Monday 31 March 2014

सलीके से लगी अलमारी

 हम टी व्ही के विज्ञापनों में हरफनमौला महिलाओं को रोज देखते हैं. हर जगह, हर काम में मुस्तैद. सुपर वुमैन. वे कभी थकती नहीं, न तन से न मन से. दूर से देखो तो वह महिला भी कुछ ऐसी ही है. वह महिला रोज अल्सुबह उठती है, खुद योग करती है,बच्चों का, पति का, खुद का टिफिन, नाश्ता तैयार करती है. बच्चों को तैयार करती है, खुद तैयार होती है, पति और बच्चों को स्कूल, ऑफिस भेज खुद भी ऑफिस जाती है.

         वह स्नेही, आत्मविश्वास से भरी, सुघड़, कर्मठ व्यक्तित्व की महिला है. बच्चे कहते हैं वह दुनिया की सबसे अच्छी माँ है, वह पति की जान है. ऑफिस में सभी उसके कर्मठ व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं.  वह खुद को इन सभी रूपों में परिवर्तित करते हुए अपने सभी कर्तव्य निभाने में स्वयं को संतुष्ट, सफल महसूस करती है.

       उसे कभी-कभी जाने क्या हो जाता है कि वह सोचने लगती है, "मेरे कितने रूप हैं. ये सारे रूप मिलकर मेरा एक व्यक्तित्व बनाते हैं कि ये सारे मेरे अलग-अलग व्यक्तित्व हैं. हर इंसान का एक व्यक्तित्व होता है पर
क्या एक इंसान का सिर्फ एक व्यक्तित्व होता है, या एक इंसान में ही दो, तीन, चार या अधिक इंसान भी समाये होते हैं…… लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? एक इंसान तो एक ही रहेगा. उसका व्यक्तित्व भी एक ही रहेगा फिर क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मैं सिर्फ एक इंसान नहीं हूँ अपितु इंसानों का एक समूह हूँ. समूह भी ऐसा जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न व्यक्तित्वों से बना है.

          ये आपस में जान के दुश्मन नहीं तो उससे कम भी नहीं हैं.हर-पल बहस, मारा-पिटी, छीना-झपटी, चीख-पुकार, क्या नहीं होता इनके बीच.” कभी उसे लगता है क्यों न ये जान के दुश्मन ही हो जाते कम से कम कुछ एक लड़ाइयों के बाद दुश्मनों को मार उनकी आवाज सदैव के लिए बंद कर देते. मेरे भीतर की भीड़ कुछ कम होती, मैं कुछ सुकून पा सकती.

            इस पैंतीस वर्ष की महिला को लगता है कि उसमें इंसानों की भीड़ ही नहीं उसकी उम्र के ये पैंतीस बरस, यादे, बातें, विचार सब कुछ अलग-अलग और समूहों में गड्मगड भरे हुए हैं. जैसे....जैसे वह खुद कोई अलमारी है.... किसी अल्हड, आलसी,अव्यवस्थित लड़की की अलमारी...... जिसमे सारा सामान गुडी-मुड़ी, बेतरतीब, ढेर का ढेर ठूंसा हुआ है. कोई चीज जगह पर नहीं मिलती.

              जिसमे पैंतीस बीते बरस ठूंसे हैं, यादें ठुंसी हैं, कई बहुरूपिये व्यक्तित्व ठूंसे हैं,विचारों की रेलमपेल है, किसी कोने में कई अपूर्ण इच्छाये भी दबी हुई हैं. कभी एक मधुर स्मृति निकालने की कोशिश में आठ-दस यादें, विचार, साल बाहर निकल अलमारी के सामने फर्श पर बिखर जाते हैं. वह महिला सोचती है कि पहले इन्हें समेट यथास्थान रख दे फिर मधुर स्मृति का आनंद ले पर इन्हे समेटते हुए ही दिन निकल जाता है.

      वह एक साल उठा अंदर रखती है और जैसे ही फर्श पर पड़ी दूसरी याद अंदर रखने को उठाती है कि वह याद कांच की किरचों सी बिखर जाती है. इन्हें समेटते हुए लहूलुहान हो, अलमारी के गुडी-मुड़ी सामान के ऊपर रख बाकि बचे सालों को समेटने की कोशिश करती है तो दो-चार व्यक्तित्व अपनी परते खोल सामने फर्श पर बिखर जाते हैं और वह यही सोचती रह जाती है कि किसे पहले समेटे और किसे बाद में.

       इन्हे समेटते हुए वह इतनी थक जाती है कि सुखद स्मृति फिर कभी जीने की सोच उसे वापस अलमारी में रख, पुरे के पुरे बाहर निकल पड़ने को तत्पर सामानों को किसी तरह ठूंस-ठांस दरवाजा बंद कर हांफने लगती है इतने में वह इतनी थक जाती है कि उसे सिर्फ बिस्तर ही नजर आता है लेकिन बिस्तर पर भी आराम नहीं. लेटते ही दिमाग में घुसे बैठे सारे इंसान अपनी-अपनी तुरही ले बजाने लगते हैं और बाहर आती है, कोई सुरीली तान नहीं सिर्फ शोर. शोर जो दिमाग पर दनादन घन चलाता है.एक..दो..तीन...चार..

        वह महिला जब इन घनों के आघात से चोटिल हो उठती है तो बिस्तर से उठ जाती है. घर के सारे कमरों का एक चक्कर लगाती है. " उफ़, बाई नहीं आई, रसोई में जूठे बर्तनों का ढेर पड़ा है, बैठक में सोफे के कुशन कवर आड़े-तिरछे पड़े हैं. शयन-कक्ष में सुबह का गुसा-मूसा बिस्तर वैसा ही पड़ा है, बच्चों के कमरे में खिलौने बिखरे है, बच्चों के कल के उतरे कपडे फर्श पर अपना आकार दिखाते पड़े हैं. उस महिला के दिमाग में चल रहा संघर्ष और बढ़ जाता है.

     क्या चाहती हूँ मै?.. कौन हूँ मैं?..... मैं...मैं हूँ...., माँ हूँ.. पत्नी हूँ...बेटी हूँ... कामकाजी हूँ. यहाँ तक तो ठीक है पर हर रिश्ते में मैं सिर्फ एक क्यों नहीं होती?... माँ सिर्फ एक क्यों नहीं... ...पत्नी, बेटी, बहू, कामकाजी भी सिर्फ एक क्यों नहीं होती हूँ . भीतर क्यों भरे हुए हैं इन सब के कितने ही विरोधी रूप मेरे? माँ सिर्फ माँ ही होती है ना फिर क्यों बेटे की जरा सी शैतानी पर ममता से भरी एक माँ उसकी प्यारी शैतानी पर न्यौछावर हुए जाती है तो दूसरी माँ उसे डांट लगाने कहती है. कभी-कभी तो एक तीसरी माँ उसे एक झापड़ लगाने को भी कहने लगती है.

     एक महिला ऑफिस के सारे काम पूरी दक्षता से पुरे समर्पण के साथ करना चाहती है तो दूसरी सिर्फ जरुरी काम करने कहती है तो कोई उस पर महावत की तरह सवार हो 'बने रहो पगला काम करेगा अगला' का अंकुश कोंचती रहती है. इन सब के बीच उस महिला का दिमाग इन सारे विरोधी विचारों के संघर्ष में महाभारत का मैदान बन जाता है उसे ऐसा महसूस होता है कि वह खुद कहीं रह ही नहीं गई है.. पर वह खुद कोई तो है…..

      वह सोचती है कि वह सारे रिश्ते - नातों से अलग कर खुद को किस रूप में देखना चाहती है किस रूप को अपने सबसे करीब पाती है..... पर वही दिमाग में विचारों के दन.. दन... दन…. दनादन चलते घन. उस महिला को कंहीं आराम नहीं है,

       वह महिला बाहर सारा कुछ वैसा ही छोड़, दिमाग में मचा घमासान छोड़, एक कलम कागज ले बैठ जाती है. वह लिखते जाती है जो मन में आ रहा है, बेसिर-पैर का, कलम कागज पर फिसलते जा रही है, शब्द उकेरते जा रही है, दिमाग में घमासान मचाते विचार प्रवाहमान हो कागज की ओर बहते जा रहे हैं जैसे बारिश की माटी समेटे मटमैली, गंदली नदी बहती जा रही है. कुछ देर में माटी बैठने लगी है. दिमाग पर घनों का आघात कम होने लगा है.

          वह महिला अपनी ऊर्जा समेट फिर उठती है. कुछ ही देर में उसने सारे जूते बर्तन धो दिए हैं, बैठक व्यवस्थित कर दिया है, शयनकक्ष के बिस्तर पर एक भी सलवट नहीं है वह अपने विवेक को भी काम पर लगा देती है और फिर वह अलमारी में ठूंसे सारे सामान को फर्श पर बिखरा कर बैठी है सब कुछ करीने से लगाती.

       वह जिंदगी की अच्छी यादें एक के ऊपर एक तह कर लगा रही है. जब चाहो जो चाहो वो याद निकाल लो, बुरी यादों की पोटली बना कर ऊपर आले पर टाँग दी हैं. जिंदगी के बीते बरस भी ऐसे ही करीने से रख दिए हैं. अनगिनत अपूर्ण इच्छाओं से तीन इच्छाओं का चयन कर लिया है. अब तक विवेक ने भी अपने साथी व्यक्तित्वों का चयन कर लिया हैं. अब उस महिला के दिमाग में घन चलने पूरी तरह से बंद हो चुके हैं. माँ, पत्नी, बेटी, अधिकारी के विवेकी व्यक्तित्व ने मोर्चा सम्हाल लिया है और बाकी सभी विरोधी व्यक्तित्वों को गहरी नींद सुला दिया है.

       अचानक वह महिला पाती है कि उसके अंदर से एक स्वच्छ, निर्मल जल का स्त्रोत फूट पड़ा है. कुछ देर पहले बहती मटमैली नदी की जगह यह स्वच्छ जल कल-कल, छल-छल करता बह रहा है. उसके अंतर्मन का नवादित उदित हो इस जल पर अपनी चमकीली, सुनहरी रश्मियों से फूल-पत्ते काढ़ रहा है. वह महिला फिर से
बच्चों के लिए दुनिया की सबसे अच्छी माँ, पति की दुनिया और ऑफिस की कर्मठ अधिकारी बन जाती है

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