Monday 1 May 2017

एक कहानी मेरी भी


साहित्य अमृत के अप्रेल 2017 अंक में प्रकाशित-
   सालों से मेरी दिनचर्या में सुबह की सैर अपना खूंटा गाड़े खड़ी है. चाहे बादल बरसे या पूस की कनकनाती ठंडी हवा चले, मेरी सुबह की सैर कभी बंद नहीं होती. उस दिन भी मैं सूर्योदय के साथ ही निकल पड़ा था. कुछ दूर जाते ही मैंने देखा कि मेरे अर्दली के बूढ़े पिताजी दौड़े आ रहे हैं. उनके कमजोर शरीर पर सिर्फ एक मैली सी धोती है. वह नंगे पाँव दौड़ रहे हैं पर उनकी दौड़, उनकी उम्र और जर्जर काया से जवान है.
उसके पीछे मेरा अर्दली मड़कम पदामी दौड़ता आ रहा था. मुझे देख वह थोडा धीमा हुआ. मैंने पूछा,
   “क्या हुआ?”
   जवाब देने की जगह उसने मुझे सलाम किया और कहा, “फिर वही साहब.” फिर अपने पिताजी के पीछे दौड़ पड़ा.
   उसने पहले एक बार मुझे बताया था कि उसके पिताजी आजकल यूँ ही कहीं भी दौड़ पड़ते हैं. अभी कुछ ही दिन पहले मैंने उन्हें तेज चाल से कस्बे के बाहर की सड़क पर कुछ बड़बड़ाते हुए जाते देखा था, कुछ दूर जाकर वे एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये और उस पेड़ से ही कुछ बातें करने लगे थे. उन्हें कुछ असामान्य सा व्यवहार करते देख मैंने ही मेरे अर्दली को उनके पेड़ के नीचे खड़े होने के बारे में बताया था. वह तुरंत उन्हें पेड़ के पास से लेकर घर छोड़ आया था. एक दिन और जब मैं सुबह की सैर से वापस आ रहा था तो मैंने उन्हें फिर से उसी पेड़ के नीचे खड़े होकर बातें करते देखा था क्योंकि मैं पहले भी उन्हें यहाँ खड़े देख चुका था इसलिए मेरा ध्यान एक दम से उन पर चला गया. वे उस पेड़ से बातें कर सड़क पर कस्बे से बाहर जाने की दिशा में बढ़ गए थे. वे कुछ बूढ़ादेव...बूढ़ादेव... बड़बड़ा रहे थे. उसदिन तो मैंने ही उन्हें घर भेज दिया था. वे काफी बुजुर्ग हैं. मैंने सोचा था कि यह बड़बड़ाहट, यह भटकना बुढ़ापे के लक्षण ही होंगे लेकिन आज उनके चेहरे पर दर्द और जूनून के गहरे भाव ने मुझे विचलित कर दिया.
   वह कुछ अस्पष्ट से गोंडी शब्द भी तेज आवाज में चिल्लाते जा रहे थे.
मुझे इतना समझ आया कि वह, ‘बूढ़ा देव मैं आ रहा हूँ... मेरे सल्फी मैं आ रहा हूँ..’ कहते दौड़ रहे हैं. उनके चेहरे में कुछ खास था. मैं रुक गया. कुछ देर पलट कर उन्हें देखता रहा.  धीरे-धीरे वह दोनों दौड़ते हुए मेरी आँखों से ओझल हो गये पर पदामी के पिताजी का चेहरा किसी पत्थर पर उकेरे निशान सा मेरे मन पर उभर आया. कानों में भी उसकी जुनूनी आवाज गूंजने लगी. अब मुझसे सैर के लिए आगे न बढ़ा गया. मैं वापस आ गया.
   साढ़े नौ बजे मड़कम पदामी घर पर हाजिर था. मेरे दिलोदिमाग में उसक पिताजी का जुनूनी चेहरा बार-बार उभर आ रहा था.  मैंने उससे पूछा,
   “सुबह क्या हुआ था? तुम्हारे बाबा ऐसे क्यों दौड़ रहे थे?”
   मैंने उससे संवेदना दिखाते हुए पूछा. वैसे भी उसके पिताजी के चेहरे पर छाये दर्द और जुनून के बादलों में घिरा मैं बिना पूछे रह भी नहीं पा रहा था. उसके जवाब में अपनी जड़ों से उखड़ कर गिरते बूढ़े बरगद का दर्द भरा था.
    “असल में साहब बाबा जनम भर गाँव में रहे हैं. इस बुढ़ौती में मैं उन्हें यहाँ ले आया हूँ. उनका मन यहाँ नहीं लगता है. उन्हें गांव की मिट्टी, घर-आँगन, खेत सब बुलाते हैं. इसीलिए वो सातों दिन आठों पहर गांव की याद करते रहते हैं. आजकल ऐसे ही अचानक गाँव जाने के लिए दौड़ पड़ते हैं.
   “हाँ! कुछ ऐसा ही चिल्ला भी रहे थे न....’बूढ़ा देव!...मैं आ रहा हूँ....मेरे सल्फी मैं आ रहा हूँ.’ वह यही कह रहे थे. है न?”
    “हाँ साहब जी! बाबा गॉव के मांझी थे. हमारे घर में बूढ़ा देव और माई विराजे थी. बाबा की मानता थी कि जब मेरा बेटा होगा तो वे बूढ़ा देव को पुजई देंगे...पर अब हम तो गांव से दूर यहाँ है. उधर जा नहीं सकते. लेकिन आजकल बाबा ने गांव में पुजई देने जाने की रट लगा ली है. अक्सर वे चिल्लाने लगते हैं कि बूढ़ादेव मैं आ रहा हूँ.” उसने अपनी समस्या बताई.
   मैंने दूसरे की समस्या को हल्के में लेने के सामान्य मानवीय व्यवहार का उदाहरण बनते हुए तुरंत हल सुझाया,
   “तो यहाँ पुजई दे दो”
    “यहाँ तो पुजई दे चुके साहब जी पर बाबा के बूढ़ा देव तो गांव के घर में हैं.” मुझे तत्काल जवाब मिला.
    हर बात का आसान सा दिखता हल मन की भूलभुलैया में जाकर आसान तो नहीं ही रह जाता. बात कुछ गहरी सी लगने लगी थी. छुट्टी थी. भरपूर समय था. मैं पूरी बात समझने के लिए उत्सुक हो उठा. असल में मुझे उसके बाबा के जुनूनी चेहरे का रहस्य जानने की उत्कट इच्छा होने लगी थी. मुझे लग रहा था कि सिर्फ इतनी ही बात उस गहन दर्द और जुनून से भरे चेहरे का कारण नहीं हो सकती इसीलिए मैंने फिर उसे बात करने के लिए उकसाते हुए कहा,  
    “अरे! तुम्हारे घर के उस पत्थर में ही बूढ़ादेव थोड़े हैं. भगवान तो सब जगह हैं. क्या यहाँ, क्या वहां. अब भी तुम कितनी पुरातनपंथी बातों को मानते हो पदामी.”
पदामी चुप रहा. उसकी आँखे जमीन में गड़ गई जैसे सोच रहा हो कि उसका कुछ कहना मेरी बात का विरोध तो नहीं लगेगा फिर शायद अपने बूढ़ादेव पर विश्वास ने उसे बोलने पर विवश कर दिया. कुछ देर रूककर उसने कहा,
    “साहब जी आप बूढ़ादेव को नहीं मानते है इसीलिए नहीं जानते. बूढ़ादेव गांव-घर के देवता हैं. यदि नाराज हो जाएँ तो समूल नाश कर दें. बाबा डरते हैं कि वे बूढ़ादेव को छोड़ आये हैं तो देव जरूर नाराज होंगे. बूढ़ादेव बार-बार बाबा के सपने में आते हैं. उन्हें गरियाते हैं. मारते हैं. बूढ़ादेव को गाँव में छोड़कर आने के कुछ ही दिन बाद ही हम माँ को खो चुके हैं. माँ को खोने के बाद, अब हम सब को खोने का डर बाबा के मन में बैठ गया है. वे गाँव जाना चाहते हैं लेकिन मैं उन्हें गाँव जाने नहीं दे सकता इसीलिये बाबा अचानक ही ऐसे चिल्लाते हुए दौड़ पड़ते हैं.”
    अब पदामी की आवाज में कहीं खो जाने से आने वाली गहराई आ गई थी. ऐसा लगने लगा जैसे आवाज किसी गहरे कुँए से आ रही हो. मुझे कहीं जाने की जल्दी तो थी नहीं. मैंने पदामी को उसके मन के कुँए में गहरे उतरने दिया. वह मेरे सामने उकड़ू बैठ गया. कहीं डूबा हुआ सा. मेरे भीतर के लेखक कीड़े को इसमें एक कहानी दिखने लगी इसीलिए मैंने उसे कोंचा,
    “अच्छा तो बूढ़ादेव के प्रकोप के डर से तुम्हारे बाबा गांव जाना चाहते हैं?”
    “जी साहब...”
    पदामी इतना कह चुप हो गया लेकिन उसकी यह चुप्पी वाचाल थी. मुझे इतना अनुभव तो है ही कि जब किसी की चुप्पी वाचाल हो तो पूछने वाले के कुछ पलों की चुप्पी  अक्सर बताने वाले के मन में छुपे उस बात के विवरण को खुद ही सामने ले आती है. मैं चुप बैठा रहा. मैंने कुछ भी नहीं कहा,
    “बस यही कारण नहीं है साहब.”
पदामी खुद से आगे कहने लगा. अब उस भोले-भाले आदिवासी की आवाज किसी गहरी घाटी से आने लगी  थी.
    “बाबा बताते हैं साहब! जब वे माँ के घर शादी से पहले रहने के लिए गए थे तो माँ-बाबा ने मिलकर सल्फी का एक पेड़ जंगल में उस जगह लगाया, जहाँ बाद में वे अपने घर का आँगन बनाने वाले थे. माँ बाबा से हमेशा कहती थी कि यह सल्फी का पेड़ उनके प्यार की निशानी है, इसका ध्यान रखना, जब तक यह अच्छे से फूलेगा-फलेगा, वो मानेंगी कि बाबा उनसे प्यार करते हैं. जवाब में बाबा कहते कि जब तक माँ उनके बूढ़ादेव को पूजती रहेंगी, बाबा उनसे प्यार करते रहेंगे. जब भी बाबा सल्फी का रस निकाल सल्फी बनाते, पहला दोना माँ को ही देते. वो सल्फी का पेड़ दोनों की आत्मा से जुड़ा था. कभी-कभी बचपन में मेरे को सल्फी के पेड़ से जलन होने लगती थी कि दोनों मेरे से ज्यादा इस सल्फी के पेड़ से प्यार करते हैं.”
     पदामी की बातों और बूढ़े के दर्द और जूनून से सराबोर चेहरे में मैं कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ पा रहा था. मैं नहीं समझ पा रहा था कि जब इसके बाबा का गाँव से इतना जुड़ाव है तो यह उन्हें गाँव ले क्यों नहीं जाता? लेकिन मैंने अभी भी कुछ नहीं पूछा. कोई उद्दाम वेग से बहने वाली नदी की राह में छोटे-छोटे बांध भी बना दिये जाएँ तो उसका वेग कम हो जाता है. प्रश्न भी यही करते हैं. मैं बस सुनता रहा.
     वह उकडू बैठा था. ऑंखें दूर अनंत में देखती हुई. आवाज खोई-खोई हुई. वह कहता रहा,
    “जब गांव छोड़ना पड़ा तो माँ रो-रोकर पागल सी होने लगी थी. वह कभी बूढ़ादेव के पास जाती तो कभी सल्फी के पेड़ को बाँहों में भर जोर-जोर से रोतीं. मुझसे कहती थीं कि छोड़ दे हम दोनों को अपने गाँव,  अपने जंगल में. यहीं जन्मे है यहीं मिट्टी बन जायेंगे. मैं कैसे उन्हें समझाता कि अब ये जंगल अपना नहीं रहा.”
    पदामी के माँ-बाबा की कहानी बहुत मार्मिक होने लगी थी. सुबह उसके बाबा का जुनूनी चेहरा याद आते ही खुद को रोक न सका. मैं कह उठा,
    “जब तुम्हारे माँ-बाबा को अपने गाँव से इतना प्यार था तो तुम्हें उन्हें गाँव में ही छोड़ देना था. बीच-बीच में खुद जाकर देख आते. बड़े पेड़ अपनी जमीन पर ही पनपते हैं. दूसरी जगह उनकी जड़े फिर से जम नहीं पाती. अब भी सोच सकते हो. अपने घर में तुम्हारे बाबा कम से कम खुश तो रहेंगे. अभी भी उन्हें गाँव भेज दो.”
यह वाक्य मेरे जबान से निकल तो गया लेकिन इसका जो उत्तर आया वह मेरे लिए अकल्पनीय था. उद्दामवेगी नदी बांध तोड़ बह निकली. वह तड़प कर कहने लगा,
     “मैं भी तो बेटे का दिल रखता हूँ साहब.  कैसे छोड़ देता उन्हें गांव में मरने के लिए और अब भी कैसे भेज दूं. आप के लिए ‘उधर’ नया है साहब. आप कभी ‘उधर’ गए नहीं हैं इसीलिए ऐसा कह रहे हैं. मैं यदि माँ-बाबा को गॉव में छोड़ देता तो ‘उधर’ के लोग मेरे माँ-बाबा को मारने में चार दिन भी नहीं लगाते. मैं पुलिस में आ गया हूँ न साहब. कभी ‘उधर’ गया और पकड़ में आ गया तो वह लोग मेरे को भी उसी क्षण मार डालेंगे. अब ‘उधर’ ऐसा ही होता हैं साहब.”
    इतना कहते हुए पदामी की आवाज कहीं डूब सी गई. बुदबुदाती हुई आवाज में गोंडी में जो सुनाई आया उसका मतलब था,
    “यहाँ लाकर भी कहाँ बचा पाया माँ को...और बाबा को भी तो पल-पल की मौत के जैसी जिंदगी ही दे पा रहा हूँ.”
    माहौल कुछ ज्यादा ही भारी लगने लगा. मैंने जितना सोचा था, कारण उससे कहीं अधिक गंभीर था. आखिर ये नक्सलवाद सिर्फ उस बूढ़े को ही नहीं, सारे समाज को भी दर्द दे रहा है. मुझे भी. मैं भी अपना परिवार सुरक्षित मैदानी इलाके में छोड़कर इस नक्सल प्रभावित क्षेत्र में आया हूँ और जाने कब  तक पड़ा रहूँगा. इस भारी माहौल को कुछ हल्का करने के लिए मैंने पदामी से यूँ ही पूछ लिया,
    “'कहाँ हैं तुम्हारा गांव?
     जो जवाब मिला वह मेरे अर्दली का जवाब नहीं था. वह जवाब में किया प्रश्न था- अपनी जमीन से जबरदस्ती काट दिए गए इंसान का.
    “'गांव अब हमारे हैं कहाँ साहब! आपने कभी ‘उधर’ के गांव देखे हैं साहब?
     अपने अर्दली से अपने प्रश्न के उत्तर में प्रतिप्रश्न मिलना असंभव सा ही होता है इसलिये मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था पर मैंने इस प्रश्न में छुपे अर्थ को भांपते हुए कुछ अचकचाते हुए लेकिन माहौल हल्का करने के उद्देश्य से कुछ हंसते हुए जवाब दिया,
    “अरे हाँ भाई...मैं भी गांव का ही हूँ. मेरा बचपन गांव में ही बीता है.”
    यूँ मुझे अहसास तो था कि सारे गाँव एक से नहीं होते. मेरे उत्तर से असहमति जताते हुए पदामी ने कुछ तल्खी से कहा,
    “साहब आप ‘इधर’ के गांव के हैं. ‘उधर’ तो जिला मुख्यालय आपके गांव के बराबर होगा. ‘उधर’ दस-पंद्रह घरों का एक गांव हो जाता हैं. अब ‘उधर’ के गांवों में ‘उधर’ लोग ही बचे हैं. बाकि सभी या तो हमारे सामान बाहर आ गए हैं या राहत शिविर में रहते हैं. पूरा का पूरा गांव ‘उधर’ ही हो गया हैं.”
    अब मुझे पदामी की बात की गंभीरता समझ में आने लगी थी. उसकी आवाज में उभर आई तल्खी का कारण समझ आ रहा था. फिर भी मैंने उसके ही शब्दों में स्पष्ट सुनने के लिए उसे डांटते हुए कहा,
    “ये क्या ‘इधर’ ‘उधर’ लगा रखा हैं? क्या मतलब है इसका?
मेरे इरादों से अनजान वह बोलता गया, “साहब! गाँव में मानते हैं कि शाम को सांप का नाम लेने से सांप आ जाता है इसीलिये अगर शाम को सांप का नाम लेना हो तो उसे रस्सी कहते हैं. वैसे ही ‘उधर’ सब ‘उधर’ के लोगों का नाम नहीं लेते. डरते हैं साहब! जैसे नाम लेते ही वे सामने आ खड़े होंगे. ‘उधर’ को आप लोग ‘नक्सली’ कहते हैं साहब.”
    अब पदामी की बात की गंभीरता समझ में आने के बाद मुझमे किसी कहानी को पाने का लोभ नहीं रह गया था क्योंकि मुझे पता था कि पदामी जो सुना रहा है वह कोई कहानी नहीं अपितु जख्म है, नासूर है, समाज का गैंग्रीन है. अब तक मैं नक्सलवाद के कारण और निदान की चर्चाएं सुनते और करते आया था. पुलिस का पक्ष जानता था. पुलिस मुठभेड़ के प्रभावितों की आवाज सुनी थी. बुद्धिजीवियों का पक्ष सुना था पर उस क्षेत्र से कटने के लिये मजबूर हुए किसी रहवासी की आवाज नहीं सुनी थी. पहली बार मेरे पास उस पक्ष को सुनने का मौका आया था, इसीलिए मैं उसे और कुरेदने लगा.
    “तो तुम पुलिस में आने के बाद कभी ‘उधर’ नहीं गए हो?”  मैं भी उसके समान ही बात करने लगा.   
    “दो बार गया था साहब. एक बार माँ-बाबा को लाने गया था. मुझे डर था कि मेरे पुलिस में आ जाने के बाद ‘उधर’ के लोग मेरे माँ-बाबा को मार डालेंगे. उन्हें बचाने मैं यहाँ लेकर आया पर कोई मतलब नहीं निकला साहब...”
    पदामी फीकी उदास हंसी हंसा. नहीं! उस हंसी में सिर्फ उदासी नहीं का गाढ़ा कालापन नहीं था. उसमें खुद पर, समाज पर क्रोध का गाढ़ा रक्तिम लाल रंग भी था. जब उदासी और क्रोध भरी हंसी मिलती है तो दिल भेद देने वाली दुःख और व्यंग्य भरी तीखी हंसी बनती है. पदामी की हंसी भी ऐसी ही थी. जो मेरे दिल को मरोड़ने लगी. वह बोलता रहा,
    “मेरी माँ की जड़ें तो सल्फी के पेड़ से जुड़ीं थी. जैसे ही दोनों अलग हुए, माँ सूखती गई. कितना समझाया साहब... ‘उधर’ खतरा है... नहीं जाने दे सकता पर माँ अक्सर बाबा से कहतीं कि अब तो मैं तुम्हारे बूढ़ादेव को नहीं पूजती और तुम भी मेरे सल्फी को छोड़ आये. अब मैं नहीं जीयूँगी. जब माँ अब-तब थी. तब अक्सर माई माँ की कपाल में चढ़ जाती और सल्फी मांगती. उनके अपने सल्फी के पेड़ का रस. माँ कुछ खाती न पीतीं बस ‘सल्फी’ की रट लगाये रहती.”
    मैं अपनी कुर्सी पर कसमसाते बैठा रहा. पदामी के बाबा के दर्द और जुनून के पीछे की कहानी सुनने के जिज्ञासा दिल मरोड़ रही थी. दिल को चीर रही थी. ऐसी दर्दीली कहानी लिख सकने की हिम्मत मुझमे नहीं थी पर पदामी अपनी कहानी कहे जा रहा था. उसकी आवाज में हलाल करते बकरे की तड़प थी,
   “बेटा हूँ साहब. मुझसे माँ का हाल देखा नहीं गया. एक दिन बिना बताये निकल गया. रात के अँधेरे में छुपते-छुपाते गांव पहुंचा. सोचा था कि चुपचाप सल्फी का रस निकाल लाऊंगा पर सल्फी की जड़ें भी तो माँ से जुड़ीं थी. सल्फी का वो पेड़ सूख गया था. मैं वापस आ गया. यह सोचते हुए कि माँ को कुछ नहीं बताऊंगा पर शायद जड़ से जड़ की बात माँ तक पंहुच गई थी. मेरे आने से पहले ही माँ चल बसी थी.”
मेरी कसमसाहट और बढ़ गई. उफ़ इसका अनुभव कितना दर्दनाक है. इस समस्या ने ऐसी कई कहानियों को जन्म दिया होगा जिससे हम सब अनजान हैं. इस समस्या से प्रभावितों की चर्चा में यह पक्ष तो सदैव उपेक्षित ही रहा है. पहले मैंने किसी कहानी की खोज में उसे कुरेदा था लेकिन अब मै बस उसके दुःख भरे भावों की उद्दाम नदी में बेबस तिनके सा बह रहा था. इतने कष्ट को अभिव्यक्त करने में कोई शब्द समर्थ हो ही नहीं हो सकता. मुझसे उसके दर्द का बोझ कुछ पलों के लिये भी उठाना मुश्किल हो रहा था. मैंने उसकी बातों को आगे बढ़ते जाने से रोकने के लिये जिस प्रश्न से बात शुरू हुई थी उसी का अंतिम निष्कर्ष का विकल्प उसके सामने रख दिया,
     “अच्छा तुम्हारे बाबा तभी से गांव जाने की जिद पकड़ने लगे हैं.”
     लेकिन पदामी का मन अब भी उबलते पानी की तरह खदबदा रहा था. उसकी मन में बैठे दुखों के बुलबुले बातों की सतह पर आकर निरंतर फूट रहे थे. उसने बात का अंत करने के इस विकल्प को नकार दिया. वह कहता रहा,
    “हाँ साहब! बाबा पहले मेरी मजबूरी समझते थे पर जब से माँ गई हैं. तब से बाबा को अक्सर गाँव जाने के दौरे पड़ने लगे हैं. वह कहते हैं कि मैंने सल्फी को छोड़ दिया इसीलिए तेरी माँ चली गई. बूढ़ादेव को छोड़ दिया इसीलिए बूढ़ादेव नाराज हैं. कहीं तुम लोग भी न चले जाओ. उन्हें मनाना होगा... पुजई देना होगा... मैं गांव जा रहा हूँ. यह सब कहते हुए बाबा बस किसी भी पल चिल्लाते हुए दौड़ पड़ते हैं.”
पदामी बोले जा रहा था जैसे कोई पका फोड़ा फूट गया हो. रिसते मवाद की बू मेरे जेहन में उतरने लगी. पहले सिर्फ उसके बाबा के चेहरे में भरे दुःख और जुनून के व्यक्तिगत कारण को जानना चाहा था फिर मैंने किसी कहानी की खोज में उसके जख्मों को कुरेदा था पर बाद में मुझमे कहानी का नहीं, नक्कार खाने में तूती की इस आवाज को सुनने की इच्छा थी. मैंने ही उसके जख्मों को कुरेदा, लेकिन जो सुनने में आया, उससे मैं खुद भूकंप में हिलते मकानों की तरह थर्राते बैठा रहा.
     ‘नक्सलवाद एक नासूर है’ 
    आज तक यह वाक्य कई बार पढ़ा था, सुना था, खुद भी कहा था पर उस दिन जब इस नासूर के दर्द का एक छोटा सा हिस्सा मेरे सामने आया तो मैं आपादमस्तक हिल गया.
    "साहब मैं जब भी अखबार पढ़ता हूँ तो पाता हूँ कि बहुत से मानवाधिकार वाले सिर्फ ‘उधर’ के लोगों को ही जुल्मों का शिकार ‘बेचारे’ मानते हैं. हमारा क्या? मेरे जैसे कई हैं साहब. जो पहले एस.पी.ओ. बने  फिर पुलिस में आ गये. जैसे पुलिस में आ के हमने पाप कर दिया साहब. पुलिस हो गए तो अब हम मानव ही नहीं रहे, कोई हमारा दर्द सुनने वाला नहीं है. आपने कहा है न कि बड़े पेड़ एक जगह से उखड़ कर दूसरी जगह नहीं पनपते इसी लिए मुझे अपने माँ-बाबा को खोना पड़ा. मैं तो नया पेड़ हूँ, पनप गया. लेकिन कड़ी धूप में छाँव की जरूरत तो सभी को होती हैं साहब. मेरे को भी थी लेकिन मेरी छाँव तो छीन ली गई. इसका जिम्मेदार कौन है साहब.”
पदामी का फोड़ा अब भी रिस ही रहा था.
    “इसके जिम्मेदार ढूंढना तो दूर साहब... मेरे दुखों को ये लोग दुःख ही मान लें तो भी बहुत है.”  
    मैं हतप्रभ बैठा रहा. कुछ न कह सका.  तभी पदामी ने आगे कहा,
    “अच्छा साहब! आप तो कहानी कहते हैं न; कहिये न, एक कहानी मेरी भी कि ऐसे सारे समाज सुधारक मेरे जैसों का दर्द भी सुन सकें.”

                                -----०-----                                                                                        


Monday 6 March 2017

एकाधिकार की निस्सारता

( दैनिक जागरण के साहित्यिक पुनर्नवा दिनांक ०६/०३/१७  में प्रकाशित)                                                                                       
        कुछ लोग छेनी की तरह होते हैं, जो दिमाग की सिल में एक ही मुलाकात में निशान छोड़ जाते हैं जबकि कुछ रस्सी की तरह होते हैं जो समय के साथ  निशान बनाते हैं. प्रोफ़ेसर के इस लम्बे जीवन में ऐसे कई निशान डॉ महतो के दिमाग में हैं. जिनमें से कई अब देश में ही बड़े पदों पर हैं तो कई विदेश में शोध कर रहे हैं. कालेज में मनन से जब वह पहली बार मिले थे, तब वह उन्हें एक आम छात्र ही लगा था.
           बाद में मनन उनके मार्गदर्शन में ही शोध कार्य करने लगा. बस तभी से उसके खुले और परिपक्व विचारों की रस्सी डॉ. महतो पर अपने निशान बनाती चली गई. मनन उम्र में उनसे बहुत छोटा था पर अनुभव में नहीं. अनुभव की सब्जियां कोई खुद उपजा कर पकाए या दूसरों के उपजाये को पकाए. सीख का स्वाद तो वही मिलना है. जब मनन किसी विषय पर बात करता तो लगता जैसे वह इस पर पूरा शोध किये बैठा है. जाने उसमें क्या था? अच्छा व्यक्तित्व या अच्छी व्यक्तव्य कला या उसकी आँखों से झलकती उसके विचारों की गहराई. वह इतनी आसानी से अपने विचारों की नदियां बहाता चलता, जैसे इनका उदगमस्रोत ही वही हो.
         वह डॉ. महतो के सामने भी ऐसा ही करता, पर यह बात ऐसे प्रतिभावान छात्र का गुरु होने का गर्व महसूस कराने की जगह, डॉ. महतो को उससे दूर करती. उन्हें लगता, कि वे जाने-माने प्रोफेसर हैं, जिनसे आवश्यकतानुसार शासक-प्रशासक भी राय लिया करते हैं और ये कल का छात्र उनसे ही तर्क करने पर उतारू हो जाता है. ऐसा नहीं था कि हर वक्त मनन के तर्क सही ही होते, लेकिन उससे तर्क कर उसकी प्रतिभा को तराशने, गुरु होने का दायित्व निभाने की जगह, डॉ. महतो न चाहते हुए भी कई बार उसके विचार प्रवाह को बांध ही देते, पर कोई भी बंधन कभी बहते जल के प्रवाह को सदा के लिए रोक सका है? डॉ. महतो के डांटने पर मनन उस समय चुप हो जाता लेकिन अपनी ऐसी हर चुप्पी के बाद, वह उस विषय में और डूबकर सत्य का मोती चुन लाता.
उसकी मौजूदगी डॉ. महतो को कंझाती लेकिन नामौजूदगी उसकी प्रतिभा को सराहने पर विवश करती. उनके मन के गह्वर में उमड़ आते इन विरोधी विचारों और अनिच्छा के भँवरों के बावजूद, जाने वे कैसी धाराएँ थी जिनमें बहते हुए मनन उनका प्रिय बनता गया. यहाँ तक कि उन्होंने उसे शोध कार्य हेतु अपने निजी पुस्तकालय का लाभ लेने की अनुमति भी दे दी. उनका निजी पुस्तकालय; जहाँ उनकी जान बसती थी. जहाँ उन्होंने आज तक किसी छात्र को आने की अनुमति नहीं दी थी. जहाँ पूरे देश से संग्रहित दुर्लभ पांडुलिपियां, पुस्तकें उन्होंने जमा कर रखी थीं.
          डॉ.महतो के ऐसे समृध्द संग्रह को देखते हुए मनन कुछ दुर्लभ पुस्तकों को पाकर ख़ुशी से किलक उठा. कुछ दिन तो वह किसी पुरानी शराब की तरह पुस्तकों को घूँट-घूँट पीता हुआ, इस पुस्तकालय के नशे में रहा. जब वह कुछ प्रकृतिस्थ हुआ तो उसने डॉ. महतो से कहा,
“सर! आप तो दुर्लभ पुस्तकों के अकूत भंडार के स्वामी हैं. इन सबको तो पुस्तकालयों में सहज उपलब्ध होना चाहिए. सर, यदि आप मुझे अनुमति दें तो मैं इनकी फोटोकॉपी कराना चाहता हूँ.”
      यह सुनते ही डॉ. महतो की स्थिति ‘काटो तो खून नहीं’ की हो गई. वह उस घड़ी को कोसने लगे जब उन्होंने मनन को अपने निजी पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति दी थी. उनके लिए यह दुर्लभ संग्रह ही, खुद को महत्त्वपूर्ण महसूस कराने का स्तम्भ था. कई बार इसी ने उन्हें देश-प्रदेश में पहचान दिलाई थी. कालांतर में उनके लिए उनकी विद्वता नहीं अपितु यह पुस्तक संग्रह ही उनका आत्मविश्वास, उनकी शक्ति, उनकी संपत्ति बन गया था. वह अपनी शक्ति, संपत्ति सारे लोगों में बांटने की सोच कर ही संज्ञाशून्य से हो गए.
         जब डॉ. महतो का मन सागर इस प्रस्ताव से उपजे विचारों के भीषण चक्रवातों का सामना कर रहा था. तब मनन आशा भरी नज़रों से उन्हें देख रहा था. वह उससे कैसे कह सकते थे कि अपनी महत्ता बनाये रखने के लिए, मैं इन्हें सुलभ नहीं बना सकता. अंततः उन्होंने मनन से कहा,
“कलम सिर्फ उन हाथों में उपयोगी होती है जो इससे लिख सकें. इसे सर्वसुलभ बना देने से सारे लोग लिखना नहीं सिख सकते. यह तो संसाधनों की बर्बादी मात्र होगी.
इस पर मनन ने कहा, पर सर, जब इंसान पहली बार कलम पकड़ता है, तब उसे लिखना नहीं आता, यदि लिख सकने वाले को ही कलम देने की शर्त रख दी जाये, तब तो कोई भी लिखना नहीं सीख सकता.”
          डॉ. महतो के पास इस सही बात का कोई जवाब नहीं था लेकिन उनके पास शोध मार्गदर्शक होने का हथियार था. उन्होंने मनन के हाथों में पकड़ी दुर्लभ पाण्डुलिपि ले ली, उसे डपटते हुए कहा,
‘मैंने तुम्हे शोध कार्य के लिए पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति दी है इसे सहज उपलब्ध बनाने की पैरवी करने के लिए नहीं. तुम अपना काम करो.
मनन ने अपनी गहरी आँखों में लबालब अविश्वास भरे हुए डॉ. महतो को देखा. इन नज़रों की सच्चाई का सामना करने की शक्ति उनमें न थी. वे हाथ में ली पाण्डुलिपि को सही जगह रखने मुड़ गये. उन्हें मनन की ऑंखें पीठ में चुभ रहीं थीं. अगले ही दिन उन्होंने मनन को शोध कार्य कराने से भी इंकार कर दिया. यह मनन के लिए तड़ितप्रहार सी ताड़ना थी, जिस पर उसका भविष्य भी दांव पर लग रहा था.
    मनन कुछ दिन तक उन्हें मनाता रहा. उनसे माफी मांगता रहा पर वे पुस्तकों से निर्जीव हो गए. पुस्तक- जिनमें दुनिया के सारे अहसास होते हैं फिर भी वे सारे अहसासों से परे होती हैं. आखिर एक दिन मनन चला गया. उनके पुस्तकालय में सैकड़ों पुस्तकें बढ़ गई लेकिन धीरे-धीरे उन्हें मनन की वही आँखे अपनी पीठ पर गड़ती महसूस होने लगीं.
          डॉ. महतो ने अपनी पुस्तकों से मोह के किले की प्राचीर में कैद थे. जिसका अहसास उन्हें नहीं था, या शायद होने लगा था कि कभी-कभी वह इन आँखों की भाले सी चुभन से सोते से जाग जाने लगे. एक स्थिति ऐसी आई कि कई रातें उन्होंने आँखों ही आँखों में निकाल दी पर न मनन की आँखों ने उनका पीछा छोड़ा न ही उन्होंने अपनी पुस्तकों पर एकाधिकार. उम्र बढ़ने के साथ-साथ सपनों में भी अब सिर्फ वह दो ऑंखें ही नहीं आक्षेप लगाते अनेक चेहरे नजर आने लगे थे.
         गुजरते वर्षों में कई शोधार्थियों ने उनके मार्गदर्शन में शोध किया. मनन के बाद उन्होंने किसी विद्यार्थी को अपने पुस्तकालय का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी. डॉ. महतो अपने शोधार्थियों को शोध कार्य में जुटे देखते रहते. वह देखते कि उनके शोधार्थी घंटों कंप्यूटर में काम करते है. जाने क्या पढ़ते रहते हैं? एक दिन उन्होंने अपने किले के द्वार की अर्गला खोल दी. अपने एक शोधार्थी से पूछ लिया, कि वह कम्प्यूटर में दिन-रात क्या करता है?
उनके सामने जैसे जानकारियों का समंदर लहरा उठा. उन्होंने सोचा था कि वे एक प्रश्न में अगत्स्य मुनि की तरह कंप्यूटर के सागर को सोख लेंगे, लेकिन उन्हें पता चला कि इसमें तो कई नदियाँ आकर मिलती जा रही थीं. उस शोधार्थी ने उन्हें बताया कि वह कप्यूटर पर सन्दर्भ ग्रंथो का अध्ययन करता है. वह इंटरनेट पर विषय से सम्बंधित एक समूह का सदस्य भी है, जहाँ लोग अपने शोधों से सम्बंधित सारी बातें साझा करते हैं. उसने उन्हें भी अपना एक ब्लॉग शुरू करने का सुझाव दे दिया.
डॉ. महतो के लिए तो यह दुनिया का आठवां आश्चर्य था कि लोग कैसे इतनी आसानी से अपना ज्ञान बाँट सकते है.
उन्होंने अविश्वास से कहा “तुम्हें विश्वास है कि लोग सही तथ्यों को साझा करते हैं”
इस पर डॉ. महतो के दिमाग की दीवारों से अनजान उस शोधार्थी ने भोलेपन से कहा,  “यहाँ विश्वास ही तो सब कुछ है सर, फिर बचपन से आप गुरुओं ने ही तो सिखाया था कि ज्ञान बांटने से बढता है. समूह में सभी ऐसा ही सोचते है और करते हैं और अपना ज्ञान बढ़ाते हैं.”
     एक बार इस पर बात शुरू हुई तो उनके बीच नई तकनीक के साथ-साथ, सूचनाओं की सहज उपलब्धता,  इससे होने वाली सुविधा,  इसके नुकसान सभी पर दिनों तक बात होती रही. उन्हें पता चला कि उनके पुस्तकालय की कई पुस्तकें जो राज्य में मिलनी तो दुर्लभ हैं लेकिन इन्टरनेट पर सहज उपलब्ध हैं. उन्हें शिद्दत से इस विषय में अपनी अज्ञानता का ज्ञान हुआ. उनके ज्ञान-चक्षु खुलने लगे.
उन्हें अपनी सोच पर ग्लानि महसूस होने लगी, ज्ञान स्त्रोतों पर एकाधिकार की निस्सारता का अहसास हो गया, अंततः उन्होंने अपनी सारी पुस्तकों की फोटोकापी कॉलेज पुस्तकालय में दे दी. राज्य पुस्तकालय से इन्हे ऑनलाइन करा दिया और अब वे इनसे प्राप्त ज्ञान को ब्लॉग के माध्यम से बांटते हुए खुद भी कई ब्लॉग फॉलो करते हुए ज्ञान अर्जित करते हैं.
वे एक इंटरनेशनल ब्लॉगर्स मीट में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया भी गए थे. अब मनन की ऑंखें उन्हें चुभती नहीं थी, लेकिन एक कसक सी होती थी, जो मनन के उज्जवल भविष्य के प्रति खुद को कसूरवार मानती थी. जब वे ब्लॉगर्स मीट में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे तब यह कसक कुछ अधिक ही बढ़ गई थी.
ऑस्ट्रेलिया में एअरपोर्ट पर डॉ. एम. के. घोष उनका स्वागत करने वाले थे. जो इस मीट के आयोजकों में से एक थे और हॉवर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे. उनसे डॉ. महतो की इतिहास की कई अवधारणाओं पर इन्टरनेट में चर्चा होते रहती थी. दोनों की ही कई अवधारणायें इस चर्चा से बदल गई थी. वह डॉ. घोष से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे.
एयरपोर्ट मे मिलते ही डॉ. महतो को डॉ. घोष ने नमस्कार किया और कहा, “सर! मुझे पहचाना आपने?”
प्रश्न पूछने के इस पल में डॉ. घोष की एक जोड़ी आँखें उन पर निबध्द थीं. इन निबध्द आँखों को देखते ही भाले की एक तीखी चुभन डॉ. महतो के सर्वांग में व्याप्त हो गई. हर्षातिरेक में उनकी आँखें भर आईं, वे भाव अवरूध्द कंठ से बोल उठे,
“गुरु गुड़ ही रहा गया और चेला शक्कर हो गया.”
उन्होंने चरणों की ओर झुकते डॉ. घोष को बीच में ही थाम कर, अपने गले से लगा लिया. अब न कोई कसक थी न चुभन, बस निर्बाध बहती ज्ञानगंगा थी. 

Tuesday 10 January 2017

हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी

 साहित्य अमृत युवा हिंदी कहानीकार प्रतियोगिता २०१५ में प्रथम स्थान प्राप्त कहानी 

  वह ओस से भीगी-धुली सुबह होगी; जब एक जंगल की पगडण्डी में हम यूँ ही टहलते हुए, बहुत दूर निकल जायेंगे. मैं एक खुमारी में चल रहा होऊंगा, तुम्हारे साथ की खुमारी में. तुम क्यों चलती रहोगी; ये मैं सोचना भी नहीं चाहता, क्योंकि जानता हूँ- तुम्हें पहाड़, जंगल, पेड़-पौधों का साथ, सूरज, नीला आसमान सब बहुत पसंद है. मेरे साथ यूँ चलते जाने में मेरे प्यार के अलावा, किसी भी कारण का होना सोच मैं इनसे ईर्ष्यालु नहीं होना चाहता. तुम मेरे साथ चल रही होगी, मेरे लिये यही बहुत है.
  वह पगडण्डी जब जंगल के अन्दर बहते हुए एक नाले के किनारे पड़े मोटे अनगढ़े पत्थरों में खो जाएगी, तो मेरी वह खुमारी टूटेगी. सामने दुधिया जल पत्थरों से मिल गाने गाता हुआ कल-कल बहता होगा. तब मुझे समझ में आएगा, कि तुम्हारे खुमार में खोये हुए, तुम्हें कहाँ ले आया हूँ. चारों ओर सागौन के, साल के बड़े–बड़े पेड़ होंगे. जिनके पत्तों की झिरी से सूरज की किरणें झर रही होंगी. तुम्हारे चेहरे पे पड़ती ये किरणें तुम्हारे चेहरे की चमक में खोती सी लगेंगी.
  पूरे वातावरण में घने जंगल की महक बिखरी हुई होगी. तुम लम्बी-लम्बी सांसे लेकर ये महक अपने अंतस में भर लेने की कोशिश करती रहोगी. इस महक के अलावा हमारे आस-पास होगी- पत्तों से फिसल कर जंगल की जमीन को चूमती ओस की बूंदों की टप-टप, हरे पत्तों की सरसराहट, पहाड़ी नाले की कलकल-छलछल, दूर कूकती कोयल की तान. तुम मुझे भूल कर पूरी तरह से जंगल के खुमार में खो जाओगी. मैं तुम्हारी चढ़ती-उतरती सांसों में खोया, तुम्हें देखता रहूँगा.
  तभी एकदम से परेशान होकर मैं तुमसे कहूंगा,
  “सरू ! चलो वापस चलते हैं, हम जंगल में बहुत अन्दर आ गए हैं.” 
  अगले ही पल मैं तुम्हारा हाथ पकड़ तेज-तेज चलना शुरू कर दूंगा. तुम मेरे हाथ पकड़ने से शरमाई हुई मेरे साथ खिंची चली आओगी. मेरी हथेली से घिरी अपनी पसीजती हथेली, धड़कता दिल और धौंकनी सी चलती सांसों के साथ.
   कुछ देर बाद चलते-चलते ही मैं तुमसे कहूँगा,
     “दरअसल पास ही कंही जंगल कोतवाल चिल्ला रहा है, फिर एक चीतल की चेतावनी भी आई, और नाले के उस पार के महुआ के पेड़ पर बैठे बन्दर भी चिल्लाने और उछल कूद करने लगे हैं.”
    तुम एक प्रश्न भरी नजर से मुझे देखोगी फिर नजरें वापस पगडण्डी पर टिका मेरे साथ चलती रहोगी, यह सोचते हुए कि बन्दर कब शांत बैठते हैं जो उन्हें उछल-कूद करते देख मैं यूँ भागने सा लगा?
   मैं आगे कह रहा होऊंगा. “उनकी हरकतों का मतलब है, कि तेंदुआ कहीं आसपास है.”
  यह सुन तुम्हारी धौंकनी सी चलती साँस तो रुक ही जाएगी; तुम अमलतास के पीले फूलों को मात देते पीले चेहरे से बोलोगी, “क्या! तेंदुआ यहाँ आ गया तो?”
  मैं तुम्हें आश्वस्त करते हुए कहूँगा, “नहीं, चिंता मत करो, तेंदुआ यहाँ से अभी दूर होगा. बन्दरों की चटर-पटर अभी इतनी ज्यादा नहीं है और वो हमारे से विपरीत दिशा में देख रहें हैं.”
  यह सुन तुम खिलखिला कर हँसते हुए, रुक कर कहोगी, “तुम्हें कैसे पता ? क्या तुम बंदरों की भाषा जानते हो ?”
  फिर थोड़ी नाराजगी से गुलमोहर की तरह लाल होते चेहरे के साथ कहोगी, “तुम्हें मेरा पानी में खेलना पसन्द नहीं है न ? तुम मुझे नाले से दूर ले जाने के लिये तेंदुए का बहाना बना रहे हो. क्यों ?.”
  तभी तुम्हें इस ‘क्यों’ का जवाब तेंदुए की गुर्राहट से मिल जायेगा और तुम गुलमोहर से अमलतास हो मुझसे लिपट जाओगी.
  अक्सर अभय रातों को सोने से पहले ऐसे ही सपने देखता रहता, मन ही मन सरू से बातें करता रहता. सपने में कभी सरू अभय से लिपटती, कभी चूमती, कभी उसे बालों को सहलाती. दिन में जंगल वार फेयर के प्रशिक्षण में वह जो भी सीखता, रात को उसके कुछ पल सरू के साथ जी लेता.
  वह सरु से बहुत दूर था जहाँ सरू की मौजूदगी के अहसासों का ही सहारा था. जैसे रात के सन्नाटे में जंगल अधिक मुखर हो उठता है. उसी तरह रोज रात में सरू की याद भी अभय के जेहन में मुखर हो जाती. उसकी यादों में होते- सरू के साथ बीते पलों की यादें और भविष्य के सपने. सपने भी तो एक तरह की यादें ही हैं, भविष्य की यादें. दिन का कोलाहल इन यादों को एक महीन पर्त से ढंक देता जबकि रात ढोल-धमाकों के साथ इन यादों की बारात ही ले आती. अभय की हर रात ऐसे ही यादों, सपनों में खोये बीतती.
  अभय सरू को जिंदगी से बढ़कर प्यार करता. दोनों ने अपने घर में अपने प्यार के बारे में सब कुछ बता दिया था. घरवाले अनमने होकर भी तैयार थे. बस अभय को अपनी ट्रेनिंग ख़त्म होने का इंतजार था. तब तक वह सरू को बस यही कहता,
  “सरू! मैं जल्दी ही तुम्हें लेने आऊंगा. तुम बस मेरा इंतजार करो और खुश रहो. फिर जल्दी ही हम चलेंगे, पहाड़ों और जंगलों की सैर को.”
  अभय की हर रात का सोने जाने और सो जाने के बीच का समय सरू से मन ही मन बातें करते बीतता. ऐसे ही किसी दिन अभय की टीम जंगल में सर्चिंग कर रही थी कि अभय को अचानक से वनचंपा की खुशबू आई. जो उसे एकदम से सरू के पास ले गई.
  रात को उसने मन में सरू से कहा, “तुम यहाँ होती तो कितनी खुश होती. जंगल की पगडण्डी पर चलते हुए अचानक थमक कर कह उठती- “यह गंध वनचंपा की है और यह करंज की.”
  जब तुम ऐसा कहती तब तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के कुसुम खिल आते और आँखों में भर आती मोगरे की चमक. तुम यहाँ होती तो आवाज में झांझर की खनक ले कह उठती,
  “देखो! यहाँ सागौन के कितने सारे छलनी से पत्ते बिखरे हुए हैं मैं इनमें पेंटिंग बनाउंगी.”
  तुम इन पत्तों को दौड़-दौड़ कर सहेजतीं और जंगल में पड़े टेढ़े-मेढ़े लकड़ी के टुकड़ों को इकठ्ठा करतीं. इन टुकड़ों में तुम्हें कभी कोई हंस दिखता, कभी सद्यस्नात नारी तो कभी कोई कछुआ. यह सब करते हुए तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी के कचनार की लालिमा लबालब भर आई होती.
  कचनार, अमलतास, गुलमोहर, अभय अब सरू की ही भाषा बोलता. जंगल वार फेयर की ट्रेनिंग और सरू के प्यार ने उसे प्रकृति के नजदीक ला दिया. उसे बहुत से पेड़-पौधों के नाम याद हो गए. पहले सरू को अभय से शिकायत रहती कि उसे पेड़-पौधों, चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते. पहले अभय को इन्हें देख ख़ुशी नहीं होती जबकि बुलबुल को देख सरू किलक उठती, और कभी खुद ही कोयल बन कूकने लगती. हरसिंगार देख वह पेड़ को हिला कर अपने ऊपर फूलों की बारिश करने से नहीं रोक पाती. अब अभय उन्हें सरू से ज्यादा पहचानने लगा. अब वह अक्सर नए नए पेड़-पौधों, चिड़ियों की पहचान सरू से कराने की सोचता. अब भी जब कभी कोई नाम याद करने में अभय को परेशानी होती है वह सरू की याद से जोड़ कर नाम याद कर लेता है.
  कल ही तो उसने जंगल में लैंटाना की झाड़ी देखी. उसे सरू की बात याद आई,
  “पता है मैं और मेरी सहेलियां इस लैंटाना के फल को बचपन में चार समझ कर खाते थे. जब घर में पता चला तो खूब डांट पड़ी.”
  यह बताते हुए सरू हंस रही थी, “बचपन में मुझे चार और लैंटाना के फल में अंतर नहीं समझ आता था.”
  तब अभय भी उसकी हंसी के साथ हंस पड़ा पर उसने सरू को बताया नहीं, बस मन ही मन कह दिया था, “सरू ये अंतर तो मुझे आज भी नहीं मालूम है.”
 लेकिन अब अभय के पास सरू की इन पसंदीदा चीजों के बारे में बताने के लिये बहुत सारी बातें थीं. अभय यह दिली इच्छा रखता कि वह सरू से ये सारी बातें करे. पहाड़ों, जंगलों, झरनों, पंछियों से भरी जगह में, सरू को बाँहों के घेरे में लेकर घूमते हुए.
  ऐसी जगह में घूमते हुए, ऐसी बात करते हुए अभय सिर्फ और सिर्फ सरू का चेहरा देखते रहना चाहता. उसे याद आता, शहर के पार्क में नीलगिरी की पत्तियों से झांकता नीला आसमान. जिसे देख सरू की आँखों के जुगनू चमक उठते. ख़ुशी से चेहरे पर चाँद की चांदनी छिटक जाती. वह अक्सर सोचता, जब सरू इन पहाड़ों की अलसाई देह पर पसरे जंगल में, औंधी लेटी रात की काली चुनरी में टंके सितारों की चमक देखेगी तब तो उसका चेहरा ही चाँद हो उठेगा.
  अभय के जंगलवार फेयर का प्रशिक्षण अब कुछ ही दिन में ख़त्म होना था. उसने घर में शादी की तिथि तय कर देने के लिये लिख दिया. अब शादी करने के इंतजार में उसके दिन बीतते. सरू के साथ पहाड़ों में, जंगलों में प्यार करने के इंतजार में दिन बीतते.
  पहाड़ से लम्बे दिन आखिर बीत ही गए. ट्रेनिंग ख़त्म हुई. अभय को सर्वोत्तम कैडेट का पुरुस्कार मिला. धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पोस्टिंग हो गई. अभय और सरू की शादी हो गयी. लेकिन यह जरुरी नहीं कि हर वह चीज जो हम चाहें वह पूरी हो. अभय सरू को शादी के तुरत बाद पहाड़ों की सैर पर ले जाना चाहता था पर ये संभव ना हो सका. उसने देखा कि घरवालों के अपने बहू के साथ रहने के अरमान हैं तो इन अरमानों की बलि देकर सरू को पहाड़ों पर ले जाना उसे ठीक नहीं लगा. उसने सरू से वादा किया’
  “हम जायेंगे, जल्दी ही पहाड़ों के संसार में जायेंगे, पर किसी के अरमानों की बलि लेकर नहीं. बस जल्दी ही मैं छुट्टी लेकर आऊंगा. इस बार घर में ही रह लेते हैं.”
  शादी के बाद अभय को नौकरी में वापस आये दो महीने बीत गए. सरू से सैकड़ों मील दूर रह कर भी वह अहसास करता, कि सरू उसके बिना वहां बहुत गुमसुम होगी. उसने घर में रहते हुए यह थाह पा ली थी, कि घर वालों ने उसकी पसंद को रजामंदी तो दे दी, पर वो इसे दिल से स्वीकार नहीं कर सके. वह जाने अनजाने बुदबुदा उठता,
  “सरू प्लीज ! मेरे बिना भी घर में अपना मन लगाने की कोशिश करना.”
  एक-एक दिन पहाड़ों की तरह बीतता रहा. वह अहसास करता, सरू के अनजान जमीन में अपनी जड़ें ज़माने के प्रयासों का. वह  अहसास करता इन प्रयासों के नकारे जाने का. वह कई बार खुद को सरू का अपराधी सा महसूस करता, तब वह अपनी डायरी ले बैठ जाता.
  “सरू! मैंने इन दो महीनों में तुमसे कुछ कहा नहीं पर मुझे मीठे बोलों की खनक में, कद कम करने की छुरियां तेज करने की आवाज बखूबी पहचानना आता है. मैं पहचानता था; रहस्यमयी अनुमतियों में बंधनों की तीखी कटारी चुभोते आग्रहों को. कलश पादप के खूबसूरत फूल के पीछे छिपे मन गला देने वाले एसिड से भरे गह्वरों को. मुझे पता है तुम्हें इन्हीं छुरियों, कटारियों और एसिड के बीच छोड़ आया हूँ.”
  “हमने अपनी पसंद से शादी की है भले ही घरवालों ने हमारा मन रखने के लिये अपनी सहमति दे दी थी, पर उनके अरमानों को चोट तो लगी ही है. विश्वास करो, कि ये कठिन लम्हे हमारी परीक्षा के हैं. यह हमारे घरवालों की तरफ से हमारे प्यार की सजा है. यूँ समझ लो कि तुम्हें इन्हीं से अपने जीवनफल की मिठास चीरकर बाहर निकालनी है. यह मिठास उन मनों से एक बार निकलने की देर है, फिर कभी तुम्हें किसी छूरी, कटारी का सामना नहीं करना पड़ेगा. जल्दी ही हमारा प्यार घरवालों के दिल में भी समा जायेगा. मुझे विश्वास है कि तुम ये बखूबी कर लोगी.”
  उस दिन इतना लिख उसने अपनी डायरी बंद कर दी. शायद असहाय सी स्थिति महसूस कराने वाले शब्दों का बोझ हल्का हो जाने से उसे राहत मिल गई. सरू के साथ का अहसास, उसकी खुशबू, उसकी मिठास जान लेने के बाद अब उससे दूर रहना अभय के लिये बहुत तकलीफदेह होता जा रहा था. वह सरू की आवाज सुनने को तरसता. घने जंगल में मोबाइल फोन भी एक डब्बा भर था. वह यहाँ वीराने जंगल में दिनों-महीनों पड़ा रहता. घंटों पगडंडियों पर दसियों किलो बोझ उठाये मीलों पैदल चलता रहता. कभी सर्चिंग के नाम पर, तो कभी रोड क्लियरेंस के नाम पर, तो कभी एरिया डोमिनेंस के नाम पर. जब थक जाता तो सोचता, कि उनके सपनों के पहाड़ में, जंगल में पैदल चलते हुए सरू थक गई है, और वह उसे अपनी पीठ में लिये घूम रहा है. इस वीराने में अभय को सरू की मीठी यादों का ही सहारा होता.
  जब वह रात को सोने जाता, तो उसके दिन के किये काम किसी ना किसी तरह अपनी कड़ी सरू की यादों से जोड़ ही लेते, जैसे एक दिन उसे याद आया कि सरू कॉलेज गार्डन में लोहे के वन बाई वन स्क्वेयर मीटर का चौखाना लेकर गिनती थी, कि इसके अन्दर कितने प्रकार के पौधे कितनी संख्या में हैं. जिससे पता चले कि, विभिन्न प्रजातियों के पौधों की डेंसिटी कितनी है. तभी अभय को लगा कि यहाँ यही वह भी कर रहा है. बस अंतर इतना है कि, वह पावों के निशान गिनता है, जिससे पता चले कि इस जगह से कितने नक्सली गुजरे हैं और देखता है कि पावों के इन निशानों की साइज क्या है ? जूतों में कील लगी हैं? एडी में लोहे की नाल लगी है ? किसी महिला के पावों के निशान हैं या पुरुष के.
    उस दिन अभय सरू को यह बताने के लिये उत्सुक हो उठा कि जूतों के निशान देखकर बताया जा सकता है, कि चलने वाले की स्पीड कितनी थी. कि सामान्य गति से चलने पर जूतों के पंजों और एड़ी के निशान सामान दबाव वाले होते हैं, जैसे-जैसे गति बढ़ती जाती है, पंजों के निशान भारी होते जाते हैं और एड़ी के हल्के, कि तेज दौड़ते इन्सान के सिर्फ पंजो के निशान ही बनते हैं.
  अभय सोचने लगा कि जब भी वह सरू से मिलेगा, तो उसे बताएगा कि ऐसे ही जूतों के निशान देख अब वह ये भी बता सकता है, कि ये निशान ताजे बने हैं, या पहले के हैं. पहले के बने निशान हलके होते हैं, उन पर कीड़ों के चलने के, ओस की बूंदें पड़ने के निशान भी पड़े होते हैं. वह यह भी बताएगा, कि इससे हम नक्सली यहाँ से कितने देर पहले गुजरे हैं, यह अनुमान लगाते हैं. यूँ कहो कि जमीन पर छपे निशानों के सबूतों से, हम नक्सलियों की आमदरफ्त की कहानियां बुनते हैं. यही नक्सली भी हमारे साथ करते हैं.
  तभी उसकी सोच को एक जोरदार ब्रेक लगा, “नहीं! वह नक्सलियों से जुडी बात सरू को नहीं बताएगा. नाहक ही सरू घबरा जाएगी.”
  अभय एक लम्बी उसांस भर मन में कह उठा, “पावों के निशान तो इंसानों के ही होते हैं पर हम इसे इन्सान के पाँव नहीं मानते. इसे या तो नक्सली के पाँव के निशान मानते हैं या पुलिस के पावों के निशान. जैसे नक्सलियों के लिये पुलिस इन्सान नहीं है और पुलिस के लिये नक्सली.”
  अंततः उसने सरू को बताने वाली बातों से नक्सलियों की बात हटा दी. सिर्फ जमीन पर छप आये पावों के निशानों की कहानी सरू को बताना तय किया, और यह जान कर सरू के उत्सुक चेहरे में उग आये जुगनुओं की चमक में खो गया.
   एक दिन अभय को सरू का पत्र मिला. उस दिन उसे सरू की कुछ ज्यादा ही याद आ रही थी. पत्र में सरू की शिकायत थी कि, अभय बहुत छोटे पत्र लिखता है, सिर्फ कुशलक्षेम और कुछ नहीं.
  उस दिन अभय ने सोचा, “क्या लिखूं? जब मोबाइल डब्बा नहीं होता, तो तुम से बातें ही कर लेता हूँ, नहीं तो सारा कुछ तुम्हें सोच मन ही मन तुमसे बातें कर के ही बता देता हूँ. इस घने जंगल में मेरे दिलो दिमाग में या तो नक्सलियों का खौफ होता है, या तुम.”
  फिर मन ही मन हंसा, ये खौफ कितना अजीब शब्द हैं न, दूसरे इसका मतलब झट से नक्सलियों से डरना लगा सकते हैं, लेकिन हम नक्सलियों से डरते नहीं हैं, पर हां! हमें नक्सलियों का डर जरूर होता है क्योंकि ये डर ही तो हमें हर पल सजग रखता है. उनका सामना करने के लिये.
  सच ही है अभय लिखे क्या? क्या यह लिखे कि यहाँ वह हर पल मच्छरों और नक्सलियों के खौफ में हैं. जाने कब इन मोटे मोटे मच्छरों से मलेरिया हो जाये, या जाने कब जंगल में सर्चिंग के दौरान पाँव बारूदी सुरंग पर पड़ जाये, और उसके चिथड़े उड़ जाएँ, या जाने कब किसी पेड़ के पीछे से एक सनसनाती गोली आ कर इस सीने में धंस जाये.
   अभय जब भी आराम करता, सरू उसके पास ही आ जाती. सरू को लिखते हुए वह दूर लगने लगती. अभय को सरू से दूरी महसूस करना अच्छा नहीं लगता, बस इसीलिए...पर उस दिन उसने सोच लिया कि, आज वह सरू को चिट्ठी लिखेगा. उसने बहुत दिनों से सरू के लिये शब्दों के मोती कविता में पिरोये थे.
  जन्मों से मेरी सरू
  इस दुनिया में न समां सके इतना प्यार
  यहाँ मैं सकुशल हूँ और आशा करता हूँ कि घर में भी सब सकुशल होंगे. अब ये पत्र तुम्हारे, सिर्फ तुम्हारे लिये है-
  एक दिन तुम्हें जंगल ले जाऊंगा
  एक छोटा सा घर बनाऊंगा
  तुम्हारे साथ हँसूंगा गाऊंगा
  बेले की छत होगी
  मेहंदी की दीवारें
  घर की खिड़की से आयेंगी
  जूही, चंपा की बरातें
  अमलतास की सेज होगी
  मोगरे का सिंगार होगा
  बढ़ती सांसों का उपहार होगा
  हम रहेंगे वहां
  बीज की तरह
  मनाएंगे सृजनोत्सव वहां
  रचेंगे अपने
  सुख का संसार
  - तुम्हारी सांसों में समाने का आकांक्षी
    अभय
  यह पत्र लिख अभय निढाल पड़ गया. कितना मुश्किल होता है प्यार भरा पत्र लिखना ? उसका दिल मानों चीर दिया हो ऐसा दर्द करने लगा. पेट में मरोड़े उठने लगीं. 
  “जाने कब मिल पाउँगा सरू से? छुट्टियाँ भी तो नहीं मिलती. इस बार पूरे दो महीने की छुट्टी लेकर जाऊंगा. सरू की शरबती आँखों में खोने के लिये. उसे पहाड़ घुमाने मनाली लेकर जाऊंगा.”
  अभय ने पत्र को हौले से छुआ, जैसे सरू को छू रहा हो. उसके चेहरे में एक मुस्कान उभर आई,
  “सरू मेरी लिखी कविता पढ़ कर कितनी खुश होगी.”
  उसने उस पत्र को अपने लबों से चूमा और मोड़कर अपने जेब में डाल दिया,               “पंद्रह दिन का यह सर्चिंग ओपरेशन कल ख़त्म हो जायेगा. कल जिला मुख्यालय से इसे पोस्ट कर दूंगा.”
  सरू इंतजार करती रही, अपने पत्र के जवाब का. उसे पत्र भेजे बीस दिन हो चुके थे. वह तैयार होती, खाना बनाती, घर व्यवस्थित करती, कपड़े तह करती, चाहे कुछ भी करती पर हर पल उसके कान दरवाजे पर डाकिये की आवाज का इंतजार करते. उस दिन सुबह पापाजी समाचार पत्र पढ़ रहे थे, मांजी पूजा कर रही थीं. वह रसोई में कढ़ी बनाते हुए सोच रही थी.
  “अभय को कढ़ी बहुत पसंद है. इसबार अभय आयेंगे तो हर दूसरे दिन उन्हें कढ़ी खिलाउंगी, एक दिन सादी कढ़ी, एक दिन भजिया कढ़ी, एक दिन बूंदी कढ़ी. उनकी पसंद की सारी चीजें बना के खिलाऊँगी.” सरू के न चाहते हुए भी एक उसांस निकल गई, “लेकिन अभय कब आयेंगे?”
  पापाजी ने समाचार पत्र खत्म कर टीव्ही पर न्यूज चैनल चला दिया. टी.व्ही. में लगातार ब्रेकिंग न्यूज चल रहा था. “नक्सली हमले में दो अधिकारीयों समेत चौदह जवान शहीद.”  
  तभी पापाजी को एक कॉल आया. अभय के बटालियन के किसी ने बताया कि अभय जंगलों में सर्चिंग के दौरान हुए, एक नक्सली हमले में शहीद हो गया.
  सरू निराधार हो गई. अभय के माँ-पिताजी नि:सहाय हो गए. अब उनके पास एक ही इन्तजार रह गया था. बेजान अभय का इन्तजार, अंतिम वक्त में उसके पास मौजूद सामानों का, अभय के अंतिम समय की यादों का इन्तजार. 
  ये सिर्फ अभय की कहानी नहीं रही थी. ये सिर्फ इस नक्सली हमले के शहीदों की कहानी नहीं थी. ये कहानी थी, छत्तीसगढ़ के चिंतलनार, अम्बागढ़ चौकी, चिंतागुफा, किरंदुल के शहीदों की, उड़ीसा के मलकानगिरी, बालीमेला, कोरापुट के शहीदों की, पश्चिम बंगाल के सिलदा के शहीदों की, झारखण्ड के सारंडा जंगल के शहीदों की, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के शहीदों की, यही कहानी तो होती है पाकिस्तान, चीन की सीमा के कई सैनिकों की, कश्मीर के सेना के जवानों की. यही नहीं कुछ ऐसी ही कहानी होती है, अफगानिस्तान में, इराक में शहीद जवानों की भी. ऐसी ही कहानी होगी भविष्य के शहीदों की भी जब तक कि लोग न समझ लें कि किसी भी समस्या का समाधान हिंसा नहीं होती.    
  हो सकता है सभी शहीदों की अपनी कोई सरू न हो लेकिन सबके अपने माँ-पिताजी, भाई-बहन तो होते ही हैं, जान न्यौछावर करने वाले दोस्त होते ही हैं. हो सकता है सभी की जेब में अपनों के लिये लिखा कोई पत्र न रहा हो पर उनके दिल तो भावों से भरे होते ही हैं और सभी शहीदों की जेब में जो भी रहा हो वो उनके घरवालों के लिये उनकी अंतिम याद होता है. अंतिम याद! जो हर बार उसे देखने वाले को रुला देती है, पर फिर भी वे उसे सहेज कर रखते, बार बार देखते और बार बार रोते हैं. अभय और सरू के साथ ये भी न हो सका.
  सरू भी अभय की अंतिम निशानियों के इंतजार में थी, लेकिन हमले के दो दिन बाद अभय की, और बाकी सभी शहीदों की खून से लथपथ वर्दियां मय बैज, जूतों और गैर कीमती सामानों के अस्पताल के पीछे कूड़े के ढेर में पाई गई. जिन्हें जवानों के पोस्टमार्टम के बाद लावारिस मान घोर असंवेदनशीलता से फेंक दिया गया था. आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहा.
  शहीदों के वे अवशेष- जो किसी सरू, किसी माँ, किसी पिता के लिये अपनी जान से बढ़कर अपने की निशानी होते. वर्दियां- जिन्हें अपने अंक में भर वे अपने उस ‘अपने’ के होने को महसूस करते. उसके अंतिम समय के कष्ट की कल्पना कर बिलखते. बैज- जिसे किसी सीले दिन में सीला मन लिये कोई सरू, माँ, या पिता संदूक के किसी कोने से निकाल कर सालों बाद भी जबरदस्ती सिले जख्मों की टीस में रो पड़ते. वो सब यूँ ही कूड़े में पड़े थे.
  जब सरू को अभय के अवशेष मिलते. अभय की जेब में रखी वह चिट्ठी मिलती, तो वह भी रोती, इस चिट्ठी को लेकर. वह चिट्ठी को सहेजती, बार-बार देखती और बार-बार रोती; अभय की उसके लिये लिखी कविता पढ़ कर, लेकिन कभी भी सरू को यह चिट्ठी नहीं मिल सकी. जब सरू अभय की याद में बिलख रही थी, उसकी निशानियों के इन्तजार में थी, तब अभय की सरू को लिखी वो चिट्ठी, गर्भपात से निकले एक भ्रूण के कोने से दबी हवा में फड़फड़ा रही थी.
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