Monday 6 March 2017

एकाधिकार की निस्सारता

( दैनिक जागरण के साहित्यिक पुनर्नवा दिनांक ०६/०३/१७  में प्रकाशित)                                                                                       
        कुछ लोग छेनी की तरह होते हैं, जो दिमाग की सिल में एक ही मुलाकात में निशान छोड़ जाते हैं जबकि कुछ रस्सी की तरह होते हैं जो समय के साथ  निशान बनाते हैं. प्रोफ़ेसर के इस लम्बे जीवन में ऐसे कई निशान डॉ महतो के दिमाग में हैं. जिनमें से कई अब देश में ही बड़े पदों पर हैं तो कई विदेश में शोध कर रहे हैं. कालेज में मनन से जब वह पहली बार मिले थे, तब वह उन्हें एक आम छात्र ही लगा था.
           बाद में मनन उनके मार्गदर्शन में ही शोध कार्य करने लगा. बस तभी से उसके खुले और परिपक्व विचारों की रस्सी डॉ. महतो पर अपने निशान बनाती चली गई. मनन उम्र में उनसे बहुत छोटा था पर अनुभव में नहीं. अनुभव की सब्जियां कोई खुद उपजा कर पकाए या दूसरों के उपजाये को पकाए. सीख का स्वाद तो वही मिलना है. जब मनन किसी विषय पर बात करता तो लगता जैसे वह इस पर पूरा शोध किये बैठा है. जाने उसमें क्या था? अच्छा व्यक्तित्व या अच्छी व्यक्तव्य कला या उसकी आँखों से झलकती उसके विचारों की गहराई. वह इतनी आसानी से अपने विचारों की नदियां बहाता चलता, जैसे इनका उदगमस्रोत ही वही हो.
         वह डॉ. महतो के सामने भी ऐसा ही करता, पर यह बात ऐसे प्रतिभावान छात्र का गुरु होने का गर्व महसूस कराने की जगह, डॉ. महतो को उससे दूर करती. उन्हें लगता, कि वे जाने-माने प्रोफेसर हैं, जिनसे आवश्यकतानुसार शासक-प्रशासक भी राय लिया करते हैं और ये कल का छात्र उनसे ही तर्क करने पर उतारू हो जाता है. ऐसा नहीं था कि हर वक्त मनन के तर्क सही ही होते, लेकिन उससे तर्क कर उसकी प्रतिभा को तराशने, गुरु होने का दायित्व निभाने की जगह, डॉ. महतो न चाहते हुए भी कई बार उसके विचार प्रवाह को बांध ही देते, पर कोई भी बंधन कभी बहते जल के प्रवाह को सदा के लिए रोक सका है? डॉ. महतो के डांटने पर मनन उस समय चुप हो जाता लेकिन अपनी ऐसी हर चुप्पी के बाद, वह उस विषय में और डूबकर सत्य का मोती चुन लाता.
उसकी मौजूदगी डॉ. महतो को कंझाती लेकिन नामौजूदगी उसकी प्रतिभा को सराहने पर विवश करती. उनके मन के गह्वर में उमड़ आते इन विरोधी विचारों और अनिच्छा के भँवरों के बावजूद, जाने वे कैसी धाराएँ थी जिनमें बहते हुए मनन उनका प्रिय बनता गया. यहाँ तक कि उन्होंने उसे शोध कार्य हेतु अपने निजी पुस्तकालय का लाभ लेने की अनुमति भी दे दी. उनका निजी पुस्तकालय; जहाँ उनकी जान बसती थी. जहाँ उन्होंने आज तक किसी छात्र को आने की अनुमति नहीं दी थी. जहाँ पूरे देश से संग्रहित दुर्लभ पांडुलिपियां, पुस्तकें उन्होंने जमा कर रखी थीं.
          डॉ.महतो के ऐसे समृध्द संग्रह को देखते हुए मनन कुछ दुर्लभ पुस्तकों को पाकर ख़ुशी से किलक उठा. कुछ दिन तो वह किसी पुरानी शराब की तरह पुस्तकों को घूँट-घूँट पीता हुआ, इस पुस्तकालय के नशे में रहा. जब वह कुछ प्रकृतिस्थ हुआ तो उसने डॉ. महतो से कहा,
“सर! आप तो दुर्लभ पुस्तकों के अकूत भंडार के स्वामी हैं. इन सबको तो पुस्तकालयों में सहज उपलब्ध होना चाहिए. सर, यदि आप मुझे अनुमति दें तो मैं इनकी फोटोकॉपी कराना चाहता हूँ.”
      यह सुनते ही डॉ. महतो की स्थिति ‘काटो तो खून नहीं’ की हो गई. वह उस घड़ी को कोसने लगे जब उन्होंने मनन को अपने निजी पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति दी थी. उनके लिए यह दुर्लभ संग्रह ही, खुद को महत्त्वपूर्ण महसूस कराने का स्तम्भ था. कई बार इसी ने उन्हें देश-प्रदेश में पहचान दिलाई थी. कालांतर में उनके लिए उनकी विद्वता नहीं अपितु यह पुस्तक संग्रह ही उनका आत्मविश्वास, उनकी शक्ति, उनकी संपत्ति बन गया था. वह अपनी शक्ति, संपत्ति सारे लोगों में बांटने की सोच कर ही संज्ञाशून्य से हो गए.
         जब डॉ. महतो का मन सागर इस प्रस्ताव से उपजे विचारों के भीषण चक्रवातों का सामना कर रहा था. तब मनन आशा भरी नज़रों से उन्हें देख रहा था. वह उससे कैसे कह सकते थे कि अपनी महत्ता बनाये रखने के लिए, मैं इन्हें सुलभ नहीं बना सकता. अंततः उन्होंने मनन से कहा,
“कलम सिर्फ उन हाथों में उपयोगी होती है जो इससे लिख सकें. इसे सर्वसुलभ बना देने से सारे लोग लिखना नहीं सिख सकते. यह तो संसाधनों की बर्बादी मात्र होगी.
इस पर मनन ने कहा, पर सर, जब इंसान पहली बार कलम पकड़ता है, तब उसे लिखना नहीं आता, यदि लिख सकने वाले को ही कलम देने की शर्त रख दी जाये, तब तो कोई भी लिखना नहीं सीख सकता.”
          डॉ. महतो के पास इस सही बात का कोई जवाब नहीं था लेकिन उनके पास शोध मार्गदर्शक होने का हथियार था. उन्होंने मनन के हाथों में पकड़ी दुर्लभ पाण्डुलिपि ले ली, उसे डपटते हुए कहा,
‘मैंने तुम्हे शोध कार्य के लिए पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति दी है इसे सहज उपलब्ध बनाने की पैरवी करने के लिए नहीं. तुम अपना काम करो.
मनन ने अपनी गहरी आँखों में लबालब अविश्वास भरे हुए डॉ. महतो को देखा. इन नज़रों की सच्चाई का सामना करने की शक्ति उनमें न थी. वे हाथ में ली पाण्डुलिपि को सही जगह रखने मुड़ गये. उन्हें मनन की ऑंखें पीठ में चुभ रहीं थीं. अगले ही दिन उन्होंने मनन को शोध कार्य कराने से भी इंकार कर दिया. यह मनन के लिए तड़ितप्रहार सी ताड़ना थी, जिस पर उसका भविष्य भी दांव पर लग रहा था.
    मनन कुछ दिन तक उन्हें मनाता रहा. उनसे माफी मांगता रहा पर वे पुस्तकों से निर्जीव हो गए. पुस्तक- जिनमें दुनिया के सारे अहसास होते हैं फिर भी वे सारे अहसासों से परे होती हैं. आखिर एक दिन मनन चला गया. उनके पुस्तकालय में सैकड़ों पुस्तकें बढ़ गई लेकिन धीरे-धीरे उन्हें मनन की वही आँखे अपनी पीठ पर गड़ती महसूस होने लगीं.
          डॉ. महतो ने अपनी पुस्तकों से मोह के किले की प्राचीर में कैद थे. जिसका अहसास उन्हें नहीं था, या शायद होने लगा था कि कभी-कभी वह इन आँखों की भाले सी चुभन से सोते से जाग जाने लगे. एक स्थिति ऐसी आई कि कई रातें उन्होंने आँखों ही आँखों में निकाल दी पर न मनन की आँखों ने उनका पीछा छोड़ा न ही उन्होंने अपनी पुस्तकों पर एकाधिकार. उम्र बढ़ने के साथ-साथ सपनों में भी अब सिर्फ वह दो ऑंखें ही नहीं आक्षेप लगाते अनेक चेहरे नजर आने लगे थे.
         गुजरते वर्षों में कई शोधार्थियों ने उनके मार्गदर्शन में शोध किया. मनन के बाद उन्होंने किसी विद्यार्थी को अपने पुस्तकालय का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी. डॉ. महतो अपने शोधार्थियों को शोध कार्य में जुटे देखते रहते. वह देखते कि उनके शोधार्थी घंटों कंप्यूटर में काम करते है. जाने क्या पढ़ते रहते हैं? एक दिन उन्होंने अपने किले के द्वार की अर्गला खोल दी. अपने एक शोधार्थी से पूछ लिया, कि वह कम्प्यूटर में दिन-रात क्या करता है?
उनके सामने जैसे जानकारियों का समंदर लहरा उठा. उन्होंने सोचा था कि वे एक प्रश्न में अगत्स्य मुनि की तरह कंप्यूटर के सागर को सोख लेंगे, लेकिन उन्हें पता चला कि इसमें तो कई नदियाँ आकर मिलती जा रही थीं. उस शोधार्थी ने उन्हें बताया कि वह कप्यूटर पर सन्दर्भ ग्रंथो का अध्ययन करता है. वह इंटरनेट पर विषय से सम्बंधित एक समूह का सदस्य भी है, जहाँ लोग अपने शोधों से सम्बंधित सारी बातें साझा करते हैं. उसने उन्हें भी अपना एक ब्लॉग शुरू करने का सुझाव दे दिया.
डॉ. महतो के लिए तो यह दुनिया का आठवां आश्चर्य था कि लोग कैसे इतनी आसानी से अपना ज्ञान बाँट सकते है.
उन्होंने अविश्वास से कहा “तुम्हें विश्वास है कि लोग सही तथ्यों को साझा करते हैं”
इस पर डॉ. महतो के दिमाग की दीवारों से अनजान उस शोधार्थी ने भोलेपन से कहा,  “यहाँ विश्वास ही तो सब कुछ है सर, फिर बचपन से आप गुरुओं ने ही तो सिखाया था कि ज्ञान बांटने से बढता है. समूह में सभी ऐसा ही सोचते है और करते हैं और अपना ज्ञान बढ़ाते हैं.”
     एक बार इस पर बात शुरू हुई तो उनके बीच नई तकनीक के साथ-साथ, सूचनाओं की सहज उपलब्धता,  इससे होने वाली सुविधा,  इसके नुकसान सभी पर दिनों तक बात होती रही. उन्हें पता चला कि उनके पुस्तकालय की कई पुस्तकें जो राज्य में मिलनी तो दुर्लभ हैं लेकिन इन्टरनेट पर सहज उपलब्ध हैं. उन्हें शिद्दत से इस विषय में अपनी अज्ञानता का ज्ञान हुआ. उनके ज्ञान-चक्षु खुलने लगे.
उन्हें अपनी सोच पर ग्लानि महसूस होने लगी, ज्ञान स्त्रोतों पर एकाधिकार की निस्सारता का अहसास हो गया, अंततः उन्होंने अपनी सारी पुस्तकों की फोटोकापी कॉलेज पुस्तकालय में दे दी. राज्य पुस्तकालय से इन्हे ऑनलाइन करा दिया और अब वे इनसे प्राप्त ज्ञान को ब्लॉग के माध्यम से बांटते हुए खुद भी कई ब्लॉग फॉलो करते हुए ज्ञान अर्जित करते हैं.
वे एक इंटरनेशनल ब्लॉगर्स मीट में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया भी गए थे. अब मनन की ऑंखें उन्हें चुभती नहीं थी, लेकिन एक कसक सी होती थी, जो मनन के उज्जवल भविष्य के प्रति खुद को कसूरवार मानती थी. जब वे ब्लॉगर्स मीट में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे तब यह कसक कुछ अधिक ही बढ़ गई थी.
ऑस्ट्रेलिया में एअरपोर्ट पर डॉ. एम. के. घोष उनका स्वागत करने वाले थे. जो इस मीट के आयोजकों में से एक थे और हॉवर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे. उनसे डॉ. महतो की इतिहास की कई अवधारणाओं पर इन्टरनेट में चर्चा होते रहती थी. दोनों की ही कई अवधारणायें इस चर्चा से बदल गई थी. वह डॉ. घोष से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे.
एयरपोर्ट मे मिलते ही डॉ. महतो को डॉ. घोष ने नमस्कार किया और कहा, “सर! मुझे पहचाना आपने?”
प्रश्न पूछने के इस पल में डॉ. घोष की एक जोड़ी आँखें उन पर निबध्द थीं. इन निबध्द आँखों को देखते ही भाले की एक तीखी चुभन डॉ. महतो के सर्वांग में व्याप्त हो गई. हर्षातिरेक में उनकी आँखें भर आईं, वे भाव अवरूध्द कंठ से बोल उठे,
“गुरु गुड़ ही रहा गया और चेला शक्कर हो गया.”
उन्होंने चरणों की ओर झुकते डॉ. घोष को बीच में ही थाम कर, अपने गले से लगा लिया. अब न कोई कसक थी न चुभन, बस निर्बाध बहती ज्ञानगंगा थी. 

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