'फलाना और ढिमका लड़ रहे हैं.' ये वाक्य सुनते ही किसी के भी मन में छवि बनती है कि फलाना और
ढिमका आपस में मारापीटी, धक्का-मुक्की
कर रहे है. अब यदि इस वाक्य में एक शब्द की घुसपैठ हो जाये. जिससे ये वाक्य ' फलाना और ढिमका चुनाव लड़ रहे हैं' हो जाये तो आपके हमारे मन में नेता, समर्थक, जुलूस.
भाषण आदि की छवि बनेगी. जिसमे हम दो या अधिक उम्मीदवारों में से अपने प्रतिनिधि का
चुनाव करते हैं लेकिन चिंकी और पिंकू जैसे छोटे बच्चे जिन्होंने अभी बाहरी बातें
समझें बस शुरू ही की हैं उनके लिए 'लड़ना' शब्द का सिर्फ एक ही मतलब हो सकता है. 'लड़ना' मतलब
मारापीटी, धक्का-मुक्की.
जब चुनाव होते हैं तो पुरे देश में चुनावों की हवा ही बहने
लगती है. हमारे उत्सव प्रेमी देश में चुनाव भी एक बड़ा उत्सव ही हैं. जब हर गली
मोहल्ले, नुक्कड़, घर में
चुनाव चर्चा ही चलती रहती है.सारे लोग चुनाव विश्लेषक ही बन जाते हैं मानों हम सभी
चुनाव ही खाने, ओढ़ने+, बिछाने, सोने लगते हैं. चिंकी और पिंकी दादा के साथ पार्क में सैर करने
जाएँ तो दादा की उनके दोस्तों के साथ चुनाव चर्चा, दादी के साथ मंदिर जाये तो चुनाव से मोहल्ले की सफाई पर प्रभाव
पड़ने की सम्भावना की चर्चा, घर में
चुनाव प्रचार में बाई को सामान मिलने की चर्चा, पापा के रोज ऑफिस से देर से आने का कारण भी चुनाव.
ऐसे में चिंकी और पिंकू चुनाव के
प्रभाव से कैसे बच सकते हैं. वे लगातार सुनते हैं 'फलाना' चुनाव लड़
रहा है, 'ढिमका' चुनाव लड़
रहा है. उनके लिए 'लड़ना' मतलब मारापीटी, धक्का-मुक्की.
विधानसभा चुनाव ख़त्म ही हुए थे और आम चुनावों का शोर मच रहा था. विधानसभा चुनावों
ने अभी- अभी होश सम्हाले चिंकी और पिंकू को 'चुनाव लड़ना' शब्द से
परिचय करा दिया था. विधानसभा चुनाव तो टेस्ट, पढाई के बीच ख़त्म हो गया था पर इन आम चुनावों के दौरान बच्चों
के पास अपनी सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता
दिखाने के लिए गर्मी की छुट्टियों का भरपूर समय था.
छुट्टियों में टी.
व्ही भी बेहिसाब देखा जा रहा था .जो देखना चाहिए वो भी और जो नहीं देखना चाहिए वो
भी. हाल ही में टी. व्ही पर एक फ़िल्म आई जिसमें हीरो बॉक्सर था. अब हीरो यदि
बॉक्सर है तो बॉक्सिंग रिंग में हाथ में बॉक्सिंग ग्लोब्स पहने, सर पर हेलमेट लगाये, बच्चों की भाषा में केवल 'चड्डी' पहने
बॉक्सिंग ही करेगा. सो उसने किया पर बच्चों को लड़ने में एक नयापन मिला. अब तक उनकी
केवल सामान्य मारापीटी या डबल्यू.डबल्यू. ई. वाली लड़ाई होती थी. अब उन्हें लड़ने का
एक और नया तरीका मिल गया.
इन गर्मियों में भट्टी की तरह तपते शहर का तापमान आम चुनावों
से भी बढ़ा हुआ था तो घर का तापमान छुट्टियों में बच्चों के उधम से और मेरा तापमान
दिन रात उन्हें ये केन प्रकारेण व्यस्त रखने अन्यथा उनकी लड़ाई झेलने और उसमे जज
बनाये जाने की चिंता से. बच्चों के अपने खेलों के साथ साथ उनके दिमाग में लगातार 'फलाना' के चुनाव
लड़ने, 'ढिमका' के चुनाव
लड़ने की चर्चा अपनी जगह बनाते जा रही थी जो उनके प्रश्नों में यदा-कदा झलकने लगी
थी पर चुनाव को लेकर बच्चों की समझ का अंदाजा हमें नहीं था.
चुनाव प्रचार अब अपने अंतिम चरण में आ गया था. प्रत्याशी घर-घर
जाकर उन्हें वोट देने का निवेदन कर रहे थे. ऐसे में हमारे घर भी 'फलाना' फिर 'ढिमका' जनसंपर्क
के लिए आये. बच्चों की कल्पनाशीलता को पंख मिल गए, या यह कहना ठीक होगा कि बच्चों के 'फलाना' और 'ढिमका' को मानव
चेहरे मिल गए और उनके लिए खुद को 'फलाना' और 'ढिमका' की जगह रखना आसान हो गया.
एक शाम दोनों बच्चों ने अपने कपड़े
उतार अपने हाथों में ग्लोब्स के सामान बांध लिए. मेरे दुपट्टे हेलमेट बन गए. दोनों
बच्चों के बीच बॉक्सिंग शुरू हो गई. पर ये बॉक्सिंग चुपचाप नहीं हो रही थी न ही
इसमे बॉक्सर लोगों के सामान आवाजें निकाली जा रही थी. मुझ तक दोनों बच्चों की तेज
आवाजें आ रही थी,
" 'फलाने' को वोट
दो."
"नहीं 'ढिमके' को वोट
दो."
" फलाना जिंदाबाद"
" ढिमका जिंदाबाद "
बच्चों के चिल्लाने की आवाज सुन
मैं वहाँ गई तो इन आवाजों के साथ बॉक्सिंग चालू थी.
मैंने पूछा, 'ये क्या कर रहे हो तुम लोग" जवाब आया " हम लोग चुनाव लड़
रहे हैं, ये 'फलाना' है और मैं 'ढिमका' हूँ. दोनों बच्चे सिर्फ चड्डी पहने, हाथ में अपने कपडों का ग्लोब्स लपेटे, सर में दुपट्टे का हेलमेट बांधे चुनाव लड़ रहे हैं. मेरी हंसी
छूट गई. बच्चों का फर्जी चुनाव लड़ना कुछ दिन तक जारी रहा.
एक दिन दोनों बच्चों को साथ बैठा कर सरल से सरल रूप में मैंने
उन्हें चुनाव प्रक्रिया समझाई. बताया क्यों प्रचार करते हैं, कैसे मतदान होता है फिर वोटों की गिनती होती है और जिसे ज्यादा
वोट मिलता है वो जीत जाता है. जीतने वाला 'सांसद' या 'विधायक' बन कर संसद
या विधानसभा में जाता है. बच्चे कितना समझे नहीं समझे मुझे पता नहीं पर इस के बाद
उनका 'चुनाव लड़ना' बंद हो
गया.
कुछ समय बाद चुनाव परिणाम आने पर माहौल में छाया चुनावी बुखार
भी ख़त्म हो गया, स्कूल खुल
गए थे, इसलिए बच्चे भी अब स्कूल, गृहकार्य, ट्यूशन, कार्टून चैनल में व्यस्त हो गए थे. अब बच्चे इतना तो समझने ही
लगे थे कि चुनाव लड़ कर लोग 'संसद' या 'विधानसभा' में जाते हैं. वे समाचार चैनलों पर संसद या विधान सभा को देख
पूछने लगे थे कि मां चुनाव लड़ कर यही जातें हैं न. मुझे अच्छा लगा कि बच्चों का 'चुनाव लड़ने' का
कॉन्सेप्ट तो सही हो गया. आखिर उन्हें सही-सही सिखाने की जिम्मेदारी भी तो मेरी ही
है.
अब मानसून सत्र का समय आ गया था. समाचार चैनलों में सत्र के
दौरान संसद और विधानसभाओं के सीधे प्रसारण की झलक समाचारों में आती है. बच्चे
समाचार नहीं देखते पर आपके हमारे बिना जाने समाचार उनके अवचेतन मन में अपनी जगह
बनाते हैं.एक दिन मैं ऑफिस से आकर बच्चों को पढ़ने बैठा रसोई में खाना बनाने गई कि
मुझे दोनों बच्चों कि जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज आई. हाथ का काम छोड़ दौड़ती हुई
कमरे में पंहुची तो दोनों बच्चे अपनी पेंसिलें चाकू की तरह पकड़े हवा में लहरा रहे
थे, एक दूसरे को चाकू मारने की नक़ल कर रहे थे और बीच-बीच में मेरे
परफ्यूम का स्प्रे कर रहे थे.
मैंने उन्हें जोर से डांटा, 'मैंने तुम्हें पढ़ने के लिए कहा था.ये क्या कर रहे हो तुम लोग.' मासूम से चेहरे के साथ जवाब आया, ' हम लोग संसद संसद खेल रहे हैं. "संसद में ऐसे लड़ाई नहीं
होती है मैंने तुम लोगों को चुनाव के बारे में बताया था न ' कहते हुए मैंने उन्हें जोर से डांट कर वापस पढ़ने बैठाया ही था
कि बैठक से आवाज आई. "जाइयेगा मत, हम आपको
बताएँगे संसद में जोरदार हंगामा, सांसद ने
संसद में पेपर स्प्रे किया. बस इस छोटे से ब्रेक के बाद"
मैं जड़ हो गई. मुझे समझ आ गया कि बच्चों के संसद संसद खेल का
स्त्रोत क्या है.मेरी जड़ता टूटी जब बेटे ने मेरा हाथ खींचते हुए मुझसे पूछा, " माँ जब सांसद या विधायक बन कर ऐसे लड़ने का काम ही करना होता है
तो जैसा आप ने बताया था वोट डालने वाला चुनाव क्यों लड़ते हैं जैसे हम लोग लड़ रहे
थे वैसा चुनाव क्यों नहीं लड़ते है. अब मैं तो नहीं पर मेरा दिमाग जड़ हो गया. मेरे
पास कोई जवाब न था.
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