Tuesday 10 January 2017

हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी

 साहित्य अमृत युवा हिंदी कहानीकार प्रतियोगिता २०१५ में प्रथम स्थान प्राप्त कहानी 

  वह ओस से भीगी-धुली सुबह होगी; जब एक जंगल की पगडण्डी में हम यूँ ही टहलते हुए, बहुत दूर निकल जायेंगे. मैं एक खुमारी में चल रहा होऊंगा, तुम्हारे साथ की खुमारी में. तुम क्यों चलती रहोगी; ये मैं सोचना भी नहीं चाहता, क्योंकि जानता हूँ- तुम्हें पहाड़, जंगल, पेड़-पौधों का साथ, सूरज, नीला आसमान सब बहुत पसंद है. मेरे साथ यूँ चलते जाने में मेरे प्यार के अलावा, किसी भी कारण का होना सोच मैं इनसे ईर्ष्यालु नहीं होना चाहता. तुम मेरे साथ चल रही होगी, मेरे लिये यही बहुत है.
  वह पगडण्डी जब जंगल के अन्दर बहते हुए एक नाले के किनारे पड़े मोटे अनगढ़े पत्थरों में खो जाएगी, तो मेरी वह खुमारी टूटेगी. सामने दुधिया जल पत्थरों से मिल गाने गाता हुआ कल-कल बहता होगा. तब मुझे समझ में आएगा, कि तुम्हारे खुमार में खोये हुए, तुम्हें कहाँ ले आया हूँ. चारों ओर सागौन के, साल के बड़े–बड़े पेड़ होंगे. जिनके पत्तों की झिरी से सूरज की किरणें झर रही होंगी. तुम्हारे चेहरे पे पड़ती ये किरणें तुम्हारे चेहरे की चमक में खोती सी लगेंगी.
  पूरे वातावरण में घने जंगल की महक बिखरी हुई होगी. तुम लम्बी-लम्बी सांसे लेकर ये महक अपने अंतस में भर लेने की कोशिश करती रहोगी. इस महक के अलावा हमारे आस-पास होगी- पत्तों से फिसल कर जंगल की जमीन को चूमती ओस की बूंदों की टप-टप, हरे पत्तों की सरसराहट, पहाड़ी नाले की कलकल-छलछल, दूर कूकती कोयल की तान. तुम मुझे भूल कर पूरी तरह से जंगल के खुमार में खो जाओगी. मैं तुम्हारी चढ़ती-उतरती सांसों में खोया, तुम्हें देखता रहूँगा.
  तभी एकदम से परेशान होकर मैं तुमसे कहूंगा,
  “सरू ! चलो वापस चलते हैं, हम जंगल में बहुत अन्दर आ गए हैं.” 
  अगले ही पल मैं तुम्हारा हाथ पकड़ तेज-तेज चलना शुरू कर दूंगा. तुम मेरे हाथ पकड़ने से शरमाई हुई मेरे साथ खिंची चली आओगी. मेरी हथेली से घिरी अपनी पसीजती हथेली, धड़कता दिल और धौंकनी सी चलती सांसों के साथ.
   कुछ देर बाद चलते-चलते ही मैं तुमसे कहूँगा,
     “दरअसल पास ही कंही जंगल कोतवाल चिल्ला रहा है, फिर एक चीतल की चेतावनी भी आई, और नाले के उस पार के महुआ के पेड़ पर बैठे बन्दर भी चिल्लाने और उछल कूद करने लगे हैं.”
    तुम एक प्रश्न भरी नजर से मुझे देखोगी फिर नजरें वापस पगडण्डी पर टिका मेरे साथ चलती रहोगी, यह सोचते हुए कि बन्दर कब शांत बैठते हैं जो उन्हें उछल-कूद करते देख मैं यूँ भागने सा लगा?
   मैं आगे कह रहा होऊंगा. “उनकी हरकतों का मतलब है, कि तेंदुआ कहीं आसपास है.”
  यह सुन तुम्हारी धौंकनी सी चलती साँस तो रुक ही जाएगी; तुम अमलतास के पीले फूलों को मात देते पीले चेहरे से बोलोगी, “क्या! तेंदुआ यहाँ आ गया तो?”
  मैं तुम्हें आश्वस्त करते हुए कहूँगा, “नहीं, चिंता मत करो, तेंदुआ यहाँ से अभी दूर होगा. बन्दरों की चटर-पटर अभी इतनी ज्यादा नहीं है और वो हमारे से विपरीत दिशा में देख रहें हैं.”
  यह सुन तुम खिलखिला कर हँसते हुए, रुक कर कहोगी, “तुम्हें कैसे पता ? क्या तुम बंदरों की भाषा जानते हो ?”
  फिर थोड़ी नाराजगी से गुलमोहर की तरह लाल होते चेहरे के साथ कहोगी, “तुम्हें मेरा पानी में खेलना पसन्द नहीं है न ? तुम मुझे नाले से दूर ले जाने के लिये तेंदुए का बहाना बना रहे हो. क्यों ?.”
  तभी तुम्हें इस ‘क्यों’ का जवाब तेंदुए की गुर्राहट से मिल जायेगा और तुम गुलमोहर से अमलतास हो मुझसे लिपट जाओगी.
  अक्सर अभय रातों को सोने से पहले ऐसे ही सपने देखता रहता, मन ही मन सरू से बातें करता रहता. सपने में कभी सरू अभय से लिपटती, कभी चूमती, कभी उसे बालों को सहलाती. दिन में जंगल वार फेयर के प्रशिक्षण में वह जो भी सीखता, रात को उसके कुछ पल सरू के साथ जी लेता.
  वह सरु से बहुत दूर था जहाँ सरू की मौजूदगी के अहसासों का ही सहारा था. जैसे रात के सन्नाटे में जंगल अधिक मुखर हो उठता है. उसी तरह रोज रात में सरू की याद भी अभय के जेहन में मुखर हो जाती. उसकी यादों में होते- सरू के साथ बीते पलों की यादें और भविष्य के सपने. सपने भी तो एक तरह की यादें ही हैं, भविष्य की यादें. दिन का कोलाहल इन यादों को एक महीन पर्त से ढंक देता जबकि रात ढोल-धमाकों के साथ इन यादों की बारात ही ले आती. अभय की हर रात ऐसे ही यादों, सपनों में खोये बीतती.
  अभय सरू को जिंदगी से बढ़कर प्यार करता. दोनों ने अपने घर में अपने प्यार के बारे में सब कुछ बता दिया था. घरवाले अनमने होकर भी तैयार थे. बस अभय को अपनी ट्रेनिंग ख़त्म होने का इंतजार था. तब तक वह सरू को बस यही कहता,
  “सरू! मैं जल्दी ही तुम्हें लेने आऊंगा. तुम बस मेरा इंतजार करो और खुश रहो. फिर जल्दी ही हम चलेंगे, पहाड़ों और जंगलों की सैर को.”
  अभय की हर रात का सोने जाने और सो जाने के बीच का समय सरू से मन ही मन बातें करते बीतता. ऐसे ही किसी दिन अभय की टीम जंगल में सर्चिंग कर रही थी कि अभय को अचानक से वनचंपा की खुशबू आई. जो उसे एकदम से सरू के पास ले गई.
  रात को उसने मन में सरू से कहा, “तुम यहाँ होती तो कितनी खुश होती. जंगल की पगडण्डी पर चलते हुए अचानक थमक कर कह उठती- “यह गंध वनचंपा की है और यह करंज की.”
  जब तुम ऐसा कहती तब तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के कुसुम खिल आते और आँखों में भर आती मोगरे की चमक. तुम यहाँ होती तो आवाज में झांझर की खनक ले कह उठती,
  “देखो! यहाँ सागौन के कितने सारे छलनी से पत्ते बिखरे हुए हैं मैं इनमें पेंटिंग बनाउंगी.”
  तुम इन पत्तों को दौड़-दौड़ कर सहेजतीं और जंगल में पड़े टेढ़े-मेढ़े लकड़ी के टुकड़ों को इकठ्ठा करतीं. इन टुकड़ों में तुम्हें कभी कोई हंस दिखता, कभी सद्यस्नात नारी तो कभी कोई कछुआ. यह सब करते हुए तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के कचनार की लालिमा लबालब भर आई होती.
  कचनार, अमलतास, गुलमोहर, अभय अब सरू की ही भाषा बोलता. जंगल वार फेयर की ट्रेनिंग और सरू के प्यार ने उसे प्रकृति के नजदीक ला दिया. उसे बहुत से पेड़-पौधों के नाम याद हो गए. पहले सरू को अभय से शिकायत रहती कि उसे पेड़-पौधों, चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते. पहले अभय को इन्हें देख ख़ुशी नहीं होती जबकि बुलबुल को देख सरू किलक उठती, और कभी खुद ही कोयल बन कूकने लगती. हरसिंगार देख वह पेड़ को हिला कर अपने ऊपर फूलों की बारिश करने से नहीं रोक पाती. अब अभय उन्हें सरू से ज्यादा पहचानने लगा. अब वह अक्सर नए नए पेड़-पौधों, चिड़ियों की पहचान सरू से कराने की सोचता. अब भी जब कभी कोई नाम याद करने में अभय को परेशानी होती है वह सरू की याद से जोड़ कर नाम याद कर लेता है.
  कल ही तो उसने जंगल में लैंटाना की झाड़ी देखी. उसे सरू की बात याद आई,
  “पता है मैं और मेरी सहेलियां इस लैंटाना के फल को बचपन में चार समझ कर खाते थे. जब घर में पता चला तो खूब डांट पड़ी.”
  यह बताते हुए सरू हंस रही थी, “बचपन में मुझे चार और लैंटाना के फल में अंतर नहीं समझ आता था.”
  तब अभय भी उसकी हंसी के साथ हंस पड़ा पर उसने सरू को बताया नहीं, बस मन ही मन कह दिया था, “सरू ये अंतर तो मुझे आज भी नहीं मालूम है.”
 लेकिन अब अभय के पास सरू की इन पसंदीदा चीजों के बारे में बताने के लिये बहुत सारी बातें थीं. अभय यह दिली इच्छा रखता कि वह सरू से ये सारी बातें करे. पहाड़ों, जंगलों, झरनों, पंछियों से भरी जगह में, सरू को बाँहों के घेरे में लेकर घूमते हुए.
  ऐसी जगह में घूमते हुए, ऐसी बात करते हुए अभय सिर्फ और सिर्फ सरू का चेहरा देखते रहना चाहता. उसे याद आता, शहर के पार्क में नीलगिरी की पत्तियों से झांकता नीला आसमान. जिसे देख सरू की आँखों के जुगनू चमक उठते. ख़ुशी से चेहरे पर चाँद की चांदनी छिटक जाती. वह अक्सर सोचता, जब सरू इन पहाड़ों की अलसाई देह पर पसरे जंगल में, औंधी लेटी रात की काली चुनरी में टंके सितारों की चमक देखेगी तब तो उसका चेहरा ही चाँद हो उठेगा.
  अभय के जंगलवार फेयर का प्रशिक्षण अब कुछ ही दिन में ख़त्म होना था. उसने घर में शादी की तिथि तय कर देने के लिये लिख दिया. अब शादी करने के इंतजार में उसके दिन बीतते. सरू के साथ पहाड़ों में, जंगलों में प्यार करने के इंतजार में दिन बीतते.
  पहाड़ से लम्बे दिन आखिर बीत ही गए. ट्रेनिंग ख़त्म हुई. अभय को सर्वोत्तम कैडेट का पुरुस्कार मिला. धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पोस्टिंग हो गई. अभय और सरू की शादी हो गयी. लेकिन यह जरुरी नहीं कि हर वह चीज जो हम चाहें वह पूरी हो. अभय सरू को शादी के तुरत बाद पहाड़ों की सैर पर ले जाना चाहता था पर ये संभव ना हो सका. उसने देखा कि घरवालों के अपने बहू के साथ रहने के अरमान हैं तो इन अरमानों की बलि देकर सरू को पहाड़ों पर ले जाना उसे ठीक नहीं लगा. उसने सरू से वादा किया’
  “हम जायेंगे, जल्दी ही पहाड़ों के संसार में जायेंगे, पर किसी के अरमानों की बलि लेकर नहीं. बस जल्दी ही मैं छुट्टी लेकर आऊंगा. इस बार घर में ही रह लेते हैं.”
  शादी के बाद अभय को नौकरी में वापस आये दो महीने बीत गए. सरू से सैकड़ों मील दूर रह कर भी वह अहसास करता, कि सरू उसके बिना वहां बहुत गुमसुम होगी. उसने घर में रहते हुए यह थाह पा ली थी, कि घर वालों ने उसकी पसंद को रजामंदी तो दे दी, पर वो इसे दिल से स्वीकार नहीं कर सके. वह जाने अनजाने बुदबुदा उठता,
  “सरू प्लीज ! मेरे बिना भी घर में अपना मन लगाने की कोशिश करना.”
  एक-एक दिन पहाड़ों की तरह बीतता रहा. वह अहसास करता, सरू के अनजान जमीन में अपनी जड़ें ज़माने के प्रयासों का. वह  अहसास करता इन प्रयासों के नकारे जाने का. वह कई बार खुद को सरू का अपराधी सा महसूस करता, तब वह अपनी डायरी ले बैठ जाता.
  “सरू! मैंने इन दो महीनों में तुमसे कुछ कहा नहीं पर मुझे मीठे बोलों की खनक में, कद कम करने की छुरियां तेज करने की आवाज बखूबी पहचानना आता है. मैं पहचानता था; रहस्यमयी अनुमतियों में बंधनों की तीखी कटारी चुभोते आग्रहों को. कलश पादप के खूबसूरत फूल के पीछे छिपे मन गला देने वाले एसिड से भरे गह्वरों को. मुझे पता है तुम्हें इन्हीं छुरियों, कटारियों और एसिड के बीच छोड़ आया हूँ.”
  “हमने अपनी पसंद से शादी की है भले ही घरवालों ने हमारा मन रखने के लिये अपनी सहमति दे दी थी, पर उनके अरमानों को चोट तो लगी ही है. विश्वास करो, कि ये कठिन लम्हे हमारी परीक्षा के हैं. यह हमारे घरवालों की तरफ से हमारे प्यार की सजा है. यूँ समझ लो कि तुम्हें इन्हीं से अपने जीवनफल की मिठास चीरकर बाहर निकालनी है. यह मिठास उन मनों से एक बार निकलने की देर है, फिर कभी तुम्हें किसी छूरी, कटारी का सामना नहीं करना पड़ेगा. जल्दी ही हमारा प्यार घरवालों के दिल में भी समा जायेगा. मुझे विश्वास है कि तुम ये बखूबी कर लोगी.”
  उस दिन इतना लिख उसने अपनी डायरी बंद कर दी. शायद असहाय सी स्थिति महसूस कराने वाले शब्दों का बोझ हल्का हो जाने से उसे राहत मिल गई. सरू के साथ का अहसास, उसकी खुशबू, उसकी मिठास जान लेने के बाद अब उससे दूर रहना अभय के लिये बहुत तकलीफदेह होता जा रहा था. वह सरू की आवाज सुनने को तरसता. घने जंगल में मोबाइल फोन भी एक डब्बा भर था. वह यहाँ वीराने जंगल में दिनों-महीनों पड़ा रहता. घंटों पगडंडियों पर दसियों किलो बोझ उठाये मीलों पैदल चलता रहता. कभी सर्चिंग के नाम पर, तो कभी रोड क्लियरेंस के नाम पर, तो कभी एरिया डोमिनेंस के नाम पर. जब थक जाता तो सोचता, कि उनके सपनों के पहाड़ में, जंगल में पैदल चलते हुए सरू थक गई है, और वह उसे अपनी पीठ में लिये घूम रहा है. इस वीराने में अभय को सरू की मीठी यादों का ही सहारा होता.
  जब वह रात को सोने जाता, तो उसके दिन के किये काम किसी ना किसी तरह अपनी कड़ी सरू की यादों से जोड़ ही लेते, जैसे एक दिन उसे याद आया कि सरू कॉलेज गार्डन में लोहे के वन बाई वन स्क्वेयर मीटर का चौखाना लेकर गिनती थी, कि इसके अन्दर कितने प्रकार के पौधे कितनी संख्या में हैं. जिससे पता चले कि, विभिन्न प्रजातियों के पौधों की डेंसिटी कितनी है. तभी अभय को लगा कि यहाँ यही वह भी कर रहा है. बस अंतर इतना है कि, वह पावों के निशान गिनता है, जिससे पता चले कि इस जगह से कितने नक्सली गुजरे हैं और देखता है कि पावों के इन निशानों की साइज क्या है ? जूतों में कील लगी हैं? एडी में लोहे की नाल लगी है ? किसी महिला के पावों के निशान हैं या पुरुष के.
    उस दिन अभय सरू को यह बताने के लिये उत्सुक हो उठा कि जूतों के निशान देखकर बताया जा सकता है, कि चलने वाले की स्पीड कितनी थी. कि सामान्य गति से चलने पर जूतों के पंजों और एड़ी के निशान सामान दबाव वाले होते हैं, जैसे-जैसे गति बढ़ती जाती है, पंजों के निशान भारी होते जाते हैं और एड़ी के हल्के, कि तेज दौड़ते इन्सान के सिर्फ पंजो के निशान ही बनते हैं.
  अभय सोचने लगा कि जब भी वह सरू से मिलेगा, तो उसे बताएगा कि ऐसे ही जूतों के निशान देख अब वह ये भी बता सकता है, कि ये निशान ताजे बने हैं, या पहले के हैं. पहले के बने निशान हलके होते हैं, उन पर कीड़ों के चलने के, ओस की बूंदें पड़ने के निशान भी पड़े होते हैं. वह यह भी बताएगा, कि इससे हम नक्सली यहाँ से कितने देर पहले गुजरे हैं, यह अनुमान लगाते हैं. यूँ कहो कि जमीन पर छपे निशानों के सबूतों से, हम नक्सलियों की आमदरफ्त की कहानियां बुनते हैं. यही नक्सली भी हमारे साथ करते हैं.
  तभी उसकी सोच को एक जोरदार ब्रेक लगा, “नहीं! वह नक्सलियों से जुडी बात सरू को नहीं बताएगा. नाहक ही सरू घबरा जाएगी.”
  अभय एक लम्बी उसांस भर मन में कह उठा, “पावों के निशान तो इंसानों के ही होते हैं पर हम इसे इन्सान के पाँव नहीं मानते. इसे या तो नक्सली के पाँव के निशान मानते हैं या पुलिस के पावों के निशान. जैसे नक्सलियों के लिये पुलिस इन्सान नहीं है और पुलिस के लिये नक्सली.”
  अंततः उसने सरू को बताने वाली बातों से नक्सलियों की बात हटा दी. सिर्फ जमीन पर छप आये पावों के निशानों की कहानी सरू को बताना तय किया, और यह जान कर सरू के उत्सुक चेहरे में उग आये जुगनुओं की चमक में खो गया.
   एक दिन अभय को सरू का पत्र मिला. उस दिन उसे सरू की कुछ ज्यादा ही याद आ रही थी. पत्र में सरू की शिकायत थी कि, अभय बहुत छोटे पत्र लिखता है, सिर्फ कुशलक्षेम और कुछ नहीं.
  उस दिन अभय ने सोचा, “क्या लिखूं? जब मोबाइल डब्बा नहीं होता, तो तुम से बातें ही कर लेता हूँ, नहीं तो सारा कुछ तुम्हें सोच मन ही मन तुमसे बातें कर के ही बता देता हूँ. इस घने जंगल में मेरे दिलो दिमाग में या तो नक्सलियों का खौफ होता है, या तुम.”
  फिर मन ही मन हंसा, ये खौफ कितना अजीब शब्द हैं न, दूसरे इसका मतलब झट से नक्सलियों से डरना लगा सकते हैं, लेकिन हम नक्सलियों से डरते नहीं हैं, पर हां! हमें नक्सलियों का डर जरूर होता है क्योंकि ये डर ही तो हमें हर पल सजग रखता है. उनका सामना करने के लिये.
  सच ही है अभय लिखे क्या? क्या यह लिखे कि यहाँ वह हर पल मच्छरों और नक्सलियों के खौफ में हैं. जाने कब इन मोटे मोटे मच्छरों से मलेरिया हो जाये, या जाने कब जंगल में सर्चिंग के दौरान पाँव बारूदी सुरंग पर पड़ जाये, और उसके चिथड़े उड़ जाएँ, या जाने कब किसी पेड़ के पीछे से एक सनसनाती गोली आ कर इस सीने में धंस जाये.
   अभय जब भी आराम करता, सरू उसके पास ही आ जाती. सरू को लिखते हुए वह दूर लगने लगती. अभय को सरू से दूरी महसूस करना अच्छा नहीं लगता, बस इसीलिए...पर उस दिन उसने सोच लिया कि, आज वह सरू को चिट्ठी लिखेगा. उसने बहुत दिनों से सरू के लिये शब्दों के मोती कविता में पिरोये थे.
  जन्मों से मेरी सरू
  इस दुनिया में न समां सके इतना प्यार
  यहाँ मैं सकुशल हूँ और आशा करता हूँ कि घर में भी सब सकुशल होंगे. अब ये पत्र तुम्हारे, सिर्फ तुम्हारे लिये है-
  एक दिन तुम्हें जंगल ले जाऊंगा
  एक छोटा सा घर बनाऊंगा
  तुम्हारे साथ हँसूंगा गाऊंगा
  बेले की छत होगी
  मेहंदी की दीवारें
  घर की खिड़की से आयेंगी
  जूही, चंपा की बरातें
  अमलतास की सेज होगी
  मोगरे का सिंगार होगा
  बढ़ती सांसों का उपहार होगा
  हम रहेंगे वहां
  बीज की तरह
  मनाएंगे सृजनोत्सव वहां
  रचेंगे अपने
  सुख का संसार
  - तुम्हारी सांसों में समाने का आकांक्षी
    अभय
  यह पत्र लिख अभय निढाल पड़ गया. कितना मुश्किल होता है प्यार भरा पत्र लिखना ? उसका दिल मानों चीर दिया हो ऐसा दर्द करने लगा. पेट में मरोड़े उठने लगीं. 
  “जाने कब मिल पाउँगा सरू से? छुट्टियाँ भी तो नहीं मिलती. इस बार पूरे दो महीने की छुट्टी लेकर जाऊंगा. सरू की शरबती आँखों में खोने के लिये. उसे पहाड़ घुमाने मनाली लेकर जाऊंगा.”
  अभय ने पत्र को हौले से छुआ, जैसे सरू को छू रहा हो. उसके चेहरे में एक मुस्कान उभर आई,
  “सरू मेरी लिखी कविता पढ़ कर कितनी खुश होगी.”
  उसने उस पत्र को अपने लबों से चूमा और मोड़कर अपने जेब में डाल दिया,               “पंद्रह दिन का यह सर्चिंग ओपरेशन कल ख़त्म हो जायेगा. कल जिला मुख्यालय से इसे पोस्ट कर दूंगा.”
  सरू इंतजार करती रही, अपने पत्र के जवाब का. उसे पत्र भेजे बीस दिन हो चुके थे. वह तैयार होती, खाना बनाती, घर व्यवस्थित करती, कपड़े तह करती, चाहे कुछ भी करती पर हर पल उसके कान दरवाजे पर डाकिये की आवाज का इंतजार करते. उस दिन सुबह पापाजी समाचार पत्र पढ़ रहे थे, मांजी पूजा कर रही थीं. वह रसोई में कढ़ी बनाते हुए सोच रही थी.
  “अभय को कढ़ी बहुत पसंद है. इसबार अभय आयेंगे तो हर दूसरे दिन उन्हें कढ़ी खिलाउंगी, एक दिन सादी कढ़ी, एक दिन भजिया कढ़ी, एक दिन बूंदी कढ़ी. उनकी पसंद की सारी चीजें बना के खिलाऊँगी.” सरू के न चाहते हुए भी एक उसांस निकल गई, “लेकिन अभय कब आयेंगे?”
  पापाजी ने समाचार पत्र खत्म कर टीव्ही पर न्यूज चैनल चला दिया. टी.व्ही. में लगातार ब्रेकिंग न्यूज चल रहा था. “नक्सली हमले में दो अधिकारीयों समेत चौदह जवान शहीद.”  
  तभी पापाजी को एक कॉल आया. अभय के बटालियन के किसी ने बताया कि अभय जंगलों में सर्चिंग के दौरान हुए, एक नक्सली हमले में शहीद हो गया.
  सरू निराधार हो गई. अभय के माँ-पिताजी नि:सहाय हो गए. अब उनके पास एक ही इन्तजार रह गया था. बेजान अभय का इन्तजार, अंतिम वक्त में उसके पास मौजूद सामानों का, अभय के अंतिम समय की यादों का इन्तजार. 
  ये सिर्फ अभय की कहानी नहीं रही थी. ये सिर्फ इस नक्सली हमले के शहीदों की कहानी नहीं थी. ये कहानी थी, छत्तीसगढ़ के चिंतलनार, अम्बागढ़ चौकी, चिंतागुफा, किरंदुल के शहीदों की, उड़ीसा के मलकानगिरी, बालीमेला, कोरापुट के शहीदों की, पश्चिम बंगाल के सिलदा के शहीदों की, झारखण्ड के सारंडा जंगल के शहीदों की, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के शहीदों की, यही कहानी तो होती है पाकिस्तान, चीन की सीमा के कई सैनिकों की, कश्मीर के सेना के जवानों की. यही नहीं कुछ ऐसी ही कहानी होती है, अफगानिस्तान में, इराक में शहीद जवानों की भी. ऐसी ही कहानी होगी भविष्य के शहीदों की भी जब तक कि लोग न समझ लें कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं होती.    
  हो सकता है सभी शहीदों की अपनी कोई सरू न हो लेकिन सबके अपने माँ-पिताजी, भाई-बहन तो होते ही हैं, जान न्यौछावर करने वाले दोस्त होते ही हैं. हो सकता है सभी की जेब में अपनों के लिये लिखा कोई पत्र न रहा हो पर उनके दिल तो भावों से भरे होते ही हैं और सभी शहीदों की जेब में जो भी रहा हो वो उनके घरवालों के लिये उनकी अंतिम याद होता है. अंतिम याद! जो हर बार उसे देखने वाले को रुला देती है, पर फिर भी वे उसे सहेज कर रखते, बार बार देखते और बार बार रोते हैं. अभय और सरू के साथ ये भी न हो सका.
  सरू भी अभय की अंतिम निशानियों के इंतजार में थी, लेकिन हमले के दो दिन बाद अभय की, और बाकी सभी शहीदों की खून से लथपथ वर्दियां मय बैज, जूतों और गैर कीमती सामानों के अस्पताल के पीछे कूड़े के ढेर में पाई गई. जिन्हें जवानों के पोस्टमार्टम के बाद लावारिस मान घोर असंवेदनशीलता से फेंक दिया गया था. आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहा.
  शहीदों के वे अवशेष- जो किसी सरू, किसी माँ, किसी पिता के लिये अपनी जान से बढ़कर अपने की निशानी होते. वर्दियां- जिन्हें अपने अंक में भर वे अपने उस ‘अपने’ के होने को महसूस करते. उसके अंतिम समय के कष्ट की कल्पना कर बिलखते. बैज- जिसे किसी सीले दिन में सीला मन लिये कोई सरू, माँ, या पिता संदूक के किसी कोने से निकाल कर सालों बाद भी जबरदस्ती सिले जख्मों की टीस में रो पड़ते. वो सब यूँ ही कूड़े में पड़े थे.
  जब सरू को अभय के अवशेष मिलते. अभय की जेब में रखी वह चिट्ठी मिलती, तो वह भी रोती, इस चिट्ठी को लेकर. वह चिट्ठी को सहेजती, बार-बार देखती और बार-बार रोती; अभय की उसके लिये लिखी कविता पढ़ कर, लेकिन कभी भी सरू को यह चिट्ठी नहीं मिल सकी. जब सरू अभय की याद में बिलख रही थी, उसकी निशानियों के इन्तजार में थी, तब अभय की सरू को लिखी वो चिट्ठी, गर्भपात से निकले एक भ्रूण के कोने से दबी हवा में फड़फड़ा रही थी.
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