Tuesday 10 January 2017

हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी

 साहित्य अमृत युवा हिंदी कहानीकार प्रतियोगिता २०१५ में प्रथम स्थान प्राप्त कहानी 

  वह ओस से भीगी-धुली सुबह होगी; जब एक जंगल की पगडण्डी में हम यूँ ही टहलते हुए, बहुत दूर निकल जायेंगे. मैं एक खुमारी में चल रहा होऊंगा, तुम्हारे साथ की खुमारी में. तुम क्यों चलती रहोगी; ये मैं सोचना भी नहीं चाहता, क्योंकि जानता हूँ- तुम्हें पहाड़, जंगल, पेड़-पौधों का साथ, सूरज, नीला आसमान सब बहुत पसंद है. मेरे साथ यूँ चलते जाने में मेरे प्यार के अलावा, किसी भी कारण का होना सोच मैं इनसे ईर्ष्यालु नहीं होना चाहता. तुम मेरे साथ चल रही होगी, मेरे लिये यही बहुत है.
  वह पगडण्डी जब जंगल के अन्दर बहते हुए एक नाले के किनारे पड़े मोटे अनगढ़े पत्थरों में खो जाएगी, तो मेरी वह खुमारी टूटेगी. सामने दुधिया जल पत्थरों से मिल गाने गाता हुआ कल-कल बहता होगा. तब मुझे समझ में आएगा, कि तुम्हारे खुमार में खोये हुए, तुम्हें कहाँ ले आया हूँ. चारों ओर सागौन के, साल के बड़े–बड़े पेड़ होंगे. जिनके पत्तों की झिरी से सूरज की किरणें झर रही होंगी. तुम्हारे चेहरे पे पड़ती ये किरणें तुम्हारे चेहरे की चमक में खोती सी लगेंगी.
  पूरे वातावरण में घने जंगल की महक बिखरी हुई होगी. तुम लम्बी-लम्बी सांसे लेकर ये महक अपने अंतस में भर लेने की कोशिश करती रहोगी. इस महक के अलावा हमारे आस-पास होगी- पत्तों से फिसल कर जंगल की जमीन को चूमती ओस की बूंदों की टप-टप, हरे पत्तों की सरसराहट, पहाड़ी नाले की कलकल-छलछल, दूर कूकती कोयल की तान. तुम मुझे भूल कर पूरी तरह से जंगल के खुमार में खो जाओगी. मैं तुम्हारी चढ़ती-उतरती सांसों में खोया, तुम्हें देखता रहूँगा.
  तभी एकदम से परेशान होकर मैं तुमसे कहूंगा,
  “सरू ! चलो वापस चलते हैं, हम जंगल में बहुत अन्दर आ गए हैं.” 
  अगले ही पल मैं तुम्हारा हाथ पकड़ तेज-तेज चलना शुरू कर दूंगा. तुम मेरे हाथ पकड़ने से शरमाई हुई मेरे साथ खिंची चली आओगी. मेरी हथेली से घिरी अपनी पसीजती हथेली, धड़कता दिल और धौंकनी सी चलती सांसों के साथ.
   कुछ देर बाद चलते-चलते ही मैं तुमसे कहूँगा,
     “दरअसल पास ही कंही जंगल कोतवाल चिल्ला रहा है, फिर एक चीतल की चेतावनी भी आई, और नाले के उस पार के महुआ के पेड़ पर बैठे बन्दर भी चिल्लाने और उछल कूद करने लगे हैं.”
    तुम एक प्रश्न भरी नजर से मुझे देखोगी फिर नजरें वापस पगडण्डी पर टिका मेरे साथ चलती रहोगी, यह सोचते हुए कि बन्दर कब शांत बैठते हैं जो उन्हें उछल-कूद करते देख मैं यूँ भागने सा लगा?
   मैं आगे कह रहा होऊंगा. “उनकी हरकतों का मतलब है, कि तेंदुआ कहीं आसपास है.”
  यह सुन तुम्हारी धौंकनी सी चलती साँस तो रुक ही जाएगी; तुम अमलतास के पीले फूलों को मात देते पीले चेहरे से बोलोगी, “क्या! तेंदुआ यहाँ आ गया तो?”
  मैं तुम्हें आश्वस्त करते हुए कहूँगा, “नहीं, चिंता मत करो, तेंदुआ यहाँ से अभी दूर होगा. बन्दरों की चटर-पटर अभी इतनी ज्यादा नहीं है और वो हमारे से विपरीत दिशा में देख रहें हैं.”
  यह सुन तुम खिलखिला कर हँसते हुए, रुक कर कहोगी, “तुम्हें कैसे पता ? क्या तुम बंदरों की भाषा जानते हो ?”
  फिर थोड़ी नाराजगी से गुलमोहर की तरह लाल होते चेहरे के साथ कहोगी, “तुम्हें मेरा पानी में खेलना पसन्द नहीं है न ? तुम मुझे नाले से दूर ले जाने के लिये तेंदुए का बहाना बना रहे हो. क्यों ?.”
  तभी तुम्हें इस ‘क्यों’ का जवाब तेंदुए की गुर्राहट से मिल जायेगा और तुम गुलमोहर से अमलतास हो मुझसे लिपट जाओगी.
  अक्सर अभय रातों को सोने से पहले ऐसे ही सपने देखता रहता, मन ही मन सरू से बातें करता रहता. सपने में कभी सरू अभय से लिपटती, कभी चूमती, कभी उसे बालों को सहलाती. दिन में जंगल वार फेयर के प्रशिक्षण में वह जो भी सीखता, रात को उसके कुछ पल सरू के साथ जी लेता.
  वह सरु से बहुत दूर था जहाँ सरू की मौजूदगी के अहसासों का ही सहारा था. जैसे रात के सन्नाटे में जंगल अधिक मुखर हो उठता है. उसी तरह रोज रात में सरू की याद भी अभय के जेहन में मुखर हो जाती. उसकी यादों में होते- सरू के साथ बीते पलों की यादें और भविष्य के सपने. सपने भी तो एक तरह की यादें ही हैं, भविष्य की यादें. दिन का कोलाहल इन यादों को एक महीन पर्त से ढंक देता जबकि रात ढोल-धमाकों के साथ इन यादों की बारात ही ले आती. अभय की हर रात ऐसे ही यादों, सपनों में खोये बीतती.
  अभय सरू को जिंदगी से बढ़कर प्यार करता. दोनों ने अपने घर में अपने प्यार के बारे में सब कुछ बता दिया था. घरवाले अनमने होकर भी तैयार थे. बस अभय को अपनी ट्रेनिंग ख़त्म होने का इंतजार था. तब तक वह सरू को बस यही कहता,
  “सरू! मैं जल्दी ही तुम्हें लेने आऊंगा. तुम बस मेरा इंतजार करो और खुश रहो. फिर जल्दी ही हम चलेंगे, पहाड़ों और जंगलों की सैर को.”
  अभय की हर रात का सोने जाने और सो जाने के बीच का समय सरू से मन ही मन बातें करते बीतता. ऐसे ही किसी दिन अभय की टीम जंगल में सर्चिंग कर रही थी कि अभय को अचानक से वनचंपा की खुशबू आई. जो उसे एकदम से सरू के पास ले गई.
  रात को उसने मन में सरू से कहा, “तुम यहाँ होती तो कितनी खुश होती. जंगल की पगडण्डी पर चलते हुए अचानक थमक कर कह उठती- “यह गंध वनचंपा की है और यह करंज की.”
  जब तुम ऐसा कहती तब तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के कुसुम खिल आते और आँखों में भर आती मोगरे की चमक. तुम यहाँ होती तो आवाज में झांझर की खनक ले कह उठती,
  “देखो! यहाँ सागौन के कितने सारे छलनी से पत्ते बिखरे हुए हैं मैं इनमें पेंटिंग बनाउंगी.”
  तुम इन पत्तों को दौड़-दौड़ कर सहेजतीं और जंगल में पड़े टेढ़े-मेढ़े लकड़ी के टुकड़ों को इकठ्ठा करतीं. इन टुकड़ों में तुम्हें कभी कोई हंस दिखता, कभी सद्यस्नात नारी तो कभी कोई कछुआ. यह सब करते हुए तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के कचनार की लालिमा लबालब भर आई होती.
  कचनार, अमलतास, गुलमोहर, अभय अब सरू की ही भाषा बोलता. जंगल वार फेयर की ट्रेनिंग और सरू के प्यार ने उसे प्रकृति के नजदीक ला दिया. उसे बहुत से पेड़-पौधों के नाम याद हो गए. पहले सरू को अभय से शिकायत रहती कि उसे पेड़-पौधों, चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते. पहले अभय को इन्हें देख ख़ुशी नहीं होती जबकि बुलबुल को देख सरू किलक उठती, और कभी खुद ही कोयल बन कूकने लगती. हरसिंगार देख वह पेड़ को हिला कर अपने ऊपर फूलों की बारिश करने से नहीं रोक पाती. अब अभय उन्हें सरू से ज्यादा पहचानने लगा. अब वह अक्सर नए नए पेड़-पौधों, चिड़ियों की पहचान सरू से कराने की सोचता. अब भी जब कभी कोई नाम याद करने में अभय को परेशानी होती है वह सरू की याद से जोड़ कर नाम याद कर लेता है.
  कल ही तो उसने जंगल में लैंटाना की झाड़ी देखी. उसे सरू की बात याद आई,
  “पता है मैं और मेरी सहेलियां इस लैंटाना के फल को बचपन में चार समझ कर खाते थे. जब घर में पता चला तो खूब डांट पड़ी.”
  यह बताते हुए सरू हंस रही थी, “बचपन में मुझे चार और लैंटाना के फल में अंतर नहीं समझ आता था.”
  तब अभय भी उसकी हंसी के साथ हंस पड़ा पर उसने सरू को बताया नहीं, बस मन ही मन कह दिया था, “सरू ये अंतर तो मुझे आज भी नहीं मालूम है.”
 लेकिन अब अभय के पास सरू की इन पसंदीदा चीजों के बारे में बताने के लिये बहुत सारी बातें थीं. अभय यह दिली इच्छा रखता कि वह सरू से ये सारी बातें करे. पहाड़ों, जंगलों, झरनों, पंछियों से भरी जगह में, सरू को बाँहों के घेरे में लेकर घूमते हुए.
  ऐसी जगह में घूमते हुए, ऐसी बात करते हुए अभय सिर्फ और सिर्फ सरू का चेहरा देखते रहना चाहता. उसे याद आता, शहर के पार्क में नीलगिरी की पत्तियों से झांकता नीला आसमान. जिसे देख सरू की आँखों के जुगनू चमक उठते. ख़ुशी से चेहरे पर चाँद की चांदनी छिटक जाती. वह अक्सर सोचता, जब सरू इन पहाड़ों की अलसाई देह पर पसरे जंगल में, औंधी लेटी रात की काली चुनरी में टंके सितारों की चमक देखेगी तब तो उसका चेहरा ही चाँद हो उठेगा.
  अभय के जंगलवार फेयर का प्रशिक्षण अब कुछ ही दिन में ख़त्म होना था. उसने घर में शादी की तिथि तय कर देने के लिये लिख दिया. अब शादी करने के इंतजार में उसके दिन बीतते. सरू के साथ पहाड़ों में, जंगलों में प्यार करने के इंतजार में दिन बीतते.
  पहाड़ से लम्बे दिन आखिर बीत ही गए. ट्रेनिंग ख़त्म हुई. अभय को सर्वोत्तम कैडेट का पुरुस्कार मिला. धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पोस्टिंग हो गई. अभय और सरू की शादी हो गयी. लेकिन यह जरुरी नहीं कि हर वह चीज जो हम चाहें वह पूरी हो. अभय सरू को शादी के तुरत बाद पहाड़ों की सैर पर ले जाना चाहता था पर ये संभव ना हो सका. उसने देखा कि घरवालों के अपने बहू के साथ रहने के अरमान हैं तो इन अरमानों की बलि देकर सरू को पहाड़ों पर ले जाना उसे ठीक नहीं लगा. उसने सरू से वादा किया’
  “हम जायेंगे, जल्दी ही पहाड़ों के संसार में जायेंगे, पर किसी के अरमानों की बलि लेकर नहीं. बस जल्दी ही मैं छुट्टी लेकर आऊंगा. इस बार घर में ही रह लेते हैं.”
  शादी के बाद अभय को नौकरी में वापस आये दो महीने बीत गए. सरू से सैकड़ों मील दूर रह कर भी वह अहसास करता, कि सरू उसके बिना वहां बहुत गुमसुम होगी. उसने घर में रहते हुए यह थाह पा ली थी, कि घर वालों ने उसकी पसंद को रजामंदी तो दे दी, पर वो इसे दिल से स्वीकार नहीं कर सके. वह जाने अनजाने बुदबुदा उठता,
  “सरू प्लीज ! मेरे बिना भी घर में अपना मन लगाने की कोशिश करना.”
  एक-एक दिन पहाड़ों की तरह बीतता रहा. वह अहसास करता, सरू के अनजान जमीन में अपनी जड़ें ज़माने के प्रयासों का. वह  अहसास करता इन प्रयासों के नकारे जाने का. वह कई बार खुद को सरू का अपराधी सा महसूस करता, तब वह अपनी डायरी ले बैठ जाता.
  “सरू! मैंने इन दो महीनों में तुमसे कुछ कहा नहीं पर मुझे मीठे बोलों की खनक में, कद कम करने की छुरियां तेज करने की आवाज बखूबी पहचानना आता है. मैं पहचानता था; रहस्यमयी अनुमतियों में बंधनों की तीखी कटारी चुभोते आग्रहों को. कलश पादप के खूबसूरत फूल के पीछे छिपे मन गला देने वाले एसिड से भरे गह्वरों को. मुझे पता है तुम्हें इन्हीं छुरियों, कटारियों और एसिड के बीच छोड़ आया हूँ.”
  “हमने अपनी पसंद से शादी की है भले ही घरवालों ने हमारा मन रखने के लिये अपनी सहमति दे दी थी, पर उनके अरमानों को चोट तो लगी ही है. विश्वास करो, कि ये कठिन लम्हे हमारी परीक्षा के हैं. यह हमारे घरवालों की तरफ से हमारे प्यार की सजा है. यूँ समझ लो कि तुम्हें इन्हीं से अपने जीवनफल की मिठास चीरकर बाहर निकालनी है. यह मिठास उन मनों से एक बार निकलने की देर है, फिर कभी तुम्हें किसी छूरी, कटारी का सामना नहीं करना पड़ेगा. जल्दी ही हमारा प्यार घरवालों के दिल में भी समा जायेगा. मुझे विश्वास है कि तुम ये बखूबी कर लोगी.”
  उस दिन इतना लिख उसने अपनी डायरी बंद कर दी. शायद असहाय सी स्थिति महसूस कराने वाले शब्दों का बोझ हल्का हो जाने से उसे राहत मिल गई. सरू के साथ का अहसास, उसकी खुशबू, उसकी मिठास जान लेने के बाद अब उससे दूर रहना अभय के लिये बहुत तकलीफदेह होता जा रहा था. वह सरू की आवाज सुनने को तरसता. घने जंगल में मोबाइल फोन भी एक डब्बा भर था. वह यहाँ वीराने जंगल में दिनों-महीनों पड़ा रहता. घंटों पगडंडियों पर दसियों किलो बोझ उठाये मीलों पैदल चलता रहता. कभी सर्चिंग के नाम पर, तो कभी रोड क्लियरेंस के नाम पर, तो कभी एरिया डोमिनेंस के नाम पर. जब थक जाता तो सोचता, कि उनके सपनों के पहाड़ में, जंगल में पैदल चलते हुए सरू थक गई है, और वह उसे अपनी पीठ में लिये घूम रहा है. इस वीराने में अभय को सरू की मीठी यादों का ही सहारा होता.
  जब वह रात को सोने जाता, तो उसके दिन के किये काम किसी ना किसी तरह अपनी कड़ी सरू की यादों से जोड़ ही लेते, जैसे एक दिन उसे याद आया कि सरू कॉलेज गार्डन में लोहे के वन बाई वन स्क्वेयर मीटर का चौखाना लेकर गिनती थी, कि इसके अन्दर कितने प्रकार के पौधे कितनी संख्या में हैं. जिससे पता चले कि, विभिन्न प्रजातियों के पौधों की डेंसिटी कितनी है. तभी अभय को लगा कि यहाँ यही वह भी कर रहा है. बस अंतर इतना है कि, वह पावों के निशान गिनता है, जिससे पता चले कि इस जगह से कितने नक्सली गुजरे हैं और देखता है कि पावों के इन निशानों की साइज क्या है ? जूतों में कील लगी हैं? एडी में लोहे की नाल लगी है ? किसी महिला के पावों के निशान हैं या पुरुष के.
    उस दिन अभय सरू को यह बताने के लिये उत्सुक हो उठा कि जूतों के निशान देखकर बताया जा सकता है, कि चलने वाले की स्पीड कितनी थी. कि सामान्य गति से चलने पर जूतों के पंजों और एड़ी के निशान सामान दबाव वाले होते हैं, जैसे-जैसे गति बढ़ती जाती है, पंजों के निशान भारी होते जाते हैं और एड़ी के हल्के, कि तेज दौड़ते इन्सान के सिर्फ पंजो के निशान ही बनते हैं.
  अभय सोचने लगा कि जब भी वह सरू से मिलेगा, तो उसे बताएगा कि ऐसे ही जूतों के निशान देख अब वह ये भी बता सकता है, कि ये निशान ताजे बने हैं, या पहले के हैं. पहले के बने निशान हलके होते हैं, उन पर कीड़ों के चलने के, ओस की बूंदें पड़ने के निशान भी पड़े होते हैं. वह यह भी बताएगा, कि इससे हम नक्सली यहाँ से कितने देर पहले गुजरे हैं, यह अनुमान लगाते हैं. यूँ कहो कि जमीन पर छपे निशानों के सबूतों से, हम नक्सलियों की आमदरफ्त की कहानियां बुनते हैं. यही नक्सली भी हमारे साथ करते हैं.
  तभी उसकी सोच को एक जोरदार ब्रेक लगा, “नहीं! वह नक्सलियों से जुडी बात सरू को नहीं बताएगा. नाहक ही सरू घबरा जाएगी.”
  अभय एक लम्बी उसांस भर मन में कह उठा, “पावों के निशान तो इंसानों के ही होते हैं पर हम इसे इन्सान के पाँव नहीं मानते. इसे या तो नक्सली के पाँव के निशान मानते हैं या पुलिस के पावों के निशान. जैसे नक्सलियों के लिये पुलिस इन्सान नहीं है और पुलिस के लिये नक्सली.”
  अंततः उसने सरू को बताने वाली बातों से नक्सलियों की बात हटा दी. सिर्फ जमीन पर छप आये पावों के निशानों की कहानी सरू को बताना तय किया, और यह जान कर सरू के उत्सुक चेहरे में उग आये जुगनुओं की चमक में खो गया.
   एक दिन अभय को सरू का पत्र मिला. उस दिन उसे सरू की कुछ ज्यादा ही याद आ रही थी. पत्र में सरू की शिकायत थी कि, अभय बहुत छोटे पत्र लिखता है, सिर्फ कुशलक्षेम और कुछ नहीं.
  उस दिन अभय ने सोचा, “क्या लिखूं? जब मोबाइल डब्बा नहीं होता, तो तुम से बातें ही कर लेता हूँ, नहीं तो सारा कुछ तुम्हें सोच मन ही मन तुमसे बातें कर के ही बता देता हूँ. इस घने जंगल में मेरे दिलो दिमाग में या तो नक्सलियों का खौफ होता है, या तुम.”
  फिर मन ही मन हंसा, ये खौफ कितना अजीब शब्द हैं न, दूसरे इसका मतलब झट से नक्सलियों से डरना लगा सकते हैं, लेकिन हम नक्सलियों से डरते नहीं हैं, पर हां! हमें नक्सलियों का डर जरूर होता है क्योंकि ये डर ही तो हमें हर पल सजग रखता है. उनका सामना करने के लिये.
  सच ही है अभय लिखे क्या? क्या यह लिखे कि यहाँ वह हर पल मच्छरों और नक्सलियों के खौफ में हैं. जाने कब इन मोटे मोटे मच्छरों से मलेरिया हो जाये, या जाने कब जंगल में सर्चिंग के दौरान पाँव बारूदी सुरंग पर पड़ जाये, और उसके चिथड़े उड़ जाएँ, या जाने कब किसी पेड़ के पीछे से एक सनसनाती गोली आ कर इस सीने में धंस जाये.
   अभय जब भी आराम करता, सरू उसके पास ही आ जाती. सरू को लिखते हुए वह दूर लगने लगती. अभय को सरू से दूरी महसूस करना अच्छा नहीं लगता, बस इसीलिए...पर उस दिन उसने सोच लिया कि, आज वह सरू को चिट्ठी लिखेगा. उसने बहुत दिनों से सरू के लिये शब्दों के मोती कविता में पिरोये थे.
  जन्मों से मेरी सरू
  इस दुनिया में न समां सके इतना प्यार
  यहाँ मैं सकुशल हूँ और आशा करता हूँ कि घर में भी सब सकुशल होंगे. अब ये पत्र तुम्हारे, सिर्फ तुम्हारे लिये है-
  एक दिन तुम्हें जंगल ले जाऊंगा
  एक छोटा सा घर बनाऊंगा
  तुम्हारे साथ हँसूंगा गाऊंगा
  बेले की छत होगी
  मेहंदी की दीवारें
  घर की खिड़की से आयेंगी
  जूही, चंपा की बरातें
  अमलतास की सेज होगी
  मोगरे का सिंगार होगा
  बढ़ती सांसों का उपहार होगा
  हम रहेंगे वहां
  बीज की तरह
  मनाएंगे सृजनोत्सव वहां
  रचेंगे अपने
  सुख का संसार
  - तुम्हारी सांसों में समाने का आकांक्षी
    अभय
  यह पत्र लिख अभय निढाल पड़ गया. कितना मुश्किल होता है प्यार भरा पत्र लिखना ? उसका दिल मानों चीर दिया हो ऐसा दर्द करने लगा. पेट में मरोड़े उठने लगीं. 
  “जाने कब मिल पाउँगा सरू से? छुट्टियाँ भी तो नहीं मिलती. इस बार पूरे दो महीने की छुट्टी लेकर जाऊंगा. सरू की शरबती आँखों में खोने के लिये. उसे पहाड़ घुमाने मनाली लेकर जाऊंगा.”
  अभय ने पत्र को हौले से छुआ, जैसे सरू को छू रहा हो. उसके चेहरे में एक मुस्कान उभर आई,
  “सरू मेरी लिखी कविता पढ़ कर कितनी खुश होगी.”
  उसने उस पत्र को अपने लबों से चूमा और मोड़कर अपने जेब में डाल दिया,               “पंद्रह दिन का यह सर्चिंग ओपरेशन कल ख़त्म हो जायेगा. कल जिला मुख्यालय से इसे पोस्ट कर दूंगा.”
  सरू इंतजार करती रही, अपने पत्र के जवाब का. उसे पत्र भेजे बीस दिन हो चुके थे. वह तैयार होती, खाना बनाती, घर व्यवस्थित करती, कपड़े तह करती, चाहे कुछ भी करती पर हर पल उसके कान दरवाजे पर डाकिये की आवाज का इंतजार करते. उस दिन सुबह पापाजी समाचार पत्र पढ़ रहे थे, मांजी पूजा कर रही थीं. वह रसोई में कढ़ी बनाते हुए सोच रही थी.
  “अभय को कढ़ी बहुत पसंद है. इसबार अभय आयेंगे तो हर दूसरे दिन उन्हें कढ़ी खिलाउंगी, एक दिन सादी कढ़ी, एक दिन भजिया कढ़ी, एक दिन बूंदी कढ़ी. उनकी पसंद की सारी चीजें बना के खिलाऊँगी.” सरू के न चाहते हुए भी एक उसांस निकल गई, “लेकिन अभय कब आयेंगे?”
  पापाजी ने समाचार पत्र खत्म कर टीव्ही पर न्यूज चैनल चला दिया. टी.व्ही. में लगातार ब्रेकिंग न्यूज चल रहा था. “नक्सली हमले में दो अधिकारीयों समेत चौदह जवान शहीद.”  
  तभी पापाजी को एक कॉल आया. अभय के बटालियन के किसी ने बताया कि अभय जंगलों में सर्चिंग के दौरान हुए, एक नक्सली हमले में शहीद हो गया.
  सरू निराधार हो गई. अभय के माँ-पिताजी नि:सहाय हो गए. अब उनके पास एक ही इन्तजार रह गया था. बेजान अभय का इन्तजार, अंतिम वक्त में उसके पास मौजूद सामानों का, अभय के अंतिम समय की यादों का इन्तजार. 
  ये सिर्फ अभय की कहानी नहीं रही थी. ये सिर्फ इस नक्सली हमले के शहीदों की कहानी नहीं थी. ये कहानी थी, छत्तीसगढ़ के चिंतलनार, अम्बागढ़ चौकी, चिंतागुफा, किरंदुल के शहीदों की, उड़ीसा के मलकानगिरी, बालीमेला, कोरापुट के शहीदों की, पश्चिम बंगाल के सिलदा के शहीदों की, झारखण्ड के सारंडा जंगल के शहीदों की, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के शहीदों की, यही कहानी तो होती है पाकिस्तान, चीन की सीमा के कई सैनिकों की, कश्मीर के सेना के जवानों की. यही नहीं कुछ ऐसी ही कहानी होती है, अफगानिस्तान में, इराक में शहीद जवानों की भी. ऐसी ही कहानी होगी भविष्य के शहीदों की भी जब तक कि लोग न समझ लें कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं होती.    
  हो सकता है सभी शहीदों की अपनी कोई सरू न हो लेकिन सबके अपने माँ-पिताजी, भाई-बहन तो होते ही हैं, जान न्यौछावर करने वाले दोस्त होते ही हैं. हो सकता है सभी की जेब में अपनों के लिये लिखा कोई पत्र न रहा हो पर उनके दिल तो भावों से भरे होते ही हैं और सभी शहीदों की जेब में जो भी रहा हो वो उनके घरवालों के लिये उनकी अंतिम याद होता है. अंतिम याद! जो हर बार उसे देखने वाले को रुला देती है, पर फिर भी वे उसे सहेज कर रखते, बार बार देखते और बार बार रोते हैं. अभय और सरू के साथ ये भी न हो सका.
  सरू भी अभय की अंतिम निशानियों के इंतजार में थी, लेकिन हमले के दो दिन बाद अभय की, और बाकी सभी शहीदों की खून से लथपथ वर्दियां मय बैज, जूतों और गैर कीमती सामानों के अस्पताल के पीछे कूड़े के ढेर में पाई गई. जिन्हें जवानों के पोस्टमार्टम के बाद लावारिस मान घोर असंवेदनशीलता से फेंक दिया गया था. आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहा.
  शहीदों के वे अवशेष- जो किसी सरू, किसी माँ, किसी पिता के लिये अपनी जान से बढ़कर अपने की निशानी होते. वर्दियां- जिन्हें अपने अंक में भर वे अपने उस ‘अपने’ के होने को महसूस करते. उसके अंतिम समय के कष्ट की कल्पना कर बिलखते. बैज- जिसे किसी सीले दिन में सीला मन लिये कोई सरू, माँ, या पिता संदूक के किसी कोने से निकाल कर सालों बाद भी जबरदस्ती सिले जख्मों की टीस में रो पड़ते. वो सब यूँ ही कूड़े में पड़े थे.
  जब सरू को अभय के अवशेष मिलते. अभय की जेब में रखी वह चिट्ठी मिलती, तो वह भी रोती, इस चिट्ठी को लेकर. वह चिट्ठी को सहेजती, बार-बार देखती और बार-बार रोती; अभय की उसके लिये लिखी कविता पढ़ कर, लेकिन कभी भी सरू को यह चिट्ठी नहीं मिल सकी. जब सरू अभय की याद में बिलख रही थी, उसकी निशानियों के इन्तजार में थी, तब अभय की सरू को लिखी वो चिट्ठी, गर्भपात से निकले एक भ्रूण के कोने से दबी हवा में फड़फड़ा रही थी.
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Monday 9 January 2017

मुक्ति और भय

दैनिक जागरण के साहित्यिक परिशिष्ट १४/१२/१५ में प्रकाशित कहानी
                                         
वह पिछले पैतीस वर्षों से रोज अपने ऑफिस में कलम घिसते आ रहे थे, इस आशा में कि यह घिसाई शायद किसी के हित का हेतु बन जाये, पर उनकी यह घिसाई फाइलों के लाल फीते से बंध कर रह जाती या किसी और की कलम घिसाई के नीचे दब जाती. वे रोज मजबूर लोगों को व्यवस्था की चक्की में पिसते देखते, ईमानदारी पर बेईमानी की जीत देखते. शाम तक उनकी जीवन उर्जा क्षीण हो उठती. उन्हें लगता कि वे अभी इसी वक्त इस व्यवस्था के मुंह पर अपना इस्तीफ़ा मार कर फिर कभी वापस न आने के लिए निकल जाएँ. इस दुर्दमनीय इच्छा के बावजूद हर महीने एक तारीख को मिलने वाला वेतन उनके क़दमों की गिरह बन जाता.
वे जब चुक कर शाम को घर वापस आते तो घर का कोई सदस्य उनके इंतजार में न रहता. बहू-बेटे, पोतों की अपनी जिंदगी थी. हां, जब पत्नी थी, तो वह रोज पलक-पांवड़े बिछाए इंतजार करते जरूर मिलती थीं. अब उनकी बगिया ही उनकी जीवन उर्जा थी. उनके घर आते ही बगिया की बेलें नृत्य-निपुण नायिका सी बल खाती उनका स्वागत करतीं. अमलताश की सूखी फलियाँ घुंघरुओं सी बज उठतीं. वे चिड़ियाँ चहकने लगतीं जिन्हें वह रोज सुबह दाना देते. बेला, जूही, मोगरा खुशबू बिखेरने लगते. अमलताश, पारिजात अपनी शाखाएं हिलाने लगते. उनसे निकलती ठंडी हवायें उनके तन-मन को राहत पहुँचाने लगती. वे अपने आज और कल के लिए जीवन उर्जा बटोरने लगते.
हर सुबह वह बगिया से बटोरी कुछ उर्जा बगिया की सेवा में लगाते. जिसे बगिया कई गुना करके हर शाम लौटा देती. वे सुबह पौधों की निराई- गुड़ाई करते, खाद-पानी देते, चिड़ियों के लिए दाना डालते, सूखी पत्तियां हटाते. पौधों में नयीं कलियाँ आती तो वे ऐसे खुश हो जाते जैसे घर पर कोई नन्हा मेहमान आने वाला हो. एक दिन वे सेवानिवृत्त हो गए. जीवन उर्जा क्षीण होने का कारण ख़त्म होने से भी उनका जीवन उत्साह से नहीं भरा.
यूँ ही उनकी सपाट सी जिंदगी बगिया भरोसे चलती रही. एक दिन उनकी बगिया में घोंघों का आतंक छा गया. पहले घोंघे इक्के-दुक्के दिखते रहे. कुछ ही दिन में वे सैकड़ों की संख्या में दिखने लगे. बगिया में रखा कोई भी पत्थर उठाने पर उसके नीचे सैकड़ों की संख्या में घोंघे के अंडे मिलते. बारिश होती तो ये घोंघे गीली दीवार में किसी कलाकृति से जम जाते, ये घोंघे पौधों की सारी पत्तियाँ चर जाने लगे. पेड़ों की छाल खा जाने लगे. इन घोंघों की वजह से उनकी बगिया उजड़ने लगी.
शुरू में तो वह जब भी घोंघा दिखता, उसे कुचल कर मार देते, लेकिन एक-एक घोंघे को कुचल कर मारना सैकड़ों घोंघों के लिए कोई कारगर इलाज नहीं था. अब वे रोज सुबह एक बाल्टी लेते, इसमें घोंघे इकट्ठे करते, फिर उन पर नमक बुरक देते. नमक डालते ही घोंघे ऐसे गलने लगते, जैसे उनपर तेज़ाब डाल दिया हो. बगिया जो उन्हें जीवन उर्जा देती थी, उसने अब उन्हें जीवनहर्ता बना दिया. हर रोज वे घोंघों में नमक डाल उन्हें पसीजते, बुलबुले छोड़ते, लसलसे पानी में बदलते देखते. इसे देखते हुए एक घिनौने आनंद, परपीड़क सुख से भरते जाते, जो उनके दिल में एक तीखी सी चुभन भी भर देता.
यूँ घोंघों से लड़ते–लड़ते उन्होंने एकदिन पाया कि वे भी घोंघा हो गए हैं. लिजलिजा, घिनौना, चिपचिपा घोंघा. जिसके एंटीना किसी के अपनेपन भरे स्पर्श के लिए, बातों के लिए तरसते हैं, हवा में हिलते-डुलते, कांपते रहते हैं. पूरा शरीर लिजलिजी सी, झुर्रियों भरी, ढीली, नम खाल से ढंका हुआ. आँखों के पोरों से रिसती नमी, होठों के कोनों से रिसती लार का लसलसापन उनके पूरे वजूद पर छाया हुआ. वह घर में जहाँ जाते, मानों उस लसलसे, चिपचिपे, घिनौने द्रव की लकीर खिंच जाती. जिससे घर के सभी सदस्य चार हाथ दूर से बच कर चलते.
उनकी बगिया में जैसे घोंघा अवांछित तत्व था, वैसे ही घर में अब वे अवांछित थे. बस अंतर यह था कि घोंघा बगिया के हर कोने में मौजूद था और वे एक कमरे तक सीमित. एक कमरे में सीमित होते हुए भी उनका वजूद घर के सदस्यों के लिए चहुँओर व्याप्त था. बच्चों को उनके कारण पढ़ने के लिए अलग कमरा नहीं मिल पा रहा था, बहू कमरे में उनकी उपस्थिति के अहसास से बैठक में भी अपनी सहेलियों के साथ खुलकर बातें नहीं कर पाती थी, बेटा अपने सोने के कमरे में उनके खांसने की आवाज से परेशान हो अपनी नींद पूरी नहीं कर पाता था.
घरवालों को परेशानी होती कि उन्होंने खाने के बाद अपनी थाली सिंक में सही जगह नहीं रखी, समाचार पत्र पढ़ने के बाद सही तरीके से नहीं मोड़ा, अपना चश्मा बैठक की सेंटर टेबल पर ही छोड़ दिया, पोते के दोस्त से बात करने की कोशिश की, बेटे को ऑफिस के लिए निकलते वक्त अपनी दवाइयां लाने के लिए टोक दिया, बहू की सहेली की उपस्थिति में कांटे चुभते गले को राहत देने, रसोई में जाने के लिए कमरे से बाहर निकल आये. उनका घोंघे का वजूद पूरे घर के कोने कोने में फैला हुआ था. एक दिन बहू ने आखिर कह ही दिया-
“मैं इस घोंघों से भरे घर में नहीं रह सकती. मुझे घिन आती है. पूरा घर लसलसा, चिपचिपा सा हो गया है.”
बेटे ने अपनी चुप्पी से उसका समर्थन और उसकी मजबूरी दोनों ही जता दी.
सालों पहले वह एक सीप थे. जो हर महीने एक खूबसूरत, चमकदार, अनगढ़ मोती ले कर घर आते थे. उनकी पत्नी इस मोती को तराश कर सबकी जरूरतें पूरी करती और तराशी हुई मोती भविष्य के लिए बचाकर रख लेती. जब तक वह थी, उन्हें किसी चीज के लिए कहना नहीं पड़ता था. उनकी सारी जरूरतें बिन कहे ही पूरी हो जाती थी.
उस वक्त उन्हें यह आभास भी नहीं था, कि उनका वजूद कभी घोंघे में बदल जायेगा. हर वक्त तरसता, अपने एंटीना हिलाता हुआ. कभी पानी के लिए, कभी खाने के लिए, कभी दवाइयों के लिए, कभी टूटे चश्मे के लिए, कभी एक आश्वस्त करते स्पर्श के लिए, तो कभी एक प्यार भरी नजर के लिए.
कल ही तो बहू के पास उसकी एक सहेली आई थी. वह बता रही थी कि शहर में सारे घोंघों के लिये एक आश्रम खुल गया है, जहाँ घोंघों की सुविधा की सारी चीजें हैं. उन्हें लगा कि उन्होंने गाँव में साधन न होने के नाम पर बचपन होस्टल में गुजारा था और सुविधा के नाम पर बुढ़ापा आश्रम में गुजारेंगे. हर कमरे में लाइन से लगे बिस्तरों पर विराजमान एक-एक घोंघा. अपनेपन भरे स्पर्श के लिए तरसता एंटीना, हिलाता हुआ.
उनका मन हुआ कि पूछें, “क्या शहर में घोंघा घुलन गृह नहीं खुला? जहाँ शहर के सारे घोंघों को इकठ्ठा कर उनके ऊपर नमक डाल दिया जाये. जहाँ सारे घोंघे इस नमक में पसीज कर, बुदबुदाते, बुलबुले छोड़ते, लसलसे पानी में बदल जाएँ. मिट्टी-पानी की देह मिट्टी-पानी में मिल जाये और तुम सब चैन की नींद सो सको.”
बहू की सहेली से ऐसा पूछना तो घर भर में घोंघे का लसलसापन लबालब भर देना होता. जिसमे घुट कर सबसे पहले वे ही मर जाते.
उनके अपने कमरे में कैद हो जाने के बाद बगिया में घोंघो का आतंक घर की सीमा पार करने लगा तो एक दिन घोंघों को मारने की जिम्मेदारी उनके बेटे ने उठा ली. उसी शाम पोते ने बेटे से पूछा, ”पापा! आप बुड्ढ़े और पागल हो गए हो?”
“नहीं तो क्यों?” अचकचा कर बेटे ने पूछा.
“माँ दादा को कहती थी कि बुड्ढा घोंघा उठाने के लिए पागल है. अब आप घोंघा उठा रहे हो, तो आप भी बुड्ढ़े और पागल हो”
बेटे और बहू को ये सुन एक बारगी लगा कि वे दोनों भी भविष्य में घोंघे में बदल जायेंगे. तरसते, एंटीना हिलाते घोंघे. बस वह पल था कि भविष्य से भयभीत बेटे-बहू के लिए वह ‘वह’ बन गए.
उसी रात उन्होंने पाया कि एक घोंघा बिस्तर पर पड़ा है और वह वापस ‘वह’ बन गए हैं. उस दिन बहू उनके चरणों के पास बैठी रही, उनके पैरों पर अपना सिर भी रख दिया, बेटे ने आंसू भरी आँखों से उनका चेहरा अपने हाथों में ले लिया, बच्चों ने उनके हाथ अपने हाथों में ले लिए. उनके वही घोंघे की लिजलिजी सी झुर्रियों से भरे और ढीली खाल से ढंके पैर, उनकी आँखों के पोरों से रिसती लसलसी नमी, होठों के कोनों से रिसती लसलसी लार और लिजलिजी खाल से भरा चेहरा, किसी के अपनेपन भरे स्पर्श के लिए तरसते, कांपते उनके झुर्रियों भरे दोनों हाथ.
वह देखते रहे सब कुछ फिर एक तेज ज्योतिपुंज आया, जिसमें विलीन हो, वे सब से दूर जाने लगे. उन्होंने जाते हुए देखा कि उनके जिस घिनौने घोंघे के वजूद से घिनाते हुए, सब चार हाथ दूर से बच कर निकलने की कोशिश करते थे, उसी घोंघे के कवच को उन्होंने तस्वीर में फ्रेम करा भगवान के पास रख दिया है. भगवान की पूजा करते वक्त दो बार उनके कवच के सामने भी अगरबत्ती फेर लेते हैं. उन्होंने बच्चों को भी सीखा दिया है लेकिन उनके बेटे बहू को यह अहसास नही है कि दर्शनशास्त्र के अनुसार सिखाना और संस्कार देना दो अलग-अलग बातें हैं.
दूर बहुत दूर जाते हुए यह सब देख वे व्यंग्य से मुस्कुराते रहे कि अब उनकी पूजा क्यों न की जाये. अब वे लिजलिजे, चिपचिपे, लसलसे, घिनौने घोंघे नहीं रहे, उन्होंने खुद मुक्त हो, उन सबको मुक्ति जो दे दी है. इधर आगामी पीढ़ी को संस्कार देने का बहुमूल्य समय गँवा, बेटे-बहू भविष्य से भयभीत हो बच्चों को अक्सर सिखाते हैं कि बड़ों की बातें माननी चाहिए, उनकी सेवा करनी चाहिये.                                                                                      

हथेली में उगा सूरज

सरिता के मई द्वितीय अंक २०१६ में प्रकाशित कहानी

पुरी के इस नयनाभिराम सागर तट पर उस समय भोर का तारा डूबा नहीं था, अंगड़ाई लेती हुई अलसभोर, मेरे आस-पास पसरी हुई थी और उषा रानी अपने मस्तक पर लाल टीका लगने का इंतजार कर रही थी. मैं अपने पावों के नीचे बिछी रेत की ठंडक को अपने मन की, शरीर की रग-रग में छाई बेचैनी के सोख्ता कागज में सोख रही थी. जिद्दी बच्चे से मचलते सागर की लहरों को अठखेलियां करते देख रही थी. अपनी हथेली पर सूरज उगाने की कोशिश कर रही थी. आदित ने मुझे यह सपना दिया था, यह विश्वास दिया था कि मैं अपनी हथेली में सूरज उगा सकती हूँ.
कुछ देर बाद अलसभोर अंगड़ाई लेते हुए उठ खड़ी हुई थी और मेरी हथेली में लाल-लाल सोने का गोला चमकने लगा था. सूरज के मेरी हथेली पर उगते ही आदित ने मेरी हथेली और सूरज को अपनी हथेलियों के घेरे में ले लिया था. उन्होंनें अपनी गहरी आश्वस्त करती आँखों से मुझे देखा. शरारती मुस्कान के साथ उनकी आवाज ने मेरे कानों में सरगोशियाँ की,
"ओ नीली जलपरी मैं तुम्हें चांदी सी चमकती रेत पर समुन्दर की उकेरी लहरें और चांदनी की साड़ी पहने देखना चाहता हूँ."
फिर आदित बच्चों के साथ खेलने चले गए. मुझे लगा था कि मेरी पहनी यह नीली-पीली लहरिया साड़ी रेतीली हो झर गई है. मेरे गाल लाल मूंगे की चट्टान से सुर्ख दहकने लगे और साथ में आदित की इन आश्वस्ति भरी आँखों से उन्हीं का मेरे मन में उगाया विश्वास का अंकुर वट वृक्ष बन गया कि मेरी हथेली में एक दिन सूरज उगेगा जरूर. आदित के बाँहों के घेरे में जैसे मैं खुद महफूज होती हूँ वैसे ही मेरी हथेली पर उगा सूरज भी महफूज रहेगा.
विश्वास ही तो जिंदगी है और मेरी जिंदगी में विश्वास भी तो आदित का ही दिया हुआ है. आदित हैं ही ऐसे. उस दिन मैं जाने कितने देर तक अकेले ही मुस्कुराते, आसमान से बातें करते, सागर को देखते, हथेली में सूरज उगाने का सपना संजोते बैठी रही थी.
 उस दिन मैं सोचती रही थी कि पुरी के इस सम्मोहित कर देने वाले सागर तट के किनारे दूर-दूर तक रेत ही रेत फैली दिखती है और रेत सा ही फैला दिखता है जनसमुद्र. यह रेत जाने किन-किन पहाड़ों के लाल, काले, पीले, सफ़ेद पत्थरों की परिणीति है जो गंगा से महानदी तक जाने किन-किन नदियों के साथ बह कर यहाँ आये होंगे, जो वक्त के पहियों के नीचे चूर-चूर हो रेत में बदल चुके हैं. इस जनसमुद्र के बहुत से लोगों के दिल में भी ऐसी ही रेत भरी हुई है. मेरे भी मन में भरी थी लेकिन बहुतों के दिल में सागर की झोली से बिखेरी शंख, सीपियाँ, मोती और कौड़ियाँ भरी हुई हैं. ये लोग कभी भी वक्त के पहियों के नीचे नहीं आये या फिर कभी आये भी तो इन्होनें वक्त के पहियों को अपनी विशिष्टता से फूल सा हल्का बना लया था तभी वक्त का पहिया इन्हें चूर-चूर नहीं कर सका. ऐसा ही है मेरा आदित.  
उस दिन मैं अहसास करती रही थी कि जीवन के सागर में सुखों और दुखों की छोटी बड़ी लहरें आती-जाती रहती हैं. इन लहरों में समस्याओं के बुलबुले भरे होते हैं. जिनके दिल वक्त के पहियों के नीचे चूर-चूर हो जाते हैं उन्हें ये बुलबुले शाश्वत सत्य लगते हैं और वक्त के पहिये को फूल सा हल्का बना देने वाले जानते हैं कि बुलबुलों का कुछ ही पल में फूट जाना ही शाश्वत सत्य है. ये अपनी झोली में सागर के बुलबुले नहीं भरते ये सागर की लाई सीपियाँ, कौड़ियां, शंख, मोती अपने दिल में बसा लेते हैं. ऐसे लोगों को हर लहर आने वाली दूसरी लहर का सामना करने के लिए मजबूत बनाती है, एक दिन ऐसे इंसान इतने मजबूत बन जाते हैं कि लहरों को पार करते हुए खुले समुद्र में पहुंच जाते हैं वहाँ लहरें नहीं होती. ऐसे लोगों का मन नीलाभ समुद्र के समान अथाह प्रेम से भरा और शांत होता है.
सागर अपनी झोली से सीप, शंख, मोती, कौड़ियों का खजाना एक लहर में इस दुनिया में बिखरा देता है अगली लहर में इनमें से कुछ समेट अपनी झोली में वापस ले आता है और अगली ही लहर में फिर से दुगना कर संसार को लूटा देता है. खुद कभी भी खाली नहीं होता है न ही दुनिया को खाली होने देता है. चारों ओर खुशियां ही खुशियां बिखेरता रहता है. हाँ! शंख सीपी मोती कौड़ी खुशियां ही तो है जिस किसी को जब कभी भी सागर किनारे ये मिलती है उसके चेहरे पर षष्ठी का चाँद खिला देती है.
उसदिन मैं कह रही थी आसमान से, "तुमने कभी दक्षिणावर्ती शंख का नाम सुना है. ईश्वर की पूजा में यही शंख बजाया जाता है. तुम्हें पता है अधिकांश शंख बाईं ओर से खुलते हैं पर दक्षिणावर्ती शंख दाईं ओर से खुलता है. बहुत विशिष्ट, बहुत शुभ होता है यह शंख. ऐसा ही मेरा आदित है. लाखों नहीं, करोड़ों नहीं, अरबों में एक."
उसदिन मैं पूछ रही थी रेत से, "अच्छा ये बताओ तुमने कभी शंख को कानों से लगा कर उसकी आवाज सुनने की कोशिश की है? सागर जब अपनी झोली से शंख रूपी खुशियां इस दुनिया को देता है तो शंख में अपनी आवाज बसा कर देता है. शंख को कानों से लगाने पर सागर की लहरों की गूंजती आवाज सुनाई देती है. आदित भी हर पल सागर के सामान खुशियाँ बांटते रहते हैं. इन ख़ुशियों में खुद बसे रहते हैं और इन ख़ुशियों के रास्ते सब के दिल में बस जाते हैं फिर कोई चाहे आदित से कितनी भी दूर क्यों न चला जाये अपने अंदर उनको बसा पाता ही है.”
उस दिन मैं याद कर रही थी कि आदित से मिलने से पहले तो मैं जिंदगी जीना नहीं दुःख जीना जानती थी. किसी ख़ुशी के पल में भी यह सोच के खुश नहीं होती थी कि इतनी ख़ुशी मुझे मिल रही है, कहीं यह तूफ़ान से पहले की शांति तो नहीं है. मेरा भरा-पूरा परिवार था, अच्छी सी नौकरी थी पर तब भी वही वह समय था जब मैं खुद को हर पल उदासी के सागर में डूबता महसूस करती थी, समस्याओं के बुलबुलों से घिरा पाती थी. खुद को अधूरी पाती थी. ऐसे ही किसी उदास पल में मैं अपनी उदासी को सागर की लहरों में डुबाने की आशा से लम्बी छुट्टी ले पुरी चली आई थी.
रोज सुबह शाम सागर तट पर आकर बैठ जाती. सूर्योदय देखती, सूर्यास्त देखती और देखती लहरों का तूफ़ान. उस वक्त उगता हुआ सूरज मुझे आग का गोला लगता जो अचानक बढ़ते हुए मुझे अपने में समां लेगा और भस्म कर डालेगा. नीले समंदर की लहरें मुझे नीली व्हेलें लगती जो अपना मुंह खोले मुझे निगलने दौड़ती आ रही हों फिर भी मैं इन्हें देखने रोज आती, शायद एक दिन ऐसा हो जाये और मुझे मुक्ति मिल जाये की दुर्जय इच्छा में ही. मैं परेशान थी अपनी तबियत से, मुझे गर्भाशय की टी.बी. हो गई थी. मम्मी पापा मुझे बहुत प्यार करते थे पर मैं खुद से प्यार नहीं करती थी.
बस इन्ही दिनों में मैंने जिंदगी को देखा, खुशियों को देखा, प्यार को देखा, आदित को देखा. जब मैंने पहली बार आदित को देखा तो वह उस शाम एक गुब्बारे वाले से सारे गुब्बारे ले कर बच्चों में बाँट रहे थे. ये बच्चे थे, सागर तट पर पर लहरों के साथ बहकर आये पैसों, गहनों की तलाश में घूमने वाले, छुटपुट समान बेचने वाले, भीख मांगने वाले बच्चे. उस दिन के बाद हर रोज, सुबह-शाम मुझे आदित सागर तट पर दिखने लगे.
अगले दिन सुबह एक बड़ी सी बॉल ले आये थे आदित और साथी थे वे ही बच्चे. तीसरे दिन उन्होंने उन सबको एक ठेले में झींगा पार्टी दी थी. मैंने देखा वह हर रोज आते और बच्चों के साथ एक उत्सव मना, उनके चेहरे दमका कर वापस लौट जाते. मुझे सोच में छोड़ जाते कि जाने कितनी खुशियां हैं इस बन्दे के पास और एक मैं हूँ खुशियों से महरूम सी.
धीरे-धीरे मुझे आदित की और आदित की एक गहरी नजर की आदत सी पड़ गई थी. नजर जो कुछ कहना चाहती थी पर कह नहीं पाती थी. रोज आदित को यूँ खुले हाथों से अपनी झोली से खुशियां बांटते देख मैं सम्मोहित होती चली गई. इसी सम्मोहन में एक दिन उनके पास जाकर बोल पड़ी,
"कितनी खुशियां हैं आपकी झोली में, मुझे भी कुछ ख़ुशी मिल सकेगी क्या?"
आदित से जवाब में एक गहरी, दिल तक उतर जाने वाली नजर मिली थी मुझे और मिला था यह जवाब,
"जीवन में तो पग-पग पर खुशियां बिखरी हैं, आप उन्हें चुनिए तो सही.”
फिर हँसते हुए बच्चों की तरफ इशारा करते हुए कहा था,
"हाँ हैं लेकिन सुबह का एक घंटा आपको हमें देना होगा."
मैंने न हाँ कहा न ना, बस मुस्कुरा कर रह गई थी. अगले दिन सुबह मैं सागर तट पर पहुंची तो आदित बच्चों के साथ रेत के घरौंदे बना रहे थे. मुझे घरौंदे सजाने का काम दिया गया. मुझे बचपन याद आ गया. मैंने बड़े जतन से तट से सीपी, शंख, कौड़ियाँ, रंग-बिरंगे पत्थर चुन-चुन कर घरौंदे सजाये. तब समुद्र की लहरें मुँह खोले बढ़ती आ रही नीली व्हेल नहीं. शंख, सीपी, कौड़ियों का खजाना लग रहीं थीं. वापस जाते हुए आदित ने मुड़ कर अपनी गहरी नज़रों से देखते हुए कहा था,
"तट पर तो रेत और सीपिया दोनों ही बिखरी हैं लेकिन तुमने घरौंदे सजाने के लिए सीपियाँ ही चुन-चुन कर उठाई. बस यही तो अपनी जिंदगी में भी करना है.”
यह बात तो मैं पहले भी जानती थी पर शायद आदित की गहरी नज़रों का प्रभाव था. ये पंक्तियाँ गज़र के घंटे बन मेरे दिमाग में बजने लगी. जाने कितने देर मैं बुत बने बैठी रही, जब मैंने लहरों की ओर देखा तो नीली व्हेलें नहीं उमड़ती फेनिल जलराशि ही दिखी.
अगले दिन आदित ने मेरा और बच्चों का उगते सूरज के साथ फोटो शूट कराया. सूरज का गोल-गप्पा बना मुँह में रखते हुए, सूरज के ऊपर से छलांग लगाते हुए, सूरज को अपनी चुटकी में पकड़ते हुए, हम सारे के सारे एक साथ सूरज को छूते हुए. कैसा अजीब सा सम्मोहन था उनका कि उस दिन के बाद मेरे लिए सूरज भी मुझे निगलने को आतुर आग का गोला न रहा अपितु वह मेरे माथे का टीका बन गया जिसे लगाने के लिए आदित ने अपने हाथों से मेरे सिर और ठोडी को थाम कर हल्का सा घुमाया था.
उस दिन से मैं रोज रात को सोती सुबह होने का इंतजार करते हुए और सुबह सागर तट से वापस आती शाम का इंतजार करते हुए. आदित के लिए सम्मोहन बढ़ता ही गया, खूब बातें होने लगीं. दिल थम-थम के कहता रहता,
“क्या मुझे उनसे प्यार हो रहा है?
पर दिमाग दिल को चुप करा देता था. उसके परिवार में भी मम्मी, पापा और छोटा भाई थे, मेरे भी. वह भी इंजीनियर था मैं भी, यहाँ तक कि दोनों का पैकेज भी समान था. मैं अक्सर अपनी पुरानी सोच में उलझ कर सोचती कि ऐसा क्या है आदित के पास? जो मेरे पास नहीं है. फिर आदित की झोली हरदम खुशियों से भरी क्यों रहती है? मैंने उनसे फिर से पूछा भी था. उन्होंने वही पहले दिन की बात दोहरा दी थी कि आद्या इस सागर तट को देखो यहाँ रेत भी बिखरी है और शंख, सीपी और कौड़ी भी, यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुनती हो. उन्होंने फिर से मुझे अचंभित छोड़ दिया
"इतना आसान जवाब?"
रात भर सोचती रही थी फिर अपनी दुखों की पोटली से कारण भी निकाल लिया था कि आदित मेरी तरह तबियत से परेशान नहीं हैं इसीलिए आसानी से कह सकते हैं कि ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुनती हो. मेरी खुश न हो सकने की ग्लानि एक कारण पाते ही संतुष्ट हो गई. मैं नींद में खो गई थी. सुबह सागर तट पर आदित से मिली तो उनकी आँखों में लाल डोरे उलझे हुए थे. उनकी ऑंखें आज कुछ कह रही थी जिन्हें मैं समझते हुए भी समझना नहीं चाह रही थी.
उस दिन उन्होंने मुझसे कहा, "आद्या मेरे पास चार पत्थर हैं मेरे गुर्दे में, अब ये तुम पर है कि तुम इनसे क्या बनाना चाहती हो पुल या दीवार.”
मैं मेरे पास खुश न रहने के ठोस कारण के पहाड़ से नीचे आ गिरी थी कि आदित के पास भी तो तबियत ठीक न होने का कारण है फिर भी आदित खुश रहते है. तुरंत कारण भी ढूंढ़ लाई थी- इससे आदित अधूरे तो नहीं रह जायेंगे. पर मैं? डॉक्टर ने कहा है कि शायद मैं कभी माँ न बन पाऊँ. मैंने हमारे बीच दीवार बनानी चाही थी. हमारे कई दिन पाषाणवत बैठे, ढलते सूरज को देखते, समंदर की लहरों को रात के काले आगोश में समाते देखते बीते.
एक दिन मैंने आदित के सामने मन की गुत्थी खोल कर रख दी. बता दिया उन्हें-
"मेरे गर्भाशय में टी.बी. है शायद मैं कभी माँ न बन सकूँ."
मैंने सोचा था हमारे बीच सन्नाटा खींच जायेगा पर तुरंत जवाब आया था.
"तो बच्चा गोद ले लेंगे."
उन्होंने फिर से मुझे अचंभित छोड़ दिया था- इतना आसान जवाब?  पर ये इतना आसान तो नहीं होता न. लेकिन ये उनके लिए वाकई में आसान ही था और उन्होंने मेरे लिये भी इसे आसान बना दिया.

पांच साल बाद आज मैं फिर पुरी के उसी सागर तट पर जिद्दी बच्चे से मचलते सागर की अठखेलियाँ करती लहरों के पास बैठी 'मनु' की अठखेलियाँ देख रही हूँ. आज पावों के नीचे बिछी रेत की ठंडक मेरे मन की ठंडक से मिल रही है. उस दिन आदित ने मुझे एक बात और समझाई थी कि इस दुनिया में कोई भी पूर्ण नहीं है, सभी कोई अपने अधूरेपन के साथ जी रहे हैं तो खुद को अपूर्ण मानते हुए जिंदगी की खुशियों से दूर भागना क्यों. आज मेरी गोद में चार साल पहले उगा यह सूरज 'मनु' उस सूरज के ऊपर से छलांग मारते हुए हमारी बाँहों के घेरे में झूल गया है और वह सूरज हमारी बाँहों के घेरे में आकर 'मनु' के मस्तक का टीका बन गया है.