सरिता के मई द्वितीय अंक २०१६ में प्रकाशित कहानी
पुरी के इस नयनाभिराम सागर तट पर उस समय भोर का
तारा डूबा नहीं था, अंगड़ाई लेती हुई अलसभोर, मेरे आस-पास पसरी हुई थी और उषा रानी अपने मस्तक पर लाल टीका लगने का
इंतजार कर रही थी. मैं अपने पावों के नीचे बिछी रेत की ठंडक को अपने मन की,
शरीर की रग-रग में छाई बेचैनी के सोख्ता कागज में सोख रही थी.
जिद्दी बच्चे से मचलते सागर की लहरों को अठखेलियां करते देख रही थी. अपनी हथेली पर
सूरज उगाने की कोशिश कर रही थी. आदित ने मुझे यह सपना दिया था, यह विश्वास दिया था कि मैं अपनी हथेली में सूरज उगा सकती हूँ.
कुछ देर बाद अलसभोर अंगड़ाई लेते हुए उठ खड़ी हुई थी
और मेरी हथेली में लाल-लाल सोने का गोला चमकने लगा था. सूरज के मेरी हथेली पर उगते
ही आदित ने मेरी हथेली और सूरज को अपनी हथेलियों के घेरे में ले लिया था. उन्होंनें
अपनी गहरी आश्वस्त करती आँखों से मुझे देखा. शरारती मुस्कान के साथ उनकी आवाज ने
मेरे कानों में सरगोशियाँ की,
"ओ नीली जलपरी मैं तुम्हें चांदी सी चमकती
रेत पर समुन्दर की उकेरी लहरें और चांदनी की साड़ी पहने देखना चाहता हूँ."
फिर आदित बच्चों के साथ खेलने चले गए. मुझे लगा था
कि मेरी पहनी यह नीली-पीली लहरिया साड़ी रेतीली हो झर गई है. मेरे गाल लाल मूंगे की
चट्टान से सुर्ख दहकने लगे और साथ में आदित की इन आश्वस्ति भरी आँखों से उन्हीं का
मेरे मन में उगाया विश्वास का अंकुर वट वृक्ष बन गया कि मेरी हथेली में एक दिन सूरज
उगेगा जरूर. आदित के बाँहों के घेरे में जैसे मैं खुद महफूज होती हूँ वैसे ही मेरी
हथेली पर उगा सूरज भी महफूज रहेगा.
विश्वास ही तो जिंदगी है और मेरी जिंदगी में
विश्वास भी तो आदित का ही दिया हुआ है. आदित हैं ही ऐसे. उस दिन मैं जाने कितने
देर तक अकेले ही मुस्कुराते, आसमान से बातें करते, सागर को देखते, हथेली में सूरज उगाने का सपना संजोते
बैठी रही थी.
उस दिन मैं
सोचती रही थी कि पुरी के इस सम्मोहित कर देने वाले सागर तट के किनारे दूर-दूर तक
रेत ही रेत फैली दिखती है और रेत सा ही फैला दिखता है जनसमुद्र. यह रेत जाने
किन-किन पहाड़ों के लाल, काले, पीले,
सफ़ेद पत्थरों की परिणीति है जो गंगा से महानदी तक जाने किन-किन
नदियों के साथ बह कर यहाँ आये होंगे, जो वक्त के पहियों के
नीचे चूर-चूर हो रेत में बदल चुके हैं. इस जनसमुद्र के बहुत से लोगों के दिल में
भी ऐसी ही रेत भरी हुई है. मेरे भी मन में भरी थी लेकिन बहुतों के दिल में सागर की
झोली से बिखेरी शंख, सीपियाँ, मोती और
कौड़ियाँ भरी हुई हैं. ये लोग कभी भी वक्त के पहियों के नीचे नहीं आये या फिर कभी
आये भी तो इन्होनें वक्त के पहियों को अपनी विशिष्टता से फूल सा हल्का बना लया था
तभी वक्त का पहिया इन्हें चूर-चूर नहीं कर सका. ऐसा ही है मेरा आदित.
उस दिन मैं अहसास करती रही थी कि जीवन के सागर में
सुखों और दुखों की छोटी बड़ी लहरें आती-जाती रहती हैं. इन लहरों में समस्याओं के
बुलबुले भरे होते हैं. जिनके दिल वक्त के पहियों के नीचे चूर-चूर हो जाते हैं
उन्हें ये बुलबुले शाश्वत सत्य लगते हैं और वक्त के पहिये को फूल सा हल्का बना
देने वाले जानते हैं कि बुलबुलों का कुछ ही पल में फूट जाना ही शाश्वत सत्य है. ये
अपनी झोली में सागर के बुलबुले नहीं भरते ये सागर की लाई सीपियाँ, कौड़ियां, शंख, मोती अपने दिल
में बसा लेते हैं. ऐसे लोगों को हर लहर आने वाली दूसरी लहर का सामना करने के लिए
मजबूत बनाती है, एक दिन ऐसे इंसान इतने मजबूत बन जाते हैं कि
लहरों को पार करते हुए खुले समुद्र में पहुंच जाते हैं वहाँ लहरें नहीं होती. ऐसे
लोगों का मन नीलाभ समुद्र के समान अथाह प्रेम से भरा और शांत होता है.
सागर अपनी झोली से सीप, शंख, मोती, कौड़ियों का खजाना
एक लहर में इस दुनिया में बिखरा देता है अगली लहर में इनमें से कुछ समेट अपनी झोली
में वापस ले आता है और अगली ही लहर में फिर से दुगना कर संसार को लूटा देता है.
खुद कभी भी खाली नहीं होता है न ही दुनिया को खाली होने देता है. चारों ओर खुशियां
ही खुशियां बिखेरता रहता है. हाँ! शंख सीपी मोती कौड़ी खुशियां ही तो है जिस किसी
को जब कभी भी सागर किनारे ये मिलती है उसके चेहरे पर षष्ठी का चाँद खिला देती है.
उसदिन मैं कह रही थी आसमान से, "तुमने कभी दक्षिणावर्ती शंख का नाम सुना है. ईश्वर की पूजा में यही शंख
बजाया जाता है. तुम्हें पता है अधिकांश शंख बाईं ओर से खुलते हैं पर दक्षिणावर्ती
शंख दाईं ओर से खुलता है. बहुत विशिष्ट, बहुत शुभ होता है यह
शंख. ऐसा ही मेरा आदित है. लाखों नहीं, करोड़ों नहीं, अरबों में एक."
उसदिन मैं पूछ रही थी रेत से, "अच्छा ये बताओ तुमने कभी शंख को कानों से लगा कर उसकी आवाज सुनने की कोशिश
की है? सागर जब अपनी झोली से शंख रूपी खुशियां इस दुनिया को
देता है तो शंख में अपनी आवाज बसा कर देता है. शंख को कानों से लगाने पर सागर की
लहरों की गूंजती आवाज सुनाई देती है. आदित भी हर पल सागर के सामान खुशियाँ बांटते
रहते हैं. इन ख़ुशियों में खुद बसे रहते हैं और इन ख़ुशियों के रास्ते सब के दिल में
बस जाते हैं फिर कोई चाहे आदित से कितनी भी दूर क्यों न चला जाये अपने अंदर उनको बसा
पाता ही है.”
उस दिन मैं याद कर रही थी कि आदित से मिलने से पहले
तो मैं जिंदगी जीना नहीं दुःख जीना जानती थी. किसी ख़ुशी के पल में भी यह सोच के
खुश नहीं होती थी कि इतनी ख़ुशी मुझे मिल रही है, कहीं यह
तूफ़ान से पहले की शांति तो नहीं है. मेरा भरा-पूरा परिवार था, अच्छी सी नौकरी थी पर तब भी वही वह समय था जब मैं खुद को हर पल उदासी के
सागर में डूबता महसूस करती थी, समस्याओं के बुलबुलों से घिरा
पाती थी. खुद को अधूरी पाती थी. ऐसे ही किसी उदास पल में मैं अपनी उदासी को सागर
की लहरों में डुबाने की आशा से लम्बी छुट्टी ले पुरी चली आई थी.
रोज सुबह शाम सागर तट पर आकर बैठ जाती. सूर्योदय
देखती,
सूर्यास्त देखती और देखती लहरों का तूफ़ान. उस वक्त उगता हुआ सूरज
मुझे आग का गोला लगता जो अचानक बढ़ते हुए मुझे अपने में समां लेगा और भस्म कर
डालेगा. नीले समंदर की लहरें मुझे नीली व्हेलें लगती जो अपना मुंह खोले मुझे
निगलने दौड़ती आ रही हों फिर भी मैं इन्हें देखने रोज आती, शायद
एक दिन ऐसा हो जाये और मुझे मुक्ति मिल जाये की दुर्जय इच्छा में ही. मैं परेशान
थी अपनी तबियत से, मुझे गर्भाशय की टी.बी. हो गई थी. मम्मी
पापा मुझे बहुत प्यार करते थे पर मैं खुद से प्यार नहीं करती थी.
बस इन्ही दिनों में मैंने जिंदगी को देखा, खुशियों को देखा, प्यार को देखा, आदित को देखा. जब मैंने पहली बार आदित को देखा तो वह उस शाम एक गुब्बारे
वाले से सारे गुब्बारे ले कर बच्चों में बाँट रहे थे. ये बच्चे थे, सागर तट पर पर लहरों के साथ बहकर आये पैसों, गहनों
की तलाश में घूमने वाले, छुटपुट समान बेचने वाले, भीख मांगने वाले बच्चे. उस दिन के बाद हर रोज, सुबह-शाम
मुझे आदित सागर तट पर दिखने लगे.
अगले दिन सुबह एक बड़ी सी बॉल ले आये थे आदित और
साथी थे वे ही बच्चे. तीसरे दिन उन्होंने उन सबको एक ठेले में झींगा पार्टी दी थी.
मैंने देखा वह हर रोज आते और बच्चों के साथ एक उत्सव मना, उनके चेहरे दमका कर वापस लौट जाते. मुझे सोच में छोड़ जाते कि जाने कितनी
खुशियां हैं इस बन्दे के पास और एक मैं हूँ खुशियों से महरूम सी.
धीरे-धीरे मुझे आदित की और आदित की एक गहरी नजर की
आदत सी पड़ गई थी. नजर जो कुछ कहना चाहती थी पर कह नहीं पाती थी. रोज आदित को यूँ
खुले हाथों से अपनी झोली से खुशियां बांटते देख मैं सम्मोहित होती चली गई. इसी
सम्मोहन में एक दिन उनके पास जाकर बोल पड़ी,
"कितनी खुशियां हैं आपकी झोली में, मुझे भी कुछ ख़ुशी मिल सकेगी क्या?"
आदित से जवाब में एक गहरी, दिल तक उतर जाने वाली नजर मिली थी मुझे और मिला था यह जवाब,
"जीवन में तो पग-पग पर खुशियां बिखरी हैं,
आप उन्हें चुनिए तो सही.”
फिर हँसते हुए बच्चों की तरफ इशारा करते हुए कहा था,
"हाँ हैं लेकिन सुबह का एक घंटा आपको हमें
देना होगा."
मैंने न हाँ कहा न ना, बस मुस्कुरा कर रह गई थी. अगले दिन सुबह मैं सागर तट पर पहुंची तो आदित
बच्चों के साथ रेत के घरौंदे बना रहे थे. मुझे घरौंदे सजाने का काम दिया गया. मुझे
बचपन याद आ गया. मैंने बड़े जतन से तट से सीपी, शंख, कौड़ियाँ, रंग-बिरंगे पत्थर चुन-चुन कर घरौंदे सजाये.
तब समुद्र की लहरें मुँह खोले बढ़ती आ रही नीली व्हेल नहीं. शंख, सीपी, कौड़ियों का खजाना लग रहीं थीं. वापस जाते हुए
आदित ने मुड़ कर अपनी गहरी नज़रों से देखते हुए कहा था,
"तट पर तो रेत और सीपिया दोनों ही बिखरी हैं
लेकिन तुमने घरौंदे सजाने के लिए सीपियाँ ही चुन-चुन कर उठाई. बस यही तो अपनी
जिंदगी में भी करना है.”
यह बात तो मैं पहले भी जानती थी पर शायद आदित की
गहरी नज़रों का प्रभाव था. ये पंक्तियाँ गज़र के घंटे बन मेरे दिमाग में बजने लगी.
जाने कितने देर मैं बुत बने बैठी रही, जब मैंने लहरों
की ओर देखा तो नीली व्हेलें नहीं उमड़ती फेनिल जलराशि ही दिखी.
अगले दिन आदित ने मेरा और बच्चों का उगते सूरज के
साथ फोटो शूट कराया. सूरज का गोल-गप्पा बना मुँह में रखते हुए, सूरज के ऊपर से छलांग लगाते हुए, सूरज को अपनी चुटकी
में पकड़ते हुए, हम सारे के सारे एक साथ सूरज को छूते हुए. कैसा
अजीब सा सम्मोहन था उनका कि उस दिन के बाद मेरे लिए सूरज भी मुझे निगलने को आतुर
आग का गोला न रहा अपितु वह मेरे माथे का टीका बन गया जिसे लगाने के लिए आदित ने
अपने हाथों से मेरे सिर और ठोडी को थाम कर हल्का सा घुमाया था.
उस दिन से मैं रोज रात को सोती सुबह होने का इंतजार
करते हुए और सुबह सागर तट से वापस आती शाम का इंतजार करते हुए. आदित के लिए
सम्मोहन बढ़ता ही गया, खूब बातें होने लगीं. दिल थम-थम के
कहता रहता,
“क्या मुझे उनसे प्यार हो रहा है?”
पर दिमाग दिल को चुप करा देता था. उसके परिवार में
भी मम्मी,
पापा और छोटा भाई थे, मेरे भी. वह भी इंजीनियर
था मैं भी, यहाँ तक कि दोनों का पैकेज भी समान था. मैं अक्सर
अपनी पुरानी सोच में उलझ कर सोचती कि ऐसा क्या है आदित के पास? जो मेरे पास नहीं
है. फिर आदित की झोली हरदम खुशियों से भरी क्यों रहती है? मैंने
उनसे फिर से पूछा भी था. उन्होंने वही पहले दिन की बात दोहरा दी थी कि आद्या इस
सागर तट को देखो यहाँ रेत भी बिखरी है और शंख, सीपी और कौड़ी
भी, यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुनती हो. उन्होंने फिर
से मुझे अचंभित छोड़ दिया
"इतना आसान जवाब?"
रात भर सोचती रही थी फिर अपनी दुखों की पोटली से
कारण भी निकाल लिया था कि आदित मेरी तरह तबियत से परेशान नहीं हैं इसीलिए आसानी से
कह सकते हैं कि ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या चुनती हो. मेरी खुश न हो सकने की
ग्लानि एक कारण पाते ही संतुष्ट हो गई. मैं नींद में खो गई थी. सुबह सागर तट पर
आदित से मिली तो उनकी आँखों में लाल डोरे उलझे हुए थे. उनकी ऑंखें आज कुछ कह रही
थी जिन्हें मैं समझते हुए भी समझना नहीं चाह रही थी.
उस दिन उन्होंने मुझसे कहा, "आद्या मेरे पास चार पत्थर हैं मेरे गुर्दे में, अब
ये तुम पर है कि तुम इनसे क्या बनाना चाहती हो पुल या दीवार.”
मैं मेरे पास खुश न रहने के ठोस कारण के पहाड़ से
नीचे आ गिरी थी कि आदित के पास भी तो तबियत ठीक न होने का कारण है फिर भी आदित खुश
रहते है. तुरंत कारण भी ढूंढ़ लाई थी- इससे आदित अधूरे तो नहीं रह जायेंगे. पर मैं? डॉक्टर ने कहा है कि शायद मैं कभी माँ न बन पाऊँ. मैंने हमारे बीच दीवार
बनानी चाही थी. हमारे कई दिन पाषाणवत बैठे, ढलते सूरज को
देखते, समंदर की लहरों को रात के काले आगोश में समाते देखते
बीते.
एक दिन मैंने आदित के सामने मन की गुत्थी खोल कर रख
दी. बता दिया उन्हें-
"मेरे गर्भाशय में टी.बी. है शायद मैं कभी
माँ न बन सकूँ."
मैंने सोचा था हमारे बीच सन्नाटा खींच जायेगा पर
तुरंत जवाब आया था.
"तो बच्चा गोद ले लेंगे."
उन्होंने फिर से मुझे अचंभित छोड़ दिया था- इतना आसान
जवाब? पर ये इतना आसान तो नहीं होता न.
लेकिन ये उनके लिए वाकई में आसान ही था और उन्होंने मेरे लिये भी इसे आसान बना
दिया.
पांच साल बाद आज मैं फिर पुरी के उसी सागर तट पर
जिद्दी बच्चे से मचलते सागर की अठखेलियाँ करती लहरों के पास बैठी 'मनु' की अठखेलियाँ देख रही हूँ. आज पावों के नीचे
बिछी रेत की ठंडक मेरे मन की ठंडक से मिल रही है. उस दिन आदित ने मुझे एक बात और
समझाई थी कि इस दुनिया में कोई भी पूर्ण नहीं है, सभी कोई
अपने अधूरेपन के साथ जी रहे हैं तो खुद को अपूर्ण मानते हुए जिंदगी की खुशियों से
दूर भागना क्यों. आज मेरी गोद में चार साल पहले उगा यह सूरज 'मनु' उस सूरज के ऊपर से छलांग मारते हुए हमारी
बाँहों के घेरे में झूल गया है और वह सूरज हमारी बाँहों के घेरे में आकर 'मनु' के मस्तक का टीका बन गया है.
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