Monday 7 November 2016

हल्की सी रेखा भाग-2

हल्की सी रेखा
भाग- 2 
  आरव ने एक भरपूर नजर से किंशुक को देखा. उसके मन के नगाड़े पर  वही थाप सुनाई आने लगी-
   “शायद ये तुम्हारा साहसिक आनंद का जज्बा ही है किंशु, जो तुम मुझे अपनी ओर किसी चुम्बक की तरह खींचती हो.”
   बातें करते वे जंगल में चले जा रहे थे. जंगल जंगली जानवरों, चिड़ियों और अपनी सीमा का अतिक्रमण कर आये मनुष्यों से आबाद था. जंगल में कहीं- कहीं के आग के निशान दिख्र रहे थे. जहाँ से आग कई रोज पहले अपने रास्ते में आते सूखे पत्तों, उनके बीच अपनी जिंदगी जीते कीड़े-मकोड़ों को जलाती, धीमे-धीमे इठलाती नायिका सी बलखाती बढ़ती चली गई थी, और पीछे छोड़ गई थी कालिमा की नदी. इस कालिमा की नदी में कहीं औरतें महुआ का फल ’डोरी’ इकट्ठा कर रही थीं, तो कहीं आदमी औरतें तेंदू की नईं कोंपलों को तोड़ने में लगे थे. कहीं चूल्हा जलाने के लिये लकड़ियाँ बटोरी जा रहीं थी. दूर कहीं आरे से पेड़ के चीरने की आवाजें आ रहीं थी. जो किसी को अपनी जान के हित में, तो किसी को मोटे माल के आस में सुनाई ही नहीं आती. किंशुक की टीम ने इस आवाज की रिपोर्ट भी जाने वाले दिन बनाने का तय कर लिया था.
   किंशुक टीम के साथ तेंदुपत्ता तोड़ते लोगों की ओर बढ़ने लगी, तभी उसकी नजर एक बहुत ही कमजोर सी बुढ़िया पर पड़ी, जो टोकरी भर डोरी को अपने सिर में रखवाने के लिए तैयार  खड़ी थी. किंशु की आखें चमक उठी. उसने उस बुढ़िया का फोटोग्राफ, डोरी से भरी टोकरी सिर पर रखते हुए लेना चाहा. जिससे वह टोकरी उठाने की मेहनत से उस बुढ़िया के चेहरे की रेखाओं में हुई वृद्धि को अपने कैमरे की आँख से पकड़ सके. दिखा सके गाँव की कठोर जिंदगी को. एक स्टिल स्नैप में पकड़ सके उस वृद्धा की जिजीविषा को. बारह, पंद्रह किलो वजन की एक टोकरी डोरी को सिर पर उठाना आसान नहीं होता. उस पर वो इतनी जर्जर बुढ़िया.
   किंशुक की आवाज ठहरी हुई, गंभीर और सपनीली हो आई,  “दाई! जब तैं ऐ डोरी के टोकनी उठाबे ता मैं तोर फोटो खींच लों का?”
   जवाब में उस डोकरी दाई के पोपले चेहरे पर मुचमुचाती मुस्कान उभर आई. जैसे बसंत की बयार ने उसे छू लिया हो. किंशु उत्साहित हो उठी. वैसे तो सब एक दूसरे की टोकरी उठाने में मदद कर देते हैं, लेकिन इस फोटो के अच्छे आने के लिए चाहिए था, कि वह डोकरी खुद टोकरी उठाये. किंशुक ने उससे पूछा,
   “दाई तैं आपे आप टोकनी उठा सकबे?”
   “कोनो पाथर में गोड़ रख के टोकनी ला उठा लीहां नोनी.” उसने जवाब दिया.
   किंशुक ने आसपास नजर दौड़ाई. सामने तालाब के किनारे तेंदू के एक बड़े से पेड़ के पास घुटनों तक लम्बी घास फैली हुई थी. उसी के पास एक मटमैला पत्थर था. जिस पर कोई घास नहीं थी.
   “ओ पथरा ऊपर पैर रख के टोकनी उठात बन जाही न”
   “हहो” डोकरी ने सहमति में सर हिला दिया. दोनों ने तय किया कि उस पत्थर पर एक पैर रख, उस पैर पर टोकरी रख कर, पैर के सहारे से वह डोरी फल से भरी टोकरी अपने सिर पर रख लेगी.
   किंशुक अपना कैमरा लेकर तैयार हो गई और वह डोकरी अपनी टोकरी लेकर. जैसे ही उस डोकरी ने उस पत्थर पर अपना पैर रख, उस पर अपनी टोकरी रखी, कि पत्थर में सरसराहट हुई. इससे पहले उन्हें ये समझ आता, कि क्या हो रहा है. उससे पहले ही वो पत्थर टूट गया. वहां की जमीन फट गई. पत्थर टूट कर गोल-गोल सरसराने लगा. जैसे खुल जा सिम सिम का दरवाजा खुल रहा हो.
   किंशुक और डोकरी दोनों का दिल धक् से रह गया. कुछ पल तो उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया, फिर जब समझ आया कि क्या हुआ है तो वे दोनों वहां से जोर से भागे. कोई सोच भी नहीं सकता कि इतनी बूढी, जर्जर बुढ़िया इतने तेज भी भाग सकती है. शायद जान जाने का भय व्यक्ति में प्रचंड शक्ति भर देता है.
   उस तेंदू के पेड़ के नीचे से, उस पत्थर से दूर भाग कर, दोनों अपनी धौंकनी सी चलती सांसों पर काबू पाने की कोशिश कर रहे ही थे कि टीम के बाकी लोग भी दौड़ कर उनके पास आ गये. आरव ने घबराते हुए पूछा,
   “क्या हुआ?”
   किंशुक ने तेंदू के पेड़ की ओर इशारा कर दिया. उन्होंने देखा कि वह पत्थर अब सरसराते हुए धीरे से उस तेंदू के पेड़ की एक डाल पर लिपट रहा है.
   “अजगर !”
   “हां वो अजगर... दरअसल उसे हम पत्थर समझ गए थे. उस पर पैर रखने से अजगर सरसराया तो समझ आया कि वो पत्थर नहीं अजगर है.” किंशुक ने हांफते हुए स्पष्ट किया.
   “हद हो तुम भी... अजगर पर पैर रख दिया ..अगर वो अपने लपेटे में ले लेता तो? जंगल में इतना तो ध्यान रखना चाहिए ना.” चिंता की बारिश यदि होती तो आरव की इस वक्त की आवाज जैसी ही होती.
   “तुम भी उसे पत्थर ही समझते.”
   “तुम अपने उत्साह में कुछ ध्यान नहीं देती हो.” आरव की चिंता नाराजगी के रूप में दिख रही थी. जैसे कुछ देर पहले अजगर पत्थर दिख रहा था.
   अब तक किंशुक ने अपनी घबराहट पर काबू पा लिया था. उसने आरव को स्पष्ट करते हुए कहा,
   “अरे! असल में वो अजगर अपने शिकार के बाद लम्बे समय से आराम पर रहा होगा. इतने लम्बे समय से कि उसके ऊपर धूल, मिटटी, पत्तियां इकट्ठी हो गई और दीमकों ने उसके चारों ओर घर बना लिया. इसीलिए वो हमें एक पत्थर सा लगा.”
   फिर खुद पर ही हंसते हुए आगे कहा,
   “तुम्हें तो मेरी और इन डोकरी दाई की हिम्मत की दाद देनी चाहिए, कि अजगर से डरकर भागते हुए भी न तो मैंने अपना कैमरा छोड़ा, न ही डोकरी दाई ने टोकरी. तुम हमारी हिम्मत की दाद देने की जगह लेक्चर दे रहे हो.”
   आरव इसके जवाब में कुछ कहना चाह ही रहा था, कि तभी एक ह्रदय विदारक चीख सुनाई दी,
   “ऐ दाई वो...”
   वहां तेंदूपत्ता तोड़ते, डोरी बीनते, लकड़ियाँ इकट्ठी करते ग्रामीणों में हलचल मच गई. वे सब भी आवाज की ओर दौड़े. तेंदूपत्ता तोड़ते दो लोगों को सांप ने काट दिया था. सांप जिस तरह पत्तों के नीचे से निकल कर काटा, उसी तरह अपनी एक झलक दिखा, पत्तों के नीचे ही गुम हो गया. किस सांप ने काटा किसी को नहीं पता, सांप गया कहाँ किसी को नहीं पता.
   उन्हें एक आशा हुई कि शायद किसी बिना जहर वाले सांप ने काटा हो. लेकिन उन गाँव वालों को यह आशा नहीं थी. उन सब में सांप काटने का ऐसा आतंक छाया था जैसे किसी जहरीले सांप ने ही काट लिया है.
   पतझड़ और उसके बाद के दिनों में जंगल में सूखे पत्तों की प्याज की पर्तों के तरह निकलते जाने वाली मोटी पर्त पड़ी होती है. किंशुक और उसके साथियों ने तो जंगल बूट पहने थे, लेकिन दिन भर जंगल में काम करने वाले वे ग्रामीण अधिकांशतः खाली पैर ही थे. चप्पल उनके लिए एक विलासिता ही है.
   उनके पास डॉक्टर तक पहुँचने के लिए एक ही साधन था कि मरीज की डंडाडोली बना कर उन्हें लाद कर पैदल ले जाओ. खैर भाग्य से उस दिन किंशुक की टीम थी, तो गाड़ी उपलब्ध थी. उन्होंने गाँव वालों से उन दोनों को अपनी गाड़ी में बैठाने के लिए कहा,
   सांप काट लेने की हड़बड़ाहट, मरीजों पर तारी होती बेहोशी, उन्हें जगाये रखने की कवायद और उन्हें जीप में बैठाने की कोशिश के बीच किंशुक ने उनसे पूछा,
   “सबसे नजदीकी अस्पताल कहाँ है? आप लोग रास्ता बताते जायें. ड्राइवर वहां ले चलेगा.”
   हवा का एक तेज झोंका आया. पत्तियाँ हिलने लगी जैसे वे भी दायें-बायें हिल कर नहीं कह रही हों. गाँव वालों ने दोनों को अस्पताल ले जाने से इनकार कर दिया. दोनों को जीप में बैठाते हुए एक बुजुर्ग से व्यक्ति ने कहा.
   “न नोनी, हमन अस्पताल नई जाबो. इहाँ ले दस किलोमीटर दूर एक गाँव म सिद्ध बाबा हे, उहाँ के माटी म मंतर फुकाए हे. कोनो सांप काटे आदमी एक घ साँस चलत म, उहाँ पहुँच जाथे त ओला कुछु नहीं होए. उहें ले जाबो.”
   

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