दोस्तों के साथ चुनाव चर्चा, दादी के साथ मंदिर जाये तो चुनाव से मोहल्ले की सफाई पर प्रभाव पड़ने की सम्भावना की चर्चा, घर में चुनाव प्रचार में बाई को सामान मिलने की चर्चा, पापा के रोज ऑफिस से देर से आने का कारण भी चुनाव.
         ऐसे में चिंकी और पिंकू चुनाव के प्रभाव से कैसे बच सकते हैं. वे लगातार सुनते हैं 'फलाना' चुनाव लड़ रहा है, 'ढिमका' चुनाव लड़ रहा है. उनके लिए 'लड़ना' मतलब मारापीटी, धक्का-मुक्की. विधानसभा चुनाव ख़त्म ही हुए थे और आम चुनावों का शोर मच रहा था. विधानसभा चुनावों ने अभी- अभी होश सम्हाले चिंकी और पिंकू को 'चुनाव लड़ना' शब्द से परिचय करा दिया था. विधानसभा चुनाव तो टेस्ट, पढाई के बीच ख़त्म हो गया था पर इन आम चुनावों के दौरान बच्चों के पास अपनी सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता दिखाने के लिए गर्मी की छुट्टियों का भरपूर समय था.
          छुट्टियों में टी. व्ही भी बेहिसाब देखा जा रहा था .जो देखना चाहिए वो भी और जो नहीं देखना चाहिए वो भी. हाल ही में टी. व्ही पर एक फ़िल्म आई जिसमें हीरो बॉक्सर था. अब हीरो यदि बॉक्सर है तो बॉक्सिंग रिंग में हाथ में बॉक्सिंग ग्लोब्स पहने, सर पर हेलमेट लगाये, बच्चों की भाषा में केवल 'चड्डी' पहने बॉक्सिंग ही करेगा. सो उसने किया पर बच्चों को लड़ने में एक नयापन मिला. अब तक उनकी केवल सामान्य मारापीटी या डबल्यू.डबल्यू. ई. वाली लड़ाई होती थी. अब उन्हें लड़ने का एक और नया तरीका मिल गया.
       इन गर्मियों में भट्टी की तरह तपते शहर का तापमान आम चुनावों से भी बढ़ा हुआ था तो घर का तापमान छुट्टियों में बच्चों के उधम से और मेरा तापमान दिन रात उन्हें ये केन प्रकारेण व्यस्त रखने अन्यथा उनकी लड़ाई झेलने और उसमे जज बनाये जाने की चिंता से. बच्चों के अपने खेलों के साथ साथ उनके दिमाग में लगातार 'फलाना' के चुनाव लड़ने, 'ढिमका' के चुनाव लड़ने की चर्चा अपनी जगह बनाते जा रही थी जो उनके प्रश्नों में यदा-कदा झलकने लगी थी पर चुनाव को लेकर बच्चों की समझ का अंदाजा हमें नहीं था.
          चुनाव प्रचार अब अपने अंतिम चरण में आ गया था. प्रत्याशी घर-घर जाकर उन्हें वोट देने का निवेदन कर रहे थे. ऐसे में हमारे घर भी 'फलाना' फिर 'ढिमका' जनसंपर्क के लिए आये. बच्चों की कल्पनाशीलता को पंख मिल गए, या यह कहना ठीक होगा कि बच्चों के 'फलाना' और 'ढिमका' को मानव चेहरे मिल गए और उनके लिए खुद को 'फलाना' और 'ढिमका' की जगह रखना आसान हो गया.  
        एक शाम दोनों बच्चों ने अपने कपड़े उतार अपने हाथों में ग्लोब्स के सामान बांध लिए. मेरे दुपट्टे हेलमेट बन गए. दोनों बच्चों के बीच बॉक्सिंग शुरू हो गई. पर ये बॉक्सिंग चुपचाप नहीं हो रही थी न ही इसमे बॉक्सर लोगों के सामान आवाजें निकाली जा रही थी. मुझ तक दोनों बच्चों की तेज आवाजें आ रही थी,
" 'फलाने' को वोट दो."
"नहीं 'ढिमके' को वोट दो."
" फलाना जिंदाबाद"
" ढिमका जिंदाबाद "
        बच्चों के चिल्लाने की आवाज सुन मैं वहाँ गई तो इन आवाजों के साथ बॉक्सिंग चालू थी.
मैंने पूछा, 'ये क्या कर रहे हो तुम लोग" जवाब आया " हम लोग चुनाव लड़ रहे हैं, ये 'फलाना' है और मैं 'ढिमका' हूँ. दोनों बच्चे सिर्फ चड्डी पहने, हाथ में अपने कपडों का ग्लोब्स लपेटे, सर में दुपट्टे का हेलमेट बांधे चुनाव लड़ रहे हैं. मेरी हंसी छूट गई. बच्चों का फर्जी चुनाव लड़ना कुछ दिन तक जारी रहा.
     एक दिन दोनों बच्चों को साथ बैठा कर सरल से सरल रूप में मैंने उन्हें चुनाव प्रक्रिया समझाई. बताया क्यों प्रचार करते हैं, कैसे मतदान होता है फिर वोटों की गिनती होती है और जिसे ज्यादा वोट मिलता है वो जीत जाता है. जीतने वाला 'सांसद' या 'विधायक' बन कर संसद या विधानसभा में जाता है. बच्चे कितना समझे नहीं समझे मुझे पता नहीं पर इस के बाद उनका 'चुनाव लड़ना' बंद हो गया.
      कुछ समय बाद चुनाव परिणाम आने पर माहौल में छाया चुनावी बुखार भी ख़त्म हो गया, स्कूल खुल गए थे, इसलिए बच्चे भी अब स्कूल, गृहकार्य, ट्यूशन, कार्टून चैनल में व्यस्त हो गए थे. अब बच्चे इतना तो समझने ही लगे थे कि चुनाव लड़ कर लोग 'संसद' या 'विधानसभा' में जाते हैं. वे समाचार चैनलों पर संसद या विधान सभा को देख पूछने लगे थे कि मां चुनाव लड़ कर यही जातें हैं न. मुझे अच्छा लगा कि बच्चों का 'चुनाव लड़ने' का कॉन्सेप्ट तो सही हो गया. आखिर उन्हें सही-सही सिखाने की जिम्मेदारी भी तो मेरी ही है.
        अब मानसून सत्र का समय आ गया था. समाचार चैनलों में सत्र के दौरान संसद और विधानसभाओं के सीधे प्रसारण की झलक समाचारों में आती है. बच्चे समाचार नहीं देखते पर आपके हमारे बिना जाने समाचार उनके अवचेतन मन में अपनी जगह बनाते हैं.एक दिन मैं ऑफिस से आकर बच्चों को पढ़ने बैठा रसोई में खाना बनाने गई कि मुझे दोनों बच्चों कि जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज आई. हाथ का काम छोड़ दौड़ती हुई कमरे में पंहुची तो दोनों बच्चे अपनी पेंसिलें चाकू की तरह पकड़े हवा में लहरा रहे थे, एक दूसरे को चाकू मारने की नक़ल कर रहे थे और बीच-बीच में मेरे परफ्यूम का स्प्रे कर रहे थे.
           मैंने उन्हें जोर से डांटा, 'मैंने तुम्हें पढ़ने के लिए कहा था.ये क्या कर रहे हो तुम लोग.' मासूम से चेहरे के साथ जवाब आया, ' हम लोग संसद संसद खेल रहे हैं. "संसद में ऐसे लड़ाई नहीं होती है मैंने तुम लोगों को चुनाव के बारे में बताया था न ' कहते हुए मैंने उन्हें जोर से डांट कर वापस पढ़ने बैठाया ही था कि बैठक से आवाज आई. "जाइयेगा मत, हम आपको बताएँगे संसद में जोरदार हंगामा, सांसद ने संसद में पेपर स्प्रे किया. बस इस छोटे से ब्रेक के बाद"
         मैं जड़ हो गई. मुझे समझ आ गया कि बच्चों के संसद संसद खेल का स्त्रोत क्या है.मेरी जड़ता टूटी जब बेटे ने मेरा हाथ खींचते हुए मुझसे पूछा, " माँ जब सांसद या विधायक बन कर ऐसे लड़ने का काम ही करना होता है तो जैसा आप ने बताया था वोट डालने वाला चुनाव क्यों लड़ते हैं जैसे हम लोग लड़ रहे थे वैसा चुनाव क्यों नहीं लड़ते है. अब मैं तो नहीं पर मेरा दिमाग जड़ हो गया. मेरे पास कोई जवाब न था.

Monday 7 April 2014

क्यों का प्रण


          बचपन से ही मेरी प्यास बहुत बड़ी रही है. 'प्यास' पढ़ने की, जानने की,समझने की प्यास जो अब तक बुझी नहीं है. इस प्यास ने मुझे दूसरों की प्यास का सम्मान करना भी सिखा दिया है. प्रश्न करने में मुझे कभी, कंही, कोई झिझक नहीं होती जितनी सहज मैं प्रश्न करने में होती हूँ उतनी ही सहज उत्तर देने में भी महसूस करती हूँ.
           बचपन में मैं जो भी हाथ में आता पढ़ जाती थी. चाहे वह पाठ्य पुस्तक हो, बच्चों की पत्रिका हो या बड़ों की या कोई मुर्रा, चना का ठोंगा हो या किसी आले में बिछाया गया अख़बार. मैनें जब, जहाँ, जो मौका लगे पढ़ा है. आपको राज की बात बताऊँ तो बचपन में मैंने 'बच्चों का पालन कैसे करें' पुस्तक भी पलट के देखी है. यह जानने के लिए की मेरी परवरिश सही तरीके से हो रही है या नहीं.
         इस जानने समझने की 'बड़ी प्यास' से गले में पल-पल उभरते काँटों की जलन से बचपन में ही मैंने तय कर लिया था कि मैं किसी के भी विशेष कर बच्चों के 'क्यों' का जवाब हमेशा दूंगी. कभी बच्चों को उनके क्यों के जवाब में डांटकर चुप नहीं कराउंगी. मेरा बड़ा बेटा दस साल और छोटा बेटा पांच साल का हो चूका है. मैंने अपने इस प्रण का पालन अब तक प्राण प्रण से किया है लेकिन अब मुझे अपना यह प्रण बहुत कठिन, आत्मसंयम की परीक्षा, परिश्रम की खान लगने लगा है. मेरा मन बार-बार इस प्रण के बंधन से छूट कर भाग निकलना चाहता है.
        कल मेरे छोटे बेटे का जन्मदिन था. घर में ही एक छोटी सी पार्टी रखी थी.करीबी रिश्तेदारों, उनसे बढ़कर अपने दोस्तों और बच्चों के दोस्तों को बुलाया था. सुबह से मैं तैयारी में लगी हुई थी लेकिन बेटे को सुबह से ही कहानी सुनने की हुड़क चढ़ी हुई थी. उसे बहुत समझाया कि बहुत काम है, उसे डराया कि केक नहीं बन पायेगा, कि सुबह कहानी नहीं सुनते, नहीं तो मामा रास्ता भूल जाते हैं पर कम्प्यूटर युग का बच्चा न समझा, न डरा, जिद पर अड़ा रहा.
       उसने कहा, ' मम्मा आप बर्थडे बॉय को गिफ्ट नहीं दोगे.' मैंने सोचा, 'लो यह तो ब्लैकमेलिंग हो गई. अब क्या करें.' काम बहुत था. कहानी सुनाना सम्भव नहीं था पर इमोशनल ब्लैकमैलिंग के आगे हथियार डालते हुए मैंने कहा बेटू से कहा, 'ठीक है, पर मैं दुनिया की सबसे छोटी कहानी सुनाऊँगी. तुम यह नहीं कहोगे कि इतनी छोटी कहानी नहीं, कोई दूसरी कहानी सुनाओ.' बेटू ने भी हामी भर दी.
        मैंने कहानी सुनाना शुरू किया, "एक था राजा एक थी रानी दोनों मर गए खत्म कहानी." बेटू अवाक्...इतनी छोटी कहानी...लेकिन उसने दूसरी कहानी सुनने की जिद नहीं करने की हामी भरी थी इसलिए कोई जिद नहीं की बस इतना ही पूछा, 'मम्मा राजा रानी की कोई राजकुमारी नहीं थी.' मैंने कहा, 'नहीं बेटा.' उसने कहा, 'क्यों' अब इसका क्या उत्तर दूँ कि राजा रानी की कोई राजकुमारी 'क्यों' नहीं थी? अब नहीं थी राजकुमारी तो नहीं थी पर बेटू को कैसे बताऊँ.
            मुझे आसान रास्ता लगा यह कहना कि राजकुमारी नहीं थी बेटा पर एक राजकुमार था. बच्चों के 'क्यों' का अंत इतनी जल्दी हो गया तो फिर वे बच्चे कैसे, अगले ही पल अगला क्यों हाजिर था, 'मम्मा राजकुमार गन्दा था क्या? उसी ने राजा रानी को मार दिया.' "हे भगवान! मेरे काम करते हाथ थम गए, इस नन्हें मन में इतनी हिंसा कहाँ से आयी. कल से टी.व्ही. देखना कम करना पड़ेगा." फिर अपनी रुक गयी सांसों को आहिस्ते से सामान्य करते हुए, अपनी आवाज में दुनियां जहाँ की अच्छाइयां लाते हुए कहा,' नहीं बेटा, राजकुमार तो अच्छा लड़का था, उसनें नहीं मारा राजा-रानी को.'  
        बेटू ने कहा, 'मम्मा राजकुमार लोग तो शिकार करते हैं न, यह भी शिकार करता होगा.' मैनें कहा, 'हाँ बेटा.' ' मम्मा शिकार तो जंगल में करते हैं न.' मैंने फिर से कहा, 'हाँ बेटा'. इधर हाथ और दिमाग दोनों ही काम निबटाने में लगे हुए थे पर बेटू के प्रश्न थे कि ख़त्म होने में ही नहीं आ रहे थे. मेरे इस उत्तर के बाद बेटू कुछ देर चुप हो गया फिर खेलने लगा.
        बेटू खेलते-खेलते अचानक मेरे पास आकर मुझसे लिपट गया और मुझसे पूछा,'मम्मा जंगल में तो राक्षस भी रहते हैं न, राजकुमार को राक्षस ने खा लिया क्या?' 'उफ्फ़, फिर से हिंसा..... पर मैं तो इतनी कोशिश करती हूँ कि बेटू दुनिया की नकारात्मक बातों से दूर ही रहे पर फिर भी यह इतनी हिंसा कहाँ से सीखता जा रहा है, कहाँ मुझसे गलती हो रही है.....कैसे जंगल को मैं अच्छी बात से जोड़ू.' मेरा दिमाग दौड़ने लगा. मैंने कहा, 'बेटा, जंगल में तो ऋषि-मुनि भी रहते हैं, उनके आश्रम में शिकार करना भी मना होता है, वहाँ मानव, पशु, पक्षी सभी मिल-जुल कर हंसी-ख़ुशी से रहते हैं.' ' पर मम्मा जंगल में राजकुमार को कैसे पता लगेगा कि ये आश्रम है यहाँ शिकार नहीं करना है.' मैंने सोचा, 'अब क्या कहूं?' फिर कहा, 'राजकुमार को जंगल में आश्रम का कोई शिष्य मिल सकता है जो राजकुमार को ये आश्रम का जंगल है बता कर शिकार करने से रोक सकता है.' बेटू ने कहा अच्छा और कुछ देर सोच में डूब गया फिर खेलने लगा.
        कुछ देर बाद अचानक अपना खेलना छोड़कर मेरे पास दौड़ते आया और मुझसे कहा, ' तो मम्मा आपने मुझे अधूरी कहानी क्यों सुनाई? अब सुनाओ इधर पश्चिमी आसमान में शाम अपने लाल-नारंगी गुब्बारे सजाने में व्यस्त होने लगी थी और मेरे घर में अब तक गुब्बारे नहीं लगे थे. इस वक्त तो कहानी सुनाना असम्भव ही था. मेरे पास उसके 'क्यों' का कोई जवाब नहीं था. ऐसे क्यों का जवाब देना भी जरुरी नहीं था पर मेरा 'प्रण'.
            मैं अपने क्यों को नहीं टालने, नहीं डांटने के प्रण पर खीजने लगी थी कि क्यों? मैंने 'क्यों' को इतना गम्भीर बना लिया है. क्या करूँ ..तोड़ दू प्रण? एक डांट लगाऊं ....जाओ बाहर जाकर खेलो... ये क्यों क्यों की रट छोड़ो…..' बेटू ने फिर से कहा, 'मम्मा गन्दी बात आप पूरी कहानी क्यों नहीं सुनाये, अब सुनाओ. अपनी झल्लाहट को पूरा दम लगाकर रोकते हुए मैंने कहा, 'बेटा मम्मी ने सबसे छोटी कहानी सुनाई थी फिर तुम प्रश्न पूछते गए तो मम्मी ने पूरी बड़ी कहानी सुना दी है. अब तुम मम्मी की सुनाई कहानी याद करो और मुझे सुनाओ. इस बात के पीछे मेरी यह मंशा थी कि बेटू जितनी देर कहानी सुनाएगा कम से कम उतनी देर तो प्रश्नों के रॉकेट दागने बंद रखेगा.
          बेटू मां को कहानी सुनाने की बात पर खुश हो गया. उसने कहानी सुनानी शुरू की, ' एक राजा रहता है एक रानी रहती है उनका एक राजकुमार रहता है. राजकुमार अच्छा लड़का रहता है पर थोडा सा गन्दा भी रहता है क्योंकि वह शिकार खेलता है. एक दिन वह शिकार खेलने जंगल जाता है. जंगल में हिरन का पीछा करते करते वह बहुत दूर पहुँच जाता है. जब वह हिरन को मारने ही वाला रहता है तभी एक सुन्दर लड़की उससे कहती है कि तुम हिरन को नहीं मार सकते यह आश्रम का हिरण है और आश्रम में शिकार करना मना है. राजकुमार को वह लड़की बहुत अच्छी लगती है. उसकी बात मान कऱ राजकुमार शिकार नहीं करता और वापस राजा रानी के पास आ जाता है. फिर उस लड़की से राजकुमार की शादी हो जाती है. जब राजा रानी बूढ़े हो जाते हैं तो दोनों उनकी खूब सेवा करते हैं. राजा रानी जब खूब बूढ़े हो जाते हैं तो एक दिन मर जाते हैं फिर राजकुमार और लड़की राजा रानी बन जाते हैं और अच्छे से राज्य पर शासन करते हैं.'
          कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ मैं अचंभित होती गई. बेटू की कल्पनाशीलता, शब्दज्ञान, अभिव्यक्ति कौशल से और यह भी सोचने लगी कि यह 'क्यों का प्रण' इतना भी कठिन नहीं है. बस थोड़े से प्रयास से इसे निरंतर बनाये रखा जा सकता है. तब से मैं फिर से बच्चों की जानने की प्यास का सम्मान करने के इस प्रण को निरंतर बनाये रखने की उद्दाम लहरों से आलोड़ित होने लगी हूँ और मेरे 'क्यों प्रण' में नई कोंपलें, कलियाँ, पुष्प, पल्लवित, प्रस्फुटित होने लगे हैं.