Monday 7 April 2014

क्यों का प्रण


          बचपन से ही मेरी प्यास बहुत बड़ी रही है. 'प्यास' पढ़ने की, जानने की,समझने की प्यास जो अब तक बुझी नहीं है. इस प्यास ने मुझे दूसरों की प्यास का सम्मान करना भी सिखा दिया है. प्रश्न करने में मुझे कभी, कंही, कोई झिझक नहीं होती जितनी सहज मैं प्रश्न करने में होती हूँ उतनी ही सहज उत्तर देने में भी महसूस करती हूँ.
           बचपन में मैं जो भी हाथ में आता पढ़ जाती थी. चाहे वह पाठ्य पुस्तक हो, बच्चों की पत्रिका हो या बड़ों की या कोई मुर्रा, चना का ठोंगा हो या किसी आले में बिछाया गया अख़बार. मैनें जब, जहाँ, जो मौका लगे पढ़ा है. आपको राज की बात बताऊँ तो बचपन में मैंने 'बच्चों का पालन कैसे करें' पुस्तक भी पलट के देखी है. यह जानने के लिए की मेरी परवरिश सही तरीके से हो रही है या नहीं.
         इस जानने समझने की 'बड़ी प्यास' से गले में पल-पल उभरते काँटों की जलन से बचपन में ही मैंने तय कर लिया था कि मैं किसी के भी विशेष कर बच्चों के 'क्यों' का जवाब हमेशा दूंगी. कभी बच्चों को उनके क्यों के जवाब में डांटकर चुप नहीं कराउंगी. मेरा बड़ा बेटा दस साल और छोटा बेटा पांच साल का हो चूका है. मैंने अपने इस प्रण का पालन अब तक प्राण प्रण से किया है लेकिन अब मुझे अपना यह प्रण बहुत कठिन, आत्मसंयम की परीक्षा, परिश्रम की खान लगने लगा है. मेरा मन बार-बार इस प्रण के बंधन से छूट कर भाग निकलना चाहता है.
        कल मेरे छोटे बेटे का जन्मदिन था. घर में ही एक छोटी सी पार्टी रखी थी.करीबी रिश्तेदारों, उनसे बढ़कर अपने दोस्तों और बच्चों के दोस्तों को बुलाया था. सुबह से मैं तैयारी में लगी हुई थी लेकिन बेटे को सुबह से ही कहानी सुनने की हुड़क चढ़ी हुई थी. उसे बहुत समझाया कि बहुत काम है, उसे डराया कि केक नहीं बन पायेगा, कि सुबह कहानी नहीं सुनते, नहीं तो मामा रास्ता भूल जाते हैं पर कम्प्यूटर युग का बच्चा न समझा, न डरा, जिद पर अड़ा रहा.
       उसने कहा, ' मम्मा आप बर्थडे बॉय को गिफ्ट नहीं दोगे.' मैंने सोचा, 'लो यह तो ब्लैकमेलिंग हो गई. अब क्या करें.' काम बहुत था. कहानी सुनाना सम्भव नहीं था पर इमोशनल ब्लैकमैलिंग के आगे हथियार डालते हुए मैंने कहा बेटू से कहा, 'ठीक है, पर मैं दुनिया की सबसे छोटी कहानी सुनाऊँगी. तुम यह नहीं कहोगे कि इतनी छोटी कहानी नहीं, कोई दूसरी कहानी सुनाओ.' बेटू ने भी हामी भर दी.
        मैंने कहानी सुनाना शुरू किया, "एक था राजा एक थी रानी दोनों मर गए खत्म कहानी." बेटू अवाक्...इतनी छोटी कहानी...लेकिन उसने दूसरी कहानी सुनने की जिद नहीं करने की हामी भरी थी इसलिए कोई जिद नहीं की बस इतना ही पूछा, 'मम्मा राजा रानी की कोई राजकुमारी नहीं थी.' मैंने कहा, 'नहीं बेटा.' उसने कहा, 'क्यों' अब इसका क्या उत्तर दूँ कि राजा रानी की कोई राजकुमारी 'क्यों' नहीं थी? अब नहीं थी राजकुमारी तो नहीं थी पर बेटू को कैसे बताऊँ.
            मुझे आसान रास्ता लगा यह कहना कि राजकुमारी नहीं थी बेटा पर एक राजकुमार था. बच्चों के 'क्यों' का अंत इतनी जल्दी हो गया तो फिर वे बच्चे कैसे, अगले ही पल अगला क्यों हाजिर था, 'मम्मा राजकुमार गन्दा था क्या? उसी ने राजा रानी को मार दिया.' "हे भगवान! मेरे काम करते हाथ थम गए, इस नन्हें मन में इतनी हिंसा कहाँ से आयी. कल से टी.व्ही. देखना कम करना पड़ेगा." फिर अपनी रुक गयी सांसों को आहिस्ते से सामान्य करते हुए, अपनी आवाज में दुनियां जहाँ की अच्छाइयां लाते हुए कहा,' नहीं बेटा, राजकुमार तो अच्छा लड़का था, उसनें नहीं मारा राजा-रानी को.'  
        बेटू ने कहा, 'मम्मा राजकुमार लोग तो शिकार करते हैं न, यह भी शिकार करता होगा.' मैनें कहा, 'हाँ बेटा.' ' मम्मा शिकार तो जंगल में करते हैं न.' मैंने फिर से कहा, 'हाँ बेटा'. इधर हाथ और दिमाग दोनों ही काम निबटाने में लगे हुए थे पर बेटू के प्रश्न थे कि ख़त्म होने में ही नहीं आ रहे थे. मेरे इस उत्तर के बाद बेटू कुछ देर चुप हो गया फिर खेलने लगा.
        बेटू खेलते-खेलते अचानक मेरे पास आकर मुझसे लिपट गया और मुझसे पूछा,'मम्मा जंगल में तो राक्षस भी रहते हैं न, राजकुमार को राक्षस ने खा लिया क्या?' 'उफ्फ़, फिर से हिंसा..... पर मैं तो इतनी कोशिश करती हूँ कि बेटू दुनिया की नकारात्मक बातों से दूर ही रहे पर फिर भी यह इतनी हिंसा कहाँ से सीखता जा रहा है, कहाँ मुझसे गलती हो रही है.....कैसे जंगल को मैं अच्छी बात से जोड़ू.' मेरा दिमाग दौड़ने लगा. मैंने कहा, 'बेटा, जंगल में तो ऋषि-मुनि भी रहते हैं, उनके आश्रम में शिकार करना भी मना होता है, वहाँ मानव, पशु, पक्षी सभी मिल-जुल कर हंसी-ख़ुशी से रहते हैं.' ' पर मम्मा जंगल में राजकुमार को कैसे पता लगेगा कि ये आश्रम है यहाँ शिकार नहीं करना है.' मैंने सोचा, 'अब क्या कहूं?' फिर कहा, 'राजकुमार को जंगल में आश्रम का कोई शिष्य मिल सकता है जो राजकुमार को ये आश्रम का जंगल है बता कर शिकार करने से रोक सकता है.' बेटू ने कहा अच्छा और कुछ देर सोच में डूब गया फिर खेलने लगा.
        कुछ देर बाद अचानक अपना खेलना छोड़कर मेरे पास दौड़ते आया और मुझसे कहा, ' तो मम्मा आपने मुझे अधूरी कहानी क्यों सुनाई? अब सुनाओ इधर पश्चिमी आसमान में शाम अपने लाल-नारंगी गुब्बारे सजाने में व्यस्त होने लगी थी और मेरे घर में अब तक गुब्बारे नहीं लगे थे. इस वक्त तो कहानी सुनाना असम्भव ही था. मेरे पास उसके 'क्यों' का कोई जवाब नहीं था. ऐसे क्यों का जवाब देना भी जरुरी नहीं था पर मेरा 'प्रण'.
            मैं अपने क्यों को नहीं टालने, नहीं डांटने के प्रण पर खीजने लगी थी कि क्यों? मैंने 'क्यों' को इतना गम्भीर बना लिया है. क्या करूँ ..तोड़ दू प्रण? एक डांट लगाऊं ....जाओ बाहर जाकर खेलो... ये क्यों क्यों की रट छोड़ो…..' बेटू ने फिर से कहा, 'मम्मा गन्दी बात आप पूरी कहानी क्यों नहीं सुनाये, अब सुनाओ. अपनी झल्लाहट को पूरा दम लगाकर रोकते हुए मैंने कहा, 'बेटा मम्मी ने सबसे छोटी कहानी सुनाई थी फिर तुम प्रश्न पूछते गए तो मम्मी ने पूरी बड़ी कहानी सुना दी है. अब तुम मम्मी की सुनाई कहानी याद करो और मुझे सुनाओ. इस बात के पीछे मेरी यह मंशा थी कि बेटू जितनी देर कहानी सुनाएगा कम से कम उतनी देर तो प्रश्नों के रॉकेट दागने बंद रखेगा.
          बेटू मां को कहानी सुनाने की बात पर खुश हो गया. उसने कहानी सुनानी शुरू की, ' एक राजा रहता है एक रानी रहती है उनका एक राजकुमार रहता है. राजकुमार अच्छा लड़का रहता है पर थोडा सा गन्दा भी रहता है क्योंकि वह शिकार खेलता है. एक दिन वह शिकार खेलने जंगल जाता है. जंगल में हिरन का पीछा करते करते वह बहुत दूर पहुँच जाता है. जब वह हिरन को मारने ही वाला रहता है तभी एक सुन्दर लड़की उससे कहती है कि तुम हिरन को नहीं मार सकते यह आश्रम का हिरण है और आश्रम में शिकार करना मना है. राजकुमार को वह लड़की बहुत अच्छी लगती है. उसकी बात मान कऱ राजकुमार शिकार नहीं करता और वापस राजा रानी के पास आ जाता है. फिर उस लड़की से राजकुमार की शादी हो जाती है. जब राजा रानी बूढ़े हो जाते हैं तो दोनों उनकी खूब सेवा करते हैं. राजा रानी जब खूब बूढ़े हो जाते हैं तो एक दिन मर जाते हैं फिर राजकुमार और लड़की राजा रानी बन जाते हैं और अच्छे से राज्य पर शासन करते हैं.'
          कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ मैं अचंभित होती गई. बेटू की कल्पनाशीलता, शब्दज्ञान, अभिव्यक्ति कौशल से और यह भी सोचने लगी कि यह 'क्यों का प्रण' इतना भी कठिन नहीं है. बस थोड़े से प्रयास से इसे निरंतर बनाये रखा जा सकता है. तब से मैं फिर से बच्चों की जानने की प्यास का सम्मान करने के इस प्रण को निरंतर बनाये रखने की उद्दाम लहरों से आलोड़ित होने लगी हूँ और मेरे 'क्यों प्रण' में नई कोंपलें, कलियाँ, पुष्प, पल्लवित, प्रस्फुटित होने लगे हैं.

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