Monday 31 March 2014

सलीके से लगी अलमारी

 हम टी व्ही के विज्ञापनों में हरफनमौला महिलाओं को रोज देखते हैं. हर जगह, हर काम में मुस्तैद. सुपर वुमैन. वे कभी थकती नहीं, न तन से न मन से. दूर से देखो तो वह महिला भी कुछ ऐसी ही है. वह महिला रोज अल्सुबह उठती है, खुद योग करती है,बच्चों का, पति का, खुद का टिफिन, नाश्ता तैयार करती है. बच्चों को तैयार करती है, खुद तैयार होती है, पति और बच्चों को स्कूल, ऑफिस भेज खुद भी ऑफिस जाती है.

         वह स्नेही, आत्मविश्वास से भरी, सुघड़, कर्मठ व्यक्तित्व की महिला है. बच्चे कहते हैं वह दुनिया की सबसे अच्छी माँ है, वह पति की जान है. ऑफिस में सभी उसके कर्मठ व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं.  वह खुद को इन सभी रूपों में परिवर्तित करते हुए अपने सभी कर्तव्य निभाने में स्वयं को संतुष्ट, सफल महसूस करती है.

       उसे कभी-कभी जाने क्या हो जाता है कि वह सोचने लगती है, "मेरे कितने रूप हैं. ये सारे रूप मिलकर मेरा एक व्यक्तित्व बनाते हैं कि ये सारे मेरे अलग-अलग व्यक्तित्व हैं. हर इंसान का एक व्यक्तित्व होता है पर
क्या एक इंसान का सिर्फ एक व्यक्तित्व होता है, या एक इंसान में ही दो, तीन, चार या अधिक इंसान भी समाये होते हैं…… लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? एक इंसान तो एक ही रहेगा. उसका व्यक्तित्व भी एक ही रहेगा फिर क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मैं सिर्फ एक इंसान नहीं हूँ अपितु इंसानों का एक समूह हूँ. समूह भी ऐसा जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न व्यक्तित्वों से बना है.

          ये आपस में जान के दुश्मन नहीं तो उससे कम भी नहीं हैं.हर-पल बहस, मारा-पिटी, छीना-झपटी, चीख-पुकार, क्या नहीं होता इनके बीच.” कभी उसे लगता है क्यों न ये जान के दुश्मन ही हो जाते कम से कम कुछ एक लड़ाइयों के बाद दुश्मनों को मार उनकी आवाज सदैव के लिए बंद कर देते. मेरे भीतर की भीड़ कुछ कम होती, मैं कुछ सुकून पा सकती.

            इस पैंतीस वर्ष की महिला को लगता है कि उसमें इंसानों की भीड़ ही नहीं उसकी उम्र के ये पैंतीस बरस, यादे, बातें, विचार सब कुछ अलग-अलग और समूहों में गड्मगड भरे हुए हैं. जैसे....जैसे वह खुद कोई अलमारी है.... किसी अल्हड, आलसी,अव्यवस्थित लड़की की अलमारी...... जिसमे सारा सामान गुडी-मुड़ी, बेतरतीब, ढेर का ढेर ठूंसा हुआ है. कोई चीज जगह पर नहीं मिलती.

              जिसमे पैंतीस बीते बरस ठूंसे हैं, यादें ठुंसी हैं, कई बहुरूपिये व्यक्तित्व ठूंसे हैं,विचारों की रेलमपेल है, किसी कोने में कई अपूर्ण इच्छाये भी दबी हुई हैं. कभी एक मधुर स्मृति निकालने की कोशिश में आठ-दस यादें, विचार, साल बाहर निकल अलमारी के सामने फर्श पर बिखर जाते हैं. वह महिला सोचती है कि पहले इन्हें समेट यथास्थान रख दे फिर मधुर स्मृति का आनंद ले पर इन्हे समेटते हुए ही दिन निकल जाता है.

      वह एक साल उठा अंदर रखती है और जैसे ही फर्श पर पड़ी दूसरी याद अंदर रखने को उठाती है कि वह याद कांच की किरचों सी बिखर जाती है. इन्हें समेटते हुए लहूलुहान हो, अलमारी के गुडी-मुड़ी सामान के ऊपर रख बाकि बचे सालों को समेटने की कोशिश करती है तो दो-चार व्यक्तित्व अपनी परते खोल सामने फर्श पर बिखर जाते हैं और वह यही सोचती रह जाती है कि किसे पहले समेटे और किसे बाद में.

       इन्हे समेटते हुए वह इतनी थक जाती है कि सुखद स्मृति फिर कभी जीने की सोच उसे वापस अलमारी में रख, पुरे के पुरे बाहर निकल पड़ने को तत्पर सामानों को किसी तरह ठूंस-ठांस दरवाजा बंद कर हांफने लगती है इतने में वह इतनी थक जाती है कि उसे सिर्फ बिस्तर ही नजर आता है लेकिन बिस्तर पर भी आराम नहीं. लेटते ही दिमाग में घुसे बैठे सारे इंसान अपनी-अपनी तुरही ले बजाने लगते हैं और बाहर आती है, कोई सुरीली तान नहीं सिर्फ शोर. शोर जो दिमाग पर दनादन घन चलाता है.एक..दो..तीन...चार..

        वह महिला जब इन घनों के आघात से चोटिल हो उठती है तो बिस्तर से उठ जाती है. घर के सारे कमरों का एक चक्कर लगाती है. " उफ़, बाई नहीं आई, रसोई में जूठे बर्तनों का ढेर पड़ा है, बैठक में सोफे के कुशन कवर आड़े-तिरछे पड़े हैं. शयन-कक्ष में सुबह का गुसा-मूसा बिस्तर वैसा ही पड़ा है, बच्चों के कमरे में खिलौने बिखरे है, बच्चों के कल के उतरे कपडे फर्श पर अपना आकार दिखाते पड़े हैं. उस महिला के दिमाग में चल रहा संघर्ष और बढ़ जाता है.

     क्या चाहती हूँ मै?.. कौन हूँ मैं?..... मैं...मैं हूँ...., माँ हूँ.. पत्नी हूँ...बेटी हूँ... कामकाजी हूँ. यहाँ तक तो ठीक है पर हर रिश्ते में मैं सिर्फ एक क्यों नहीं होती?... माँ सिर्फ एक क्यों नहीं... ...पत्नी, बेटी, बहू, कामकाजी भी सिर्फ एक क्यों नहीं होती हूँ . भीतर क्यों भरे हुए हैं इन सब के कितने ही विरोधी रूप मेरे? माँ सिर्फ माँ ही होती है ना फिर क्यों बेटे की जरा सी शैतानी पर ममता से भरी एक माँ उसकी प्यारी शैतानी पर न्यौछावर हुए जाती है तो दूसरी माँ उसे डांट लगाने कहती है. कभी-कभी तो एक तीसरी माँ उसे एक झापड़ लगाने को भी कहने लगती है.

     एक महिला ऑफिस के सारे काम पूरी दक्षता से पुरे समर्पण के साथ करना चाहती है तो दूसरी सिर्फ जरुरी काम करने कहती है तो कोई उस पर महावत की तरह सवार हो 'बने रहो पगला काम करेगा अगला' का अंकुश कोंचती रहती है. इन सब के बीच उस महिला का दिमाग इन सारे विरोधी विचारों के संघर्ष में महाभारत का मैदान बन जाता है उसे ऐसा महसूस होता है कि वह खुद कहीं रह ही नहीं गई है.. पर वह खुद कोई तो है…..

      वह सोचती है कि वह सारे रिश्ते - नातों से अलग कर खुद को किस रूप में देखना चाहती है किस रूप को अपने सबसे करीब पाती है..... पर वही दिमाग में विचारों के दन.. दन... दन…. दनादन चलते घन. उस महिला को कंहीं आराम नहीं है,

       वह महिला बाहर सारा कुछ वैसा ही छोड़, दिमाग में मचा घमासान छोड़, एक कलम कागज ले बैठ जाती है. वह लिखते जाती है जो मन में आ रहा है, बेसिर-पैर का, कलम कागज पर फिसलते जा रही है, शब्द उकेरते जा रही है, दिमाग में घमासान मचाते विचार प्रवाहमान हो कागज की ओर बहते जा रहे हैं जैसे बारिश की माटी समेटे मटमैली, गंदली नदी बहती जा रही है. कुछ देर में माटी बैठने लगी है. दिमाग पर घनों का आघात कम होने लगा है.

          वह महिला अपनी ऊर्जा समेट फिर उठती है. कुछ ही देर में उसने सारे जूते बर्तन धो दिए हैं, बैठक व्यवस्थित कर दिया है, शयनकक्ष के बिस्तर पर एक भी सलवट नहीं है वह अपने विवेक को भी काम पर लगा देती है और फिर वह अलमारी में ठूंसे सारे सामान को फर्श पर बिखरा कर बैठी है सब कुछ करीने से लगाती.

       वह जिंदगी की अच्छी यादें एक के ऊपर एक तह कर लगा रही है. जब चाहो जो चाहो वो याद निकाल लो, बुरी यादों की पोटली बना कर ऊपर आले पर टाँग दी हैं. जिंदगी के बीते बरस भी ऐसे ही करीने से रख दिए हैं. अनगिनत अपूर्ण इच्छाओं से तीन इच्छाओं का चयन कर लिया है. अब तक विवेक ने भी अपने साथी व्यक्तित्वों का चयन कर लिया हैं. अब उस महिला के दिमाग में घन चलने पूरी तरह से बंद हो चुके हैं. माँ, पत्नी, बेटी, अधिकारी के विवेकी व्यक्तित्व ने मोर्चा सम्हाल लिया है और बाकी सभी विरोधी व्यक्तित्वों को गहरी नींद सुला दिया है.

       अचानक वह महिला पाती है कि उसके अंदर से एक स्वच्छ, निर्मल जल का स्त्रोत फूट पड़ा है. कुछ देर पहले बहती मटमैली नदी की जगह यह स्वच्छ जल कल-कल, छल-छल करता बह रहा है. उसके अंतर्मन का नवादित उदित हो इस जल पर अपनी चमकीली, सुनहरी रश्मियों से फूल-पत्ते काढ़ रहा है. वह महिला फिर से
बच्चों के लिए दुनिया की सबसे अच्छी माँ, पति की दुनिया और ऑफिस की कर्मठ अधिकारी बन जाती है

Thursday 20 March 2014

बरगद कही कहानी

 झील में मंद पवन से उठती हिलोरें हो या ह्रदय में ख़ुशी से उठती हिलोरें दोनों ही मन को आनंदित करती हैं. दूर तक फैली नीली झील का किनारा हो, मुझ बरगद की छॉव हो, ह्रदय में ख़ुशी की हिलोरें हो तो झील की हिलोरों का आनंद चौगुना हो जाता है लेकिन यदि ह्रदय में दुःख हिलोरें ले रहा हो तो झील की लहरें उस दुःख पर मरहम का फाहा रखती हैं. हर सुबह शाम लोग इस झील के किनारे आते हैं, कुछ ख़ुशी बांटने, आनंद महसूसने तो कुछ अपना दर्द हल्का करने. हर किसी को यह झील गोपियों के कृष्ण सरीखी सिर्फ उनसे ही रास रचाती लगती है और इसतरह यह सबके सुख-दुख एक हमदर्द की भांति बाँट लेती है. 
      झील इतनी विशाल है कि इसके एक ओर घनी बस्ती है तो दूसरी ओर हरे-भरे खेत. झील कभी गोल थी पर आज इसकी सरहदें आड़ी-तिरछी लहराती हुई सी हो चुकी हैं. झील के किनारे के साथ-साथ एक कच्ची सड़क है जो खेतों को बस्ती से जोड़ती है. सड़क के किनारे दूर तक आम के पेड़ लगे है. झील के एक ओर कुछ साल पहले सौंदर्यीकरण कार्य कर झील पाट कर एक पार्क और म्यूज़िकल फाउंटेन बनाया गया है जो झील के सौंदर्य में काले टीके का काम करता है. झील के साफ नीले पानी में नीली कुमुदिनी और नील गगन का प्रतिबिम्ब झील के सौंदर्य को अप्रतिम बना देते है. यह झील शहर की धरोहर है. शहर भर के मेजबान अपने मेहमानों को यह झील दिखाने अवश्य लेकर आते हैं. मैं खुद बरसों से इस झील की खूबसूरती का गुलाम बना खड़ा हूँ. 

     अब तो मेरी इतनी उम्र हो गई कि झील के किनारे घटी कोई भी घटना नयी नहीं लगती. यह झील मेरे लिए पीढ़ियों का रंगमंच है जहाँ हर पीढ़ी नए अभिनेताओं के साथ एक सा नाटक अभिनीत करती है. मैं मूकदर्शी बन यह दोहराव पर दोहराव देखता रहता हूँ. इस पीढ़ी में भी मुझे झील किनारे खड़े होने वाले अधिकांश लोगों के चेहरे याद हो गए हैं. मैं यह भी बता सकता हूँ कि यह अलमस्त लड़का जो अपने दोस्तों के साथ खड़ा हो, रोज झील किनारे दोस्तों की महफ़िल ज़माने की बात पर अपने पापा के डांटने का मजाक उड़ा रहा है उसके पापा और दादा भी झील के इस ओर खड़े होने के अपने समय में दोस्तों के साथ यही खड़े होते थे.
      झील के भिन्न किनारों में भिन्न आयु समूह के भिन्न रुचियों के लोग आते हैं मानों यह झील का अघोषित अनुशासन है जो सभी को मान्य करना अनिवार्य है, पार्क की ओर पारिवारिक जमावड़ा होता है, घनी बस्ती की ओर अपने दैनिक काम निपटाने वाली गृहणियों का, खेतों की ओर बने एक घाट में प्रायः किशोर, जवान दोस्तों का समूह होता है, झील के किनारे पड़े पत्थरों पर शराब की बोतल पकड़े पियक्कड़ों का इन के अलावा जहाँ एकांत मिल जाये कुछेक प्रेमी जोड़े वहाँ मिल जाते हैं.
      झील के किनारे खड़े होने के अलावा कुछ लोग  यहाँ डुबकियां लगाते, तैरते, नहाते हैं. कुछ गहरी डुबकियां लगा मौत के सागर में डूब जाते है. वे भूत बन जाते है या भवसागर पार हो जाते है मुझे नहीं पता. मैंने यहाँ लोगो को डूब कर मरते देखा है तो मार कर डुबोते भी देखा है. मुझे हमेशा लगता था कि मैंने एक छोटे शहर में जितनी घटनाएं सम्भावित है अपनी सैकड़ों साल की उम्र में सारी देख ली हैं. अब कोई नयापन मेरे लिए शेष नहीं हैं. पर कल की घटना मेरे लिए भी नयी थी. जिस से मैं अब तक उबर नहीं पाया हूँ.
       रोज की तरह कल भी मंद शीतल पवन ताल के जल में और किनारे खड़े जनसमूहों के ह्रदय में लहरें उत्पन्न कर रही थी. अचानक एक अनजानी लहर उठी जो समस्त जनों में फैलती चली गई. लोगों के ह्रदय जमने से लगे. लोगों ने देखा झील के पानी में एक महिला का शरीर तैर रहा था. शरीर में कोई हलचल नहीं हो रही थी.सारी नजरें उस ओर जम गई. हवा के झोंकों से झील की हिलोरों के साथ लड़की का शरीर भी हिलोरें ले रहा था. महिला नीली कुमुदिनी के ही रंग का सलवार कुरता पहने हुई थी. उसका गोरा रंग पानी से भीग, सूरज की किरणों से चांदी सा चमक रहा था.

      उस शरीर के निकटस्थ, झील के किनारे पर लोग जमा होने लगे, कानाफूसियाँ होने लगीं. कुछ लोग पुलिस को सूचना देने निकल गए. किनारे खड़ी भीड़ उस महिला की कहानी जानने कसमसाती खड़ी रही. पुलिसिया कार्यवाही में उलझने के डर से कोई आगे नहीं आ रहा था. किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि कम से कम यह तो देख लें कि महिला जीवित है कि नहीं. यह दोपहर बाद का समय था. पुलिस के सर पर तो ढ़ेरों जिम्मेदारियां होती हैं उन्हें जल्दी से जल्दी आने में भी कम से कम एक घंटा तो लगना ही था. पुलिस का जवान आया पर उसे तैरना नहीं आता था अतः प्रशिक्षित तैराक भेजने हेतु खबर भेजी गई.
      अब तक शाम होने लगी थी. लोगों की कसमसाहट बढ़ती जा रही थी. पुलिस भी आ चुकी थी अतः फंसने का कोई डर नहीं था. कुछ रोमांचप्रेमी लोगों को लगा कि यह पता करें कि शरीर में तो हलचल नहीं है पर उसके अंदर जिंदगी की हलचल हो रही है कि नहीं. ऐसे कुछ लोग तैरते उस महिला के निस्पंद पड़े शरीर के पास पंहुच गए. उनमें से एक अपने धड़कते दिल के साथ उस महिला के दिल की धड़कन जानने उसका हाथ पकड़ा. हाथ में जीवन की ऊष्मा थी उसने फिर नाड़ी देखी. पाया कि महिला जीवित है. यह खबर नाड़ी देखने वाले बन्दे के चेहरे के बदलते भाव के साथ ही झील किनारे खड़े लोगों तक पंहुच गई. 
     उनमे फिर से एक लहर उठी, हलचल मची. जो रोमांचप्रेमी शरीर के आसपास तैर रहे थे वे तुरंत सक्रिय हो गए. उस महिला को आनन-फानन में बाहर निकाला गया और अस्पताल ले गए. तब तक महिला को होश नहीं आया था. कोई उस महिला को पहचानता भी नहीं था. शायद वह कहीं बाहर से आई थी. अब तक रात हो चुकी थी. महिला को अस्पताल ले जाने के कुछ ही देर बाद सारी भीड़ छंट गई. सब अपने अपने ठिकाने पर लौट गए बस मैं अकेला खड़ा उस महिला का हाल जानने बेताब हो रहा था पर मुझे पता था कि मुझे कल सुबह तक का इंतजार करना ही होगा. जब सुबह मेरे आसपास लोगों के समूह फिर जुटेंगे तो ही मुझे उस महिला का हाल पता चलेगा. 

      आज सुबह सूर्योदय के पहले से ही मै सुबह की सैर करने वालों का इंतजार कर रहा हूँ. पर आज यह लड़की जो अभी-अभी मेरे पास ऑटो से उतरी है मेरे लिए अनजानी है शायद कोई मेहमान होगी पर मेहमान तो कभी अकेले नहीं आते वो भी इस भिनसारे में तो कतई नहीं. लड़की बिलकुल नाजुक कली सी लग रही है. रंग ऐसा गोरा कि सूर्योदय की लालिमा से लाल चेहरा नव उदित सूर्य का
प्रतिबिम्ब दिख रहा है. हवा से उड़ते भूरे-सुनहरे बाल चेहरे से लुका-छिपी खेल रहे हैं. लाल रंग की घाघरा- चुनरी में लड़की लाल गुलाब की कली लग रही है. चेहरे पर सागर सी गम्भीरता है जो उसकी नाजुकता के साथ मेल नहीं खा रही है.
       ऑटो तो उसे छोड़ कर चला गया और वह मेरे छाँव में आकर खड़ी हो गई है. मैं सोच में हूँ." क्यों आई है वह यूँ अकेले, इस भिनसारे." क्या यह जीवन से जंग हारना चाहती है उसके चेहरे पर एक अद्भुत आभा है. जो मेरे अभी तक के वृहद् अनुभव के आधार पर कह रही है कि नहीं यह हार नहीं सकती पर वो तो जिंदगी से हारी हुई सी मेरी छाँव से दूर झील के पानी को चीरते आगे बढ़े चले जा रही है.
      कल वह महिला थी जिसने मुझे परेशान कर दिया था. और आज यह लड़की मेरी परेशानी का कारण बनी हुई है. मैं अपनी शाखें झकझोरने लगा हूँ पत्ते फड़फड़ाने लगा हूँ शायद कोई सोचे की बिना हवा के ऐसे हलचल क्यों हो रही है. कोई मेरे नजदीक आए और इस लड़की को यूँ गहरे पानी में उतरते देख कर रोक ले. अपनी सैकड़ों साल की जिंदगी में मैनें ऐसी बहुत सी घटनाएं देखी हैं पर ऐसी बैचेनी पहले नहीं हुई शायद मेरी छाँव के ठीक नीचे होने से और कल की घटना से मन कच्चा सा हो गया है.

       वह लड़की आगे बढ़ते जा रही है. झील का पानी पिंडलियों तक, कमर तक, अब गले तक आ गया. मेरी अब साँस ही रुक गई और वह लड़की नीली झील की नीलिमा में डुबकी लगा गई. क्या चाहती है वह? क्या झील की नीलिमा में डूब गगन की नलिमा में तारे सा जड़ जाना चाहती है. मै चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सका. 
      तभी सुबह की चहलकदमी करने वाले एक समूह की बातें मुझे सुनाई आई. एक व्यक्ति कह रहा था, ' कल तो गजब ही हुआ. वह महिला जिसे झील से निकाल कर अस्पताल ले गए थे, अस्पताल पहुँचाने तक होश में नहीं आई थी. जब डुबने से पेट में पानी भरा होने की आशंका से उसे उलट कर, पेट दबा कर पानी निकलना शुरू किया गया तो वह महिला होश में आई. होश में आते ही उसने पूछा मैं यहाँ कैसे आ गई. जब उसे बताया कि उसे झील से निकाल कर अस्पताल लाया गया है तो वह नाराज होने लगी. नाराजगी में उसका चेहरा सुर्ख गुलाब सा लाल हो गया था. उसने कहा,'उसे कुछ नहीं हुआ है. वह तो झील के पानी में योग कर रही थी. लोगों ने उसकी योगक्रिया में व्यवधान ला दिया.'
   उसने अपनी बात की पुष्टि के लिए ऑटो वाले का नंबर भी दिया जिसे उसने फिर से फोन करने पर लेने आने के लिए कहा था. पुलिस ने ऑटो वाले से पुष्टि की. इसके बाद लोगों पर बेहद नाराज होते हुए वह चल दी. किस्सा जो भी हो पर वह महिला थी बेहद खूबसूरत. वह इतनी गोरी थी कि सूरज के सामने सुनहरी दिखे तो चाँद के सामने रुपहली, इस बरगद के नीचे खड़ा कर दो तो हरियाली दिखे. 
    यह सुनते ही मेरी नजर उस ओर पड़ी जहाँ वह लड़की डुबकी लगा गई थी. उससे कुछ ही दूर झील के पानी में उसका शरीर तैर रहा था. शरीर में कोई हलचल नहीं थी. हवा के झोंकों से झील की हिलोरों के साथ लड़की का शरीर भी हिलोरें ले रहा था.

Monday 3 March 2014

मुझे चाँद चाहिए


                एक दिन चाँद को आसमान से धरती में झांकने पर एक झरोखे से निकलती सतरंगी आभा दिखी. चाँद ने धीरे से आसमान में नीचे आकर, थोडा सा झुक कर देखा. उसे पलंग पर बैठी हुई एक लड़की दिखी. वह सतरंगी आभा उस लड़की के कमरे से निकल रही थी. चाँद ने अपनी शीतल चांदनी को उस कमरे में उजाला करने भेजा. चांदनी से कमरा जगमगा उठा. सतरंगी आभा सात गुनी हो उठी.
      चाँद ने देखा कमरे की दीवारों पर अनेक सतरंगे तैलचित्र लगे हुए हैं. उन सतरंगे चित्रों में एक ही चेहरा अलग -अलग भावों में, अलग- अलग जगहों में, अलग- अलग रंगों में उकेरा हुआ है. कमरे के एक कोने में अनेक मेडल, कप, शील्ड, फ्रेमजड़ित फोटोग्राफ्स लगे हुए हैं. फ़ोटो में वही सतरंगे चित्रों वाली लड़की नामचीन हस्तियों से सम्मान ग्रहण करती दिख रही है.
      चाँद ने चांदनी से बिस्तर पर बैठी हुई लड़की के चेहरे पर उजाला करने कहा. चांदनी उस लड़की के चेहरे के चारों ओर सिमट आई जैसे चाँद में बैठी सन कातती बुढ़िया ने दीए को लड़की के चेहरे से ही सटा दिया हो. यह वही तस्वीरों वाली लड़की थी. अब भी वह लड़की पलंग पर बैठ अपना एक बेहद मोहक चित्र बना रही थी ..... सुदूर ब्रम्हांड में एक सुन्दर से तारे में विस्फोट हो रहा है और उससे एक नन्हा सा तारा जन्म ले रहा है. वह खंडित होता तारा स्वयं लड़की है. 

       चाँद ने उस तस्वीर के जादू से सप्रयास मुक्त होते हुए लड़की की ओर देखा. लड़की चित्र बनाने में तल्लीन थी किन्तु उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे. यह सृजन की नहीं सचमुच की पीड़ा थी. लड़की को अपना हाथ उठाने में, तूलिका पकड़ने में बेहद तकलीफ हो रही थी फिर भी वो इस नीरव रात में आत्ममुग्ध सी अपनी तस्वीर उकेरते बैठी थी.
       चाँद से रहा न गया. वह धरती पर उतर आया. उसने लड़की से पूछा, "बालिके क्यों खुद को इतनी तकलीफ दे रही हो. बेशक तुम्हारे चित्र ह्रदयस्पर्शी और सुन्दर हैं पर इतनी पीड़ा सह इन्हें क्यों बना रही हो." लड़की ने आँखों में हिलोरें लेती दर्द की लहरों और तिरछी मुस्कान के साथ कहा, "चाँद तुमने मेरी पीड़ा देखी कहाँ है.... फिर अचानक उस लड़की ने चाँद से प्रति प्रश्न किया. "अच्छा चाँद तुम पूछते हो मैं इतनी पीड़ा सह, ये चित्र क्यों बना रही हूँ? पहले तुम ये बताओ कि पिंजरे में बंद पंछी क्यों गाते हैं......? ये पंछी पिंजरे में बंद कर दिए जाते हैं इस लिए गाते हैं या गाने वाले पंछी ही पिंजरे में बंद किये जाते हैं. सभी कहते हैं और तुम भी बड़ी आसानी से ये कह सकते हो, कि पिंजरे में बंद पंछी नहीं गाते अपितु गाने वाले पंछी ही पिंजरे में बंद किये जाते हैं."
       उस लड़की के चेहरे पर एक फीकी पर दृढ हंसी आई. उसने फिर कहा, "पर मेरे लिए तो पहली बात ही सत्य है बिलकुल ध्रुव तारे की तरह अटल सत्य. तुम जानते हो…..ये जो हंसते गाते अपनी मधुर आवाज से सबको अपना बनाते मधुर कंठी परिंदे हैं वे एक दिन अनंत आकाश के प्रवासी थे. नील गगन में अपने पंख फैलाये… आसमान को अपने परों में समेटते…, नभ को पलों में नापते
परिंदे.... एक दिन नियति मानव ने उन्हें काल के क्रूर पंजे में पकड़ तंग पिंजरे में कैद कर दिया, छीन लिया अनंत आकाश, काट दिये नभ नापते पर, खो गयी उनकी आसमानी छत...... अब रह गयी बस लोहे के तारों की बाड़ें और पाँव के नीचे की सलाखें.... टांग दिया पिंजरे के कोने में एक झूला...... आकाश की पींगे मारने वाले असीम आकाशी पंछी को पिंजरे की सीमा में झूलने को .. चिढ़ाने को.
      चाँद निशब्द बस सुनता रहा. उस लड़की ने फिर कहा " उस नभ प्रेमी नभचर के पास अपनी जिंदगी निभाने को कुछ भी तो नहीं रह गया पर इस निपट अंधकार में भी उस जीवट ने अपनी कैदी जिंदगी से हार नहीं मानी.... वह निरंतर अपनी स्थिति की शिकायत करता.... नियति मानव को देख चिल्लाता… यही है.. यही है वो... जिसने मेरे जीवन की जंग को पिंजरे तक सीमित कर दिया
है. यही है…यही है वो... जिसने मेरे सतरंगे जीवन को सुनहरी सलाखों में कैद कर दिया है. पंछी के ह्रदय की कड़वाहट उसकी आवाज में आती. आवाज की यह कड़वाहट उसके ह्रदय में कड़वाहट लाती. एक दिन वह थक गया जैसे नियति मानव के उसे कैद करने के क्रूर कर्म से हार गया हो. पंछी की आवाज में दुःख की नदी बह चली. पंछी की दुःख भरी तान ने सारे भावजगत को दुःख के सागर में
डुबो दिया. पंछी भी इस दुःख के सागर की दुःख भरी लहरों में डूबने उतराने लगा. लहरों से संघर्ष करते-करते जब जान पर बन आयी तो पंछी के मन में जीवन से अनुराग का उदय हुआ. मन में अंकुरित अनुराग, सुरों में प्रतिबिंबित होने लगा तो पंछी स्वयं भी अनुराग की ऊष्मा से उर्जित हो उठा."
       वह लड़की कहे जा रही थी, " पंछी के नियति मानव ने उस से उसका आसमान ले लिया, उसके पर ले लिए तो क्या.... परों की उड़ान न सही सुरों की तान ही सही. तब ही से पिंजरे के पंछी ने अपने मधुर गान से खुद की दुनिया को आनंदित करना आरम्भ किया. सुमधुर, सुरीले आरोहों अवरोहों से भरा तान ठीक आसमान में पंछी की उड़ान सा. नभ तक तैरती स्वर लहरियाँ आसमान को छू
लेने के संतोष से भरती हुई."
      लड़की ने आगे कहा, "ये न सोचना चाँद कि पंछी ने परिस्थितियों से हार मान ली है. अब भी वह उड़ने को बेताब है बस उसे मौके का इंतजार है, पर तब तक वह अपने परों के काटे जाने का शोक नहीं मानना चाहता. अपने अमूल्य जीवन को दुःख में डूबा नहीं रखना चाहता वह तो अपने जीवन मंथन से पाई खुशियों में डूब जाना चाहता है."
      लड़की के होठों में एक दर्दीली मुस्कान आई, "बस ऐसी ही मेरी जिंदगी है. मेरी जिंदगी में वो घनघोर अंधकार से भरा दिन आया जब मेरी जिंदगी के स्वर्णिम, रक्तिम सूर्य को काले अँधेरे राहु ने ग्रस लिया. मैं स्कीइंग करते हुए अपना संतुलन खो बैठी. जब मुझे होश आया तो मेरी जिंदगी पलंग और अपने अधिकतम विस्तार में इस कमरे के झरोखे से झांकते आसमान के एक टुकड़े तक सीमित रह गई थी. गर्दन से नीचे शरीर में कोई हलचल नहीं थी. मैं नियति के पिंजरे में कैद हो कर रह गई." "सारे- सारे दिन और पूरी -पूरी रातें आंसुओं से ह्रदय को सींचते बीतने लगी. अब तक की जिंदगी की किताब के सतरंगे पन्नों के आगे के पन्ने सिर्फ काले …और गहरे होते जा रहे काले रंग में डूबे दिखने लगे.
      मैं इस कालिमा में खुद को खोने लगी बस तभी उम्मीदों का इंद्रधनुष जिंदगी के क्षितिज पर उभरा. इस सतरंगे इंद्रधनुष ने मेरे हाथों में अपने सातों रंग थमा दिये और मेरे चारों ओर इनकी सतरंगी आभा बिखेर दी." आज तो मैं इस जरा सी पीड़ा के साथ अपने हाथ उठा तस्वीर बना ले रही हूँ. वे दिन तुमने कहाँ देखे हैं जब मुझे तुम चाहिए थे पर भगवान ने मुझसे मेरा सब-कुछ छीन, इस पलंग में कैद कर दिया था. तुमने वे दिन भी नहीं देखे हैं जब इन उँगलियों से तूलिका पकड़ना प्राणांतक पीड़ा देता था. उस प्राणांतक पीड़ा से लड़, जब मैंने इतनी तस्वीरें बना ली हैं तब तुम आये हो." चाँद चुप रह गया. उसे आभास भी न था कि कोई इस शिद्दत से उसे चाहता है.
        उस लड़की ने हंस कर कहा, " पर मुझे पता है तुम्हे पाने तपस्या करनी होती है." " मैंने इतने कष्ट सहे क्योंकि मैं तुम्हें पाना चाहती थी. मैं अपने इस एक कमरे की दुनिया और खिड़की से दिखते आसमान के इस टुकड़े से ही संतुष्ट नहीं हो सकती थी. देखो आज तुम्हारे सहित सारा का सारा आसमान मेरा है." अपने हाथ में तूलिका थामे उस लड़की ने चाँद की आँखों में सीधे झांकते हुए कहा. उसकी आँखों में उत्साह, जिजीविषा, संकल्प की बिजली कौंध रही थी. चाँद उन आँखों में कौंधती अदम्य जिजीविषा की बिजली
को मंत्रमुग्ध देखते रह गया.