Monday 1 May 2017

एक कहानी मेरी भी


साहित्य अमृत के अप्रेल 2017 अंक में प्रकाशित-
   सालों से मेरी दिनचर्या में सुबह की सैर अपना खूंटा गाड़े खड़ी है. चाहे बादल बरसे या पूस की कनकनाती ठंडी हवा चले, मेरी सुबह की सैर कभी बंद नहीं होती. उस दिन भी मैं सूर्योदय के साथ ही निकल पड़ा था. कुछ दूर जाते ही मैंने देखा कि मेरे अर्दली के बूढ़े पिताजी दौड़े आ रहे हैं. उनके कमजोर शरीर पर सिर्फ एक मैली सी धोती है. वह नंगे पाँव दौड़ रहे हैं पर उनकी दौड़, उनकी उम्र और जर्जर काया से जवान है.
उसके पीछे मेरा अर्दली मड़कम पदामी दौड़ता आ रहा था. मुझे देख वह थोडा धीमा हुआ. मैंने पूछा,
   “क्या हुआ?”
   जवाब देने की जगह उसने मुझे सलाम किया और कहा, “फिर वही साहब.” फिर अपने पिताजी के पीछे दौड़ पड़ा.
   उसने पहले एक बार मुझे बताया था कि उसके पिताजी आजकल यूँ ही कहीं भी दौड़ पड़ते हैं. अभी कुछ ही दिन पहले मैंने उन्हें तेज चाल से कस्बे के बाहर की सड़क पर कुछ बड़बड़ाते हुए जाते देखा था, कुछ दूर जाकर वे एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये और उस पेड़ से ही कुछ बातें करने लगे थे. उन्हें कुछ असामान्य सा व्यवहार करते देख मैंने ही मेरे अर्दली को उनके पेड़ के नीचे खड़े होने के बारे में बताया था. वह तुरंत उन्हें पेड़ के पास से लेकर घर छोड़ आया था. एक दिन और जब मैं सुबह की सैर से वापस आ रहा था तो मैंने उन्हें फिर से उसी पेड़ के नीचे खड़े होकर बातें करते देखा था क्योंकि मैं पहले भी उन्हें यहाँ खड़े देख चुका था इसलिए मेरा ध्यान एक दम से उन पर चला गया. वे उस पेड़ से बातें कर सड़क पर कस्बे से बाहर जाने की दिशा में बढ़ गए थे. वे कुछ बूढ़ादेव...बूढ़ादेव... बड़बड़ा रहे थे. उसदिन तो मैंने ही उन्हें घर भेज दिया था. वे काफी बुजुर्ग हैं. मैंने सोचा था कि यह बड़बड़ाहट, यह भटकना बुढ़ापे के लक्षण ही होंगे लेकिन आज उनके चेहरे पर दर्द और जूनून के गहरे भाव ने मुझे विचलित कर दिया.
   वह कुछ अस्पष्ट से गोंडी शब्द भी तेज आवाज में चिल्लाते जा रहे थे.
मुझे इतना समझ आया कि वह, ‘बूढ़ा देव मैं आ रहा हूँ... मेरे सल्फी मैं आ रहा हूँ..’ कहते दौड़ रहे हैं. उनके चेहरे में कुछ खास था. मैं रुक गया. कुछ देर पलट कर उन्हें देखता रहा.  धीरे-धीरे वह दोनों दौड़ते हुए मेरी आँखों से ओझल हो गये पर पदामी के पिताजी का चेहरा किसी पत्थर पर उकेरे निशान सा मेरे मन पर उभर आया. कानों में भी उसकी जुनूनी आवाज गूंजने लगी. अब मुझसे सैर के लिए आगे न बढ़ा गया. मैं वापस आ गया.
   साढ़े नौ बजे मड़कम पदामी घर पर हाजिर था. मेरे दिलोदिमाग में उसक पिताजी का जुनूनी चेहरा बार-बार उभर आ रहा था.  मैंने उससे पूछा,
   “सुबह क्या हुआ था? तुम्हारे बाबा ऐसे क्यों दौड़ रहे थे?”
   मैंने उससे संवेदना दिखाते हुए पूछा. वैसे भी उसके पिताजी के चेहरे पर छाये दर्द और जुनून के बादलों में घिरा मैं बिना पूछे रह भी नहीं पा रहा था. उसके जवाब में अपनी जड़ों से उखड़ कर गिरते बूढ़े बरगद का दर्द भरा था.
    “असल में साहब बाबा जनम भर गाँव में रहे हैं. इस बुढ़ौती में मैं उन्हें यहाँ ले आया हूँ. उनका मन यहाँ नहीं लगता है. उन्हें गांव की मिट्टी, घर-आँगन, खेत सब बुलाते हैं. इसीलिए वो सातों दिन आठों पहर गांव की याद करते रहते हैं. आजकल ऐसे ही अचानक गाँव जाने के लिए दौड़ पड़ते हैं.
   “हाँ! कुछ ऐसा ही चिल्ला भी रहे थे न....’बूढ़ा देव!...मैं आ रहा हूँ....मेरे सल्फी मैं आ रहा हूँ.’ वह यही कह रहे थे. है न?”
    “हाँ साहब जी! बाबा गॉव के मांझी थे. हमारे घर में बूढ़ा देव और माई विराजे थी. बाबा की मानता थी कि जब मेरा बेटा होगा तो वे बूढ़ा देव को पुजई देंगे...पर अब हम तो गांव से दूर यहाँ है. उधर जा नहीं सकते. लेकिन आजकल बाबा ने गांव में पुजई देने जाने की रट लगा ली है. अक्सर वे चिल्लाने लगते हैं कि बूढ़ादेव मैं आ रहा हूँ.” उसने अपनी समस्या बताई.
   मैंने दूसरे की समस्या को हल्के में लेने के सामान्य मानवीय व्यवहार का उदाहरण बनते हुए तुरंत हल सुझाया,
   “तो यहाँ पुजई दे दो”
    “यहाँ तो पुजई दे चुके साहब जी पर बाबा के बूढ़ा देव तो गांव के घर में हैं.” मुझे तत्काल जवाब मिला.
    हर बात का आसान सा दिखता हल मन की भूलभुलैया में जाकर आसान तो नहीं ही रह जाता. बात कुछ गहरी सी लगने लगी थी. छुट्टी थी. भरपूर समय था. मैं पूरी बात समझने के लिए उत्सुक हो उठा. असल में मुझे उसके बाबा के जुनूनी चेहरे का रहस्य जानने की उत्कट इच्छा होने लगी थी. मुझे लग रहा था कि सिर्फ इतनी ही बात उस गहन दर्द और जुनून से भरे चेहरे का कारण नहीं हो सकती इसीलिए मैंने फिर उसे बात करने के लिए उकसाते हुए कहा,  
    “अरे! तुम्हारे घर के उस पत्थर में ही बूढ़ादेव थोड़े हैं. भगवान तो सब जगह हैं. क्या यहाँ, क्या वहां. अब भी तुम कितनी पुरातनपंथी बातों को मानते हो पदामी.”
पदामी चुप रहा. उसकी आँखे जमीन में गड़ गई जैसे सोच रहा हो कि उसका कुछ कहना मेरी बात का विरोध तो नहीं लगेगा फिर शायद अपने बूढ़ादेव पर विश्वास ने उसे बोलने पर विवश कर दिया. कुछ देर रूककर उसने कहा,
    “साहब जी आप बूढ़ादेव को नहीं मानते है इसीलिए नहीं जानते. बूढ़ादेव गांव-घर के देवता हैं. यदि नाराज हो जाएँ तो समूल नाश कर दें. बाबा डरते हैं कि वे बूढ़ादेव को छोड़ आये हैं तो देव जरूर नाराज होंगे. बूढ़ादेव बार-बार बाबा के सपने में आते हैं. उन्हें गरियाते हैं. मारते हैं. बूढ़ादेव को गाँव में छोड़कर आने के कुछ ही दिन बाद ही हम माँ को खो चुके हैं. माँ को खोने के बाद, अब हम सब को खोने का डर बाबा के मन में बैठ गया है. वे गाँव जाना चाहते हैं लेकिन मैं उन्हें गाँव जाने नहीं दे सकता इसीलिये बाबा अचानक ही ऐसे चिल्लाते हुए दौड़ पड़ते हैं.”
    अब पदामी की आवाज में कहीं खो जाने से आने वाली गहराई आ गई थी. ऐसा लगने लगा जैसे आवाज किसी गहरे कुँए से आ रही हो. मुझे कहीं जाने की जल्दी तो थी नहीं. मैंने पदामी को उसके मन के कुँए में गहरे उतरने दिया. वह मेरे सामने उकड़ू बैठ गया. कहीं डूबा हुआ सा. मेरे भीतर के लेखक कीड़े को इसमें एक कहानी दिखने लगी इसीलिए मैंने उसे कोंचा,
    “अच्छा तो बूढ़ादेव के प्रकोप के डर से तुम्हारे बाबा गांव जाना चाहते हैं?”
    “जी साहब...”
    पदामी इतना कह चुप हो गया लेकिन उसकी यह चुप्पी वाचाल थी. मुझे इतना अनुभव तो है ही कि जब किसी की चुप्पी वाचाल हो तो पूछने वाले के कुछ पलों की चुप्पी  अक्सर बताने वाले के मन में छुपे उस बात के विवरण को खुद ही सामने ले आती है. मैं चुप बैठा रहा. मैंने कुछ भी नहीं कहा,
    “बस यही कारण नहीं है साहब.”
पदामी खुद से आगे कहने लगा. अब उस भोले-भाले आदिवासी की आवाज किसी गहरी घाटी से आने लगी  थी.
    “बाबा बताते हैं साहब! जब वे माँ के घर शादी से पहले रहने के लिए गए थे तो माँ-बाबा ने मिलकर सल्फी का एक पेड़ जंगल में उस जगह लगाया, जहाँ बाद में वे अपने घर का आँगन बनाने वाले थे. माँ बाबा से हमेशा कहती थी कि यह सल्फी का पेड़ उनके प्यार की निशानी है, इसका ध्यान रखना, जब तक यह अच्छे से फूलेगा-फलेगा, वो मानेंगी कि बाबा उनसे प्यार करते हैं. जवाब में बाबा कहते कि जब तक माँ उनके बूढ़ादेव को पूजती रहेंगी, बाबा उनसे प्यार करते रहेंगे. जब भी बाबा सल्फी का रस निकाल सल्फी बनाते, पहला दोना माँ को ही देते. वो सल्फी का पेड़ दोनों की आत्मा से जुड़ा था. कभी-कभी बचपन में मेरे को सल्फी के पेड़ से जलन होने लगती थी कि दोनों मेरे से ज्यादा इस सल्फी के पेड़ से प्यार करते हैं.”
     पदामी की बातों और बूढ़े के दर्द और जूनून से सराबोर चेहरे में मैं कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ पा रहा था. मैं नहीं समझ पा रहा था कि जब इसके बाबा का गाँव से इतना जुड़ाव है तो यह उन्हें गाँव ले क्यों नहीं जाता? लेकिन मैंने अभी भी कुछ नहीं पूछा. कोई उद्दाम वेग से बहने वाली नदी की राह में छोटे-छोटे बांध भी बना दिये जाएँ तो उसका वेग कम हो जाता है. प्रश्न भी यही करते हैं. मैं बस सुनता रहा.
     वह उकडू बैठा था. ऑंखें दूर अनंत में देखती हुई. आवाज खोई-खोई हुई. वह कहता रहा,
    “जब गांव छोड़ना पड़ा तो माँ रो-रोकर पागल सी होने लगी थी. वह कभी बूढ़ादेव के पास जाती तो कभी सल्फी के पेड़ को बाँहों में भर जोर-जोर से रोतीं. मुझसे कहती थीं कि छोड़ दे हम दोनों को अपने गाँव,  अपने जंगल में. यहीं जन्मे है यहीं मिट्टी बन जायेंगे. मैं कैसे उन्हें समझाता कि अब ये जंगल अपना नहीं रहा.”
    पदामी के माँ-बाबा की कहानी बहुत मार्मिक होने लगी थी. सुबह उसके बाबा का जुनूनी चेहरा याद आते ही खुद को रोक न सका. मैं कह उठा,
    “जब तुम्हारे माँ-बाबा को अपने गाँव से इतना प्यार था तो तुम्हें उन्हें गाँव में ही छोड़ देना था. बीच-बीच में खुद जाकर देख आते. बड़े पेड़ अपनी जमीन पर ही पनपते हैं. दूसरी जगह उनकी जड़े फिर से जम नहीं पाती. अब भी सोच सकते हो. अपने घर में तुम्हारे बाबा कम से कम खुश तो रहेंगे. अभी भी उन्हें गाँव भेज दो.”
यह वाक्य मेरे जबान से निकल तो गया लेकिन इसका जो उत्तर आया वह मेरे लिए अकल्पनीय था. उद्दामवेगी नदी बांध तोड़ बह निकली. वह तड़प कर कहने लगा,
     “मैं भी तो बेटे का दिल रखता हूँ साहब.  कैसे छोड़ देता उन्हें गांव में मरने के लिए और अब भी कैसे भेज दूं. आप के लिए ‘उधर’ नया है साहब. आप कभी ‘उधर’ गए नहीं हैं इसीलिए ऐसा कह रहे हैं. मैं यदि माँ-बाबा को गॉव में छोड़ देता तो ‘उधर’ के लोग मेरे माँ-बाबा को मारने में चार दिन भी नहीं लगाते. मैं पुलिस में आ गया हूँ न साहब. कभी ‘उधर’ गया और पकड़ में आ गया तो वह लोग मेरे को भी उसी क्षण मार डालेंगे. अब ‘उधर’ ऐसा ही होता हैं साहब.”
    इतना कहते हुए पदामी की आवाज कहीं डूब सी गई. बुदबुदाती हुई आवाज में गोंडी में जो सुनाई आया उसका मतलब था,
    “यहाँ लाकर भी कहाँ बचा पाया माँ को...और बाबा को भी तो पल-पल की मौत के जैसी जिंदगी ही दे पा रहा हूँ.”
    माहौल कुछ ज्यादा ही भारी लगने लगा. मैंने जितना सोचा था, कारण उससे कहीं अधिक गंभीर था. आखिर ये नक्सलवाद सिर्फ उस बूढ़े को ही नहीं, सारे समाज को भी दर्द दे रहा है. मुझे भी. मैं भी अपना परिवार सुरक्षित मैदानी इलाके में छोड़कर इस नक्सल प्रभावित क्षेत्र में आया हूँ और जाने कब  तक पड़ा रहूँगा. इस भारी माहौल को कुछ हल्का करने के लिए मैंने पदामी से यूँ ही पूछ लिया,
    “'कहाँ हैं तुम्हारा गांव?
     जो जवाब मिला वह मेरे अर्दली का जवाब नहीं था. वह जवाब में किया प्रश्न था- अपनी जमीन से जबरदस्ती काट दिए गए इंसान का.
    “'गांव अब हमारे हैं कहाँ साहब! आपने कभी ‘उधर’ के गांव देखे हैं साहब?
     अपने अर्दली से अपने प्रश्न के उत्तर में प्रतिप्रश्न मिलना असंभव सा ही होता है इसलिये मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था पर मैंने इस प्रश्न में छुपे अर्थ को भांपते हुए कुछ अचकचाते हुए लेकिन माहौल हल्का करने के उद्देश्य से कुछ हंसते हुए जवाब दिया,
    “अरे हाँ भाई...मैं भी गांव का ही हूँ. मेरा बचपन गांव में ही बीता है.”
    यूँ मुझे अहसास तो था कि सारे गाँव एक से नहीं होते. मेरे उत्तर से असहमति जताते हुए पदामी ने कुछ तल्खी से कहा,
    “साहब आप ‘इधर’ के गांव के हैं. ‘उधर’ तो जिला मुख्यालय आपके गांव के बराबर होगा. ‘उधर’ दस-पंद्रह घरों का एक गांव हो जाता हैं. अब ‘उधर’ के गांवों में ‘उधर’ लोग ही बचे हैं. बाकि सभी या तो हमारे सामान बाहर आ गए हैं या राहत शिविर में रहते हैं. पूरा का पूरा गांव ‘उधर’ ही हो गया हैं.”
    अब मुझे पदामी की बात की गंभीरता समझ में आने लगी थी. उसकी आवाज में उभर आई तल्खी का कारण समझ आ रहा था. फिर भी मैंने उसके ही शब्दों में स्पष्ट सुनने के लिए उसे डांटते हुए कहा,
    “ये क्या ‘इधर’ ‘उधर’ लगा रखा हैं? क्या मतलब है इसका?
मेरे इरादों से अनजान वह बोलता गया, “साहब! गाँव में मानते हैं कि शाम को सांप का नाम लेने से सांप आ जाता है इसीलिये अगर शाम को सांप का नाम लेना हो तो उसे रस्सी कहते हैं. वैसे ही ‘उधर’ सब ‘उधर’ के लोगों का नाम नहीं लेते. डरते हैं साहब! जैसे नाम लेते ही वे सामने आ खड़े होंगे. ‘उधर’ को आप लोग ‘नक्सली’ कहते हैं साहब.”
    अब पदामी की बात की गंभीरता समझ में आने के बाद मुझमे किसी कहानी को पाने का लोभ नहीं रह गया था क्योंकि मुझे पता था कि पदामी जो सुना रहा है वह कोई कहानी नहीं अपितु जख्म है, नासूर है, समाज का गैंग्रीन है. अब तक मैं नक्सलवाद के कारण और निदान की चर्चाएं सुनते और करते आया था. पुलिस का पक्ष जानता था. पुलिस मुठभेड़ के प्रभावितों की आवाज सुनी थी. बुद्धिजीवियों का पक्ष सुना था पर उस क्षेत्र से कटने के लिये मजबूर हुए किसी रहवासी की आवाज नहीं सुनी थी. पहली बार मेरे पास उस पक्ष को सुनने का मौका आया था, इसीलिए मैं उसे और कुरेदने लगा.
    “तो तुम पुलिस में आने के बाद कभी ‘उधर’ नहीं गए हो?”  मैं भी उसके समान ही बात करने लगा.   
    “दो बार गया था साहब. एक बार माँ-बाबा को लाने गया था. मुझे डर था कि मेरे पुलिस में आ जाने के बाद ‘उधर’ के लोग मेरे माँ-बाबा को मार डालेंगे. उन्हें बचाने मैं यहाँ लेकर आया पर कोई मतलब नहीं निकला साहब...”
    पदामी फीकी उदास हंसी हंसा. नहीं! उस हंसी में सिर्फ उदासी नहीं का गाढ़ा कालापन नहीं था. उसमें खुद पर, समाज पर क्रोध का गाढ़ा रक्तिम लाल रंग भी था. जब उदासी और क्रोध भरी हंसी मिलती है तो दिल भेद देने वाली दुःख और व्यंग्य भरी तीखी हंसी बनती है. पदामी की हंसी भी ऐसी ही थी. जो मेरे दिल को मरोड़ने लगी. वह बोलता रहा,
    “मेरी माँ की जड़ें तो सल्फी के पेड़ से जुड़ीं थी. जैसे ही दोनों अलग हुए, माँ सूखती गई. कितना समझाया साहब... ‘उधर’ खतरा है... नहीं जाने दे सकता पर माँ अक्सर बाबा से कहतीं कि अब तो मैं तुम्हारे बूढ़ादेव को नहीं पूजती और तुम भी मेरे सल्फी को छोड़ आये. अब मैं नहीं जीयूँगी. जब माँ अब-तब थी. तब अक्सर माई माँ की कपाल में चढ़ जाती और सल्फी मांगती. उनके अपने सल्फी के पेड़ का रस. माँ कुछ खाती न पीतीं बस ‘सल्फी’ की रट लगाये रहती.”
    मैं अपनी कुर्सी पर कसमसाते बैठा रहा. पदामी के बाबा के दर्द और जुनून के पीछे की कहानी सुनने के जिज्ञासा दिल मरोड़ रही थी. दिल को चीर रही थी. ऐसी दर्दीली कहानी लिख सकने की हिम्मत मुझमे नहीं थी पर पदामी अपनी कहानी कहे जा रहा था. उसकी आवाज में हलाल करते बकरे की तड़प थी,
   “बेटा हूँ साहब. मुझसे माँ का हाल देखा नहीं गया. एक दिन बिना बताये निकल गया. रात के अँधेरे में छुपते-छुपाते गांव पहुंचा. सोचा था कि चुपचाप सल्फी का रस निकाल लाऊंगा पर सल्फी की जड़ें भी तो माँ से जुड़ीं थी. सल्फी का वो पेड़ सूख गया था. मैं वापस आ गया. यह सोचते हुए कि माँ को कुछ नहीं बताऊंगा पर शायद जड़ से जड़ की बात माँ तक पंहुच गई थी. मेरे आने से पहले ही माँ चल बसी थी.”
मेरी कसमसाहट और बढ़ गई. उफ़ इसका अनुभव कितना दर्दनाक है. इस समस्या ने ऐसी कई कहानियों को जन्म दिया होगा जिससे हम सब अनजान हैं. इस समस्या से प्रभावितों की चर्चा में यह पक्ष तो सदैव उपेक्षित ही रहा है. पहले मैंने किसी कहानी की खोज में उसे कुरेदा था लेकिन अब मै बस उसके दुःख भरे भावों की उद्दाम नदी में बेबस तिनके सा बह रहा था. इतने कष्ट को अभिव्यक्त करने में कोई शब्द समर्थ हो ही नहीं हो सकता. मुझसे उसके दर्द का बोझ कुछ पलों के लिये भी उठाना मुश्किल हो रहा था. मैंने उसकी बातों को आगे बढ़ते जाने से रोकने के लिये जिस प्रश्न से बात शुरू हुई थी उसी का अंतिम निष्कर्ष का विकल्प उसके सामने रख दिया,
     “अच्छा तुम्हारे बाबा तभी से गांव जाने की जिद पकड़ने लगे हैं.”
     लेकिन पदामी का मन अब भी उबलते पानी की तरह खदबदा रहा था. उसकी मन में बैठे दुखों के बुलबुले बातों की सतह पर आकर निरंतर फूट रहे थे. उसने बात का अंत करने के इस विकल्प को नकार दिया. वह कहता रहा,
    “हाँ साहब! बाबा पहले मेरी मजबूरी समझते थे पर जब से माँ गई हैं. तब से बाबा को अक्सर गाँव जाने के दौरे पड़ने लगे हैं. वह कहते हैं कि मैंने सल्फी को छोड़ दिया इसीलिए तेरी माँ चली गई. बूढ़ादेव को छोड़ दिया इसीलिए बूढ़ादेव नाराज हैं. कहीं तुम लोग भी न चले जाओ. उन्हें मनाना होगा... पुजई देना होगा... मैं गांव जा रहा हूँ. यह सब कहते हुए बाबा बस किसी भी पल चिल्लाते हुए दौड़ पड़ते हैं.”
पदामी बोले जा रहा था जैसे कोई पका फोड़ा फूट गया हो. रिसते मवाद की बू मेरे जेहन में उतरने लगी. पहले सिर्फ उसके बाबा के चेहरे में भरे दुःख और जुनून के व्यक्तिगत कारण को जानना चाहा था फिर मैंने किसी कहानी की खोज में उसके जख्मों को कुरेदा था पर बाद में मुझमे कहानी का नहीं, नक्कार खाने में तूती की इस आवाज को सुनने की इच्छा थी. मैंने ही उसके जख्मों को कुरेदा, लेकिन जो सुनने में आया, उससे मैं खुद भूकंप में हिलते मकानों की तरह थर्राते बैठा रहा.
     ‘नक्सलवाद एक नासूर है’ 
    आज तक यह वाक्य कई बार पढ़ा था, सुना था, खुद भी कहा था पर उस दिन जब इस नासूर के दर्द का एक छोटा सा हिस्सा मेरे सामने आया तो मैं आपादमस्तक हिल गया.
    "साहब मैं जब भी अखबार पढ़ता हूँ तो पाता हूँ कि बहुत से मानवाधिकार वाले सिर्फ ‘उधर’ के लोगों को ही जुल्मों का शिकार ‘बेचारे’ मानते हैं. हमारा क्या? मेरे जैसे कई हैं साहब. जो पहले एस.पी.ओ. बने  फिर पुलिस में आ गये. जैसे पुलिस में आ के हमने पाप कर दिया साहब. पुलिस हो गए तो अब हम मानव ही नहीं रहे, कोई हमारा दर्द सुनने वाला नहीं है. आपने कहा है न कि बड़े पेड़ एक जगह से उखड़ कर दूसरी जगह नहीं पनपते इसी लिए मुझे अपने माँ-बाबा को खोना पड़ा. मैं तो नया पेड़ हूँ, पनप गया. लेकिन कड़ी धूप में छाँव की जरूरत तो सभी को होती हैं साहब. मेरे को भी थी लेकिन मेरी छाँव तो छीन ली गई. इसका जिम्मेदार कौन है साहब.”
पदामी का फोड़ा अब भी रिस ही रहा था.
    “इसके जिम्मेदार ढूंढना तो दूर साहब... मेरे दुखों को ये लोग दुःख ही मान लें तो भी बहुत है.”  
    मैं हतप्रभ बैठा रहा. कुछ न कह सका.  तभी पदामी ने आगे कहा,
    “अच्छा साहब! आप तो कहानी कहते हैं न; कहिये न, एक कहानी मेरी भी कि ऐसे सारे समाज सुधारक मेरे जैसों का दर्द भी सुन सकें.”

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